व्यंग्य राही की कलम से
मछली’ मर गई। बूढ़ी हो गई थी। मरना तय था। लेकिन अच्छी बात यह कि बड़ी उम्र पाई। वैसे शिकारियों का बस नहीं चला वरना ‘मछली’ को पहले ही मार देते। वास्तव में मछली, ‘दादी-नानी’ बन चुकी थी लेकिन साहस इतना कि इस उम्र में जवान बाघों से भी भिडऩे में नहीं हिचकिचाती थी। मछली ने सरकार को अरबों कमा कर दिए। उसकी लाखों फोटुएं खिंची। अच्छी पेंशन पाने वाली बुढिय़ा की कद्र सारा कुनबा मिलकर करता है।
मछली की मौत का शोक मनाते-मनाते जरा हम अपने भी कर्मों की व्याख्या कर लें। पहले राजा-महाराजे अपने आपको बहादुर घोषित करने के लिए जंगलों से शेरों-बाघों का शिकार करते रहे। बाद में तस्कर शिकारियों ने तो हद ही कर डाली। सरिस्का के जंगलों में तो एक बाघ को नहीं छोड़ा। जंगल काटने में भी हमारा समाज कहां पीछे रहा। जलावन की लकड़ी के बहाने वनों का सूपड़ा साफ कर दिया। जब जंगल ही नहीं बचे तो बेचारे वन्यजीव करें तो करें क्या। जंगल से आदिवासी खदेड़ दिए गए। भूखों मरते आदिवासियों ने शस्त्र उठा लिए तो उन्हें ‘माओवादी’ करार देकर उनका सफाया शुरू हो गया। वन्यजीवों के लिए अभयारण्य बनाए। चलो अच्छी बात है। पर जीवित जनों के लिए हमने समाज में क्या बनाए- भयारण्य।
ऐसा नहीं लगता कि आजकल के शहर सीमेंट कॉन्क्रीट के भयावह जंगल बन चुके हैं जिनमें ‘चंट-चालाक’ लोग भोले-भाले ईमानदार जनों का शिकार करते हैं। रही-सही कसर विशाल राजमार्गों ने पूरी कर दी। इनके लिए लाखों-करोड़ों पेड़ काटे गए और नए पेड़ लगाने की जगह झाडिय़ां लगा कर कर्तव्य की इतिश्री कर ली। बाघिन मछली भाग्यशाली रही जिसे क्रूर शिकारियों ने जीवित रहने दिया। मछली तू सचमुच बहादुर थी। तूने विशाल मगरमच्छ को पानी से खींचकर शिकार किया। वरना ‘ग्राह’ के जबड़े में फंसे ‘गज’ को बचाने के लिए स्वयं ‘नारायण’ को आना पड़ा था।