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नीयत सही, दिशा ठीक नहीं

Published: Jun 26, 2015 10:14:00 pm

केंद्र में भाजपा की सरकार कम
बल्कि मोदी की सरकार ज्यादा है। आज पार्टी संगठनात्मक स्तर पर कमजोर है। लोग पार्टी
में केवल अध्यक्ष को जानते हैं अन्य पदाधिकारियों को नहीं

Modi's government

Modi’s government

केंद्र में भाजपा की सरकार कम बल्कि मोदी की सरकार ज्यादा है। आज पार्टी संगठनात्मक स्तर पर कमजोर है। लोग पार्टी में केवल अध्यक्ष को जानते हैं अन्य पदाधिकारियों को नहीं। यह बेहद चिंताजनक है, खासतौर पर उस पार्टी के लिए जिसके लिए सत्ता कभी भी अभीष्ट नहीं रही। ये बातें प्रसिद्ध चिंतक के.एन. गोविंदाचार्य ने पत्रिका संवाददाता पाणिनि आनंद के साथ बातचीत में कहीं। पेश है इसी बातचीत के अंश…

सवाल- साल भर पहले अच्छे दिन का नारा दिया गया था। अब सब उसका मूल्यांकन कर रहे हैं। कांग्रेस को इसमें नाकामी दिखती है। बीजेपी और आरएसएस मूल्यांकन करते हैं तो उन्हें सब अच्छा दिखता है, आप इसे किस तरह देखते हैं?

जवाब- आजादी के बाद पहली बार गैर कांग्रेसी सोच का एक नेता और राजनीतिक दल पूर्ण बहुमत लेकर सत्ता में आ सका है। उसके सत्ता में आने का कारण है, तीन प्रकार के समर्थकों की ताकत को इकटा कर देना। बीजेपी को मिले करीब 31 फीसदी वोट में से 10 फीसदी ऎसे लोग हैं जो संघ परिवार के इतने वषोंü के काम, जनसंघ की पृष्ठभूमि के कारण जुड़े हैं। 10 प्रतिशत ऎसे हैं जो यूपीए-2 के कामकाज से सख्त नाराज थे। उन्हें लगा मोदी ने नई उम्मीद जगाई है। बीजेपी के प्रति वो इतने अनुकूल नहीं थे लेकिन उन्हें लगता था कि सरकार बदलने से कुछ हो पाएगा। अच्छे दिन के नारे ने सबसे ज्यादा इस वोटर को अपील किया। तीसरा वर्ग है नई पीढ़ी। इन्हें भी इस नारे ने लुभाया। उन्हें रोजगार दिखाई दिया। वो विदेशी बैंकों से अवैध धन की वापसी के वायदे से भी आकृष्ट हुए। इन तीनों वगोंü को एक साथ लाने की कुशलता के कारण ये सरकार बनी। इसको बीजेपी की सरकार कम कहा जाएगा, नरेंद्र मोदी की सरकार ज्यादा है।

ऎसे में यह प्रश्न उठता है कि क्या बीजेपी में संगठन गौण हो गया है?
जवाब- ऎसी स्थिति में आप दो बातें पाएंगे। एक है सत्ता का अति केंद्रीकरण और उसमें अफसरों पर निर्भरता ज्यादा होना। दूसरा, सरकार में पार्टी का वजूद नगण्य हो जाना। सत्ता तो आती-जाती रहती है। पार्टी के उपकरणों का कमजोर होना ज्यादा चिंताजनक है। खासकर ऎसी पार्टी के लिए, जिसके लिए सत्ता अभीष्ट नहीं है। पार्टी में पदाधिकारी कौन हैं, किसी को नहीं मालूम। केवल अध्यक्ष को लोग जानते हैं। आप देखेंगे कि पार्टी के मोचोंü की गतिविधियों में कहीं कोई दम नहीं दिखता।

आपके मुताबिक बीजेपी अपने मूल मुद्दों से हट गई है, तो क्या नए नारे इसलिए खोजे जा रहे हैं क्योंकि पुराने मुद्दों को तवज्जो नहीं दी जा रही ?

जवाब- भुलावा देने और भटकाने की नीति ज्यादा दिन काम नहीं आती है क्योंकि लोग समझने लगते हैं। मसलन, गंगा की बात है। सभी मानते हैं कि गंगा को निर्मल और अविरल करना है। सरकार ने भी यही भावना जताई है। लेकिन तार्किक तौर पर देखें तो निर्मलता तब रहेगी जब अविरलता रहेगी। अविरलता तब होगी जब गंगा में पानी होगा। पानी तब होगा जब सरकार गंगा में पारिस्थितिक बहाव (इकोलॉजिकल फ्लो) को सुनिश्चित करेगी। इस मामले में सरकार का रूख साफ नहीं है। सिर्फ सतही तौर पर काम करना गंगा के प्रति अन्याय होगा। इसलिए सब लोग मान रहे हैं कि सरकार की नीयत कुछ करने की है। लेकिन, दिशा और प्राथमिकताएं स्पष्ट नहीं हैं।

अब विदेश नीति की बात आती है। इस मामले में स्वतंत्रता के बाद नरेंद्र मोदी सबसे सक्रिय प्रधानमंत्री कहलाएंगे। लेकिन महज दूसरे देशों में जाकर दौरा करने, भाषण देने और लोगों के साथ सेल्फी खींचने से बात नहीं बनती है। सरकार ने शुरूआत नवाज शरीफ से की थी। आज भारत-पाक संबंधों की स्थिति क्या बनी है? कूटनीति में हर बात कही नहीं जाती। म्यामांर में जो हुआ उसके बाद कूटनीतिक दृष्टि से भारत की इज्जत तो म्यांमार ही बचा रहा है। आपकी छवि अगर दादागीरी करने वाले राष्ट्र की बनती है तो भारत के अलग-थलग होने का खतरा है। इसलिए विदेश नीति में नफासत की बहुत जरूरत है। चीन के साथ भी गलबहियां तो बहुत अच्छी थीं लेकिन नतीजा क्या निकला। अमेरिका, जापान, भारत और ऑस्ट्रेलिया एकजुट हो रहे हैं। यह कोशिश अमेरिका की सरपरस्ती में हो रही है। लेकिन चीन, इस्लामिक देश, अफ्रीका और यूरोप के कुछ देश इसके खिलाफ लामबंद हो सकते हैं।

उदारीकरण के दौर के बाद से संघ परिवार ने अमेरिका को “दानव” की तरह पेश किया है। चाहे वो डंकल समझौते का मामला हो, विदेशी उत्पाद हों या आयातित बीज। इस नजरिए से क्या सरकारी नीतियों का वर्तमान मॉडल संघ का है, वीएचपी का है, बीजेपी का अपना है, दीन दयाल उपाध्याय का है? आखिर किसका है?

जवाब- देश में विकास की दो विचारधाराएं हैं। एक सोच ये है कि राजसत्ता और अर्थव्यवस्था का विकेंद्रीकरण हो। जो जहां है उसे विस्थापित ना होना पड़े। उसे इज्जत की रोटी मिल सके। ये स्वदेशी मॉडल है। 40 करोड़ किसानों को भगाना और उसके मुताबिक मुआवजा देना, ये अमेरिका और ब्राजील का मॉडल है। 30 हजार हेक्टेयर के फॉर्म, डेयरी और बूचड़खाने, ये विदेशी प्लान है। हर किसान के खूंटे पर मवेशी, कृषि और पशुपालन को मिलाकर बनी अर्थव्यवस्था, भारत के विकेंद्रित विकास का स्वरूप है।

सरकार दो मूलभूत तथ्यों को भूल रही है। वे यह मानते हैं कि छोटी जोत उत्पादक नहीं है। इसे वैज्ञानिक स्तर पर गलत साबित किया जा सकता है। दूसरा, कृषि की स्वावलंबता और खाद्य सुरक्षा खत्म होने का बहुत बड़ा नुकसान होगा। फूड सीक्योरिटी की कीमत पर कृषि नीति बनाना या जमीन अधिग्रहण करना देश की सार्वभौमिकता पर संकट खड़ा करेगा। प्राथमिकता होनी चाहिए शुद्ध पेयजल की, प्राथमिकता होनी चाहिए परिवार को सक्षम बनाने की। आज के नीति नियामक किसानों के खेती छोड़ने से बड़े खुश दिखाई देते हैं।

जबकि उनके लिए ये चिंता का विषय होना चाहिए था। भारतीय विचारधारा के तीन आयाम हैं, राम,राष्ट्र और रोटी। राम आध्यात्मिक मूल्यों से लेकर राम मंदिर तक का विषय हैं। वो राष्ट्र संप्रभुता का विषय है। कश्मीर इसमें चुनौती बना हुआ है। राम मंदिर पर कुछ भी ना होना सरकार की प्राथमिकताओं के बारे में बताता है। अनारक्षित डिब्बे में पीने का पानी हो, ये प्राथमिकता है ना कि बुलेट ट्रेन। स्मार्ट सिटी प्राथमिकता नहीं हैं। जो 238 जिले आर्सेनिक और फ्लोराइड से प्रभावित हैं, वहां पेयजल पहुंचाना, भारतीय मॉडल के हिसाब से ये प्राथमिकता है। अभी लगता है कि अमीरों को लाभ और गरीबों को लोभ दिया जा रहा है।

सवाल- बीजेपी के कुछ सांसदों, मंत्रियों और मार्गदर्शक मंडल या भारतीय मजदूर संघ को देखें तो उनमें क्षोभ नजर आता है। इसकी क्या वजह है?

जवाब- स्वदेशी जागरण मंच, भारतीय मजदूर संघ और भारतीय किसान संघ, ये तीनों ही संघ की आर्थिक विचारधारा का प्रतिनिधित्व करते हैं। स्वदेशी जागरण मंच निराश है क्योंकि खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश का प्रस्ताव निरस्त होने के बजाय आगे बढ़ाया गया है। मजदूर संघ के लोग देख रहे हैं कि श्रम सुधार मजदूरों के हक के विरूद्ध जा रहे हैं। अनुबंध श्रमिकों का शोषण हो रहा है। काम और वेतन में कोई समानता नहीं है।

इन बुनियादी बातों पर वो क्षुब्ध और विरूद्ध हैं। इसी तरह भूमि अधिग्रहण को लेकर भारतीय किसान संघ के लोग ये समझा ही नहीं पा रहे हैं कि अध्यादेश लाने की क्या जल्दी थी। विषय-वस्तु पर तो बाद में बहस होगी। वीएचपी के लोग पूछ रहे हैं कि अगर आप जमीन अधिग्रहण पर अध्यादेश ला सकते हैं तो राम जन्मभूमि के मसले पर आपने क्या पहल की है? ये उस तबके की हताशा है जो सबसे ज्यादा प्रतिबद्ध होकर चुनाव में सक्रिय रहा है। आज उसको अपने क्षेत्र में जवाब देना मुश्किल हो रहा है, ये कोई अच्छी बात नहीं है।

जहां तक आपने मार्गदर्शक मंडल की बात की तो जोशी जी ने कहा है कि गंगा में इकोलॉजिकल फ्लो सुनिश्चित किया जाए। उसके बिना गंगा अविरल नहीं होगी और अविरलता नहीं होगी तो निर्मलता कहां से आएगी? ये पहलू तो ठीक ही है। सरकार को गंगा के बहाव को बाधित नहीं करना चाहिए। गंगा के बहाव को निर्बाध करना ही होगा। गंगत्व का संरक्षण तभी होगा।

पर्यावरण मंत्रालय कहता है कि जंगल की बात छोडिए, पहले आदमी के रहने की जमीन हो। 5 करोड़ भूमिहीन लोगों के पास छत नहीं है। उन्हें आप जमीन देते, भूदान में ली गई जमीन का कब्जा दिलाते लेकिन ऎसा नहीं हो रहा है। जमीन लेने की बात तो कर रहे हैं, देेने की बात कहीं से नहीं कर रहे। इन सब बातों से सरकार की छवि गरीब विरोधी, किसान-विरोधी, जन विरोधी बन रही है तो वो खुद जिम्मेदार हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य, न्याय, मीडिया और लोकतांत्रिक प्रक्रिया, इन चारों क्षेत्रों में धन का प्रभाव बढ़ा है। सरकार का काम साधनहीनों के पक्ष में हस्तक्षेप करने का है। लेकिन, सरकार इस दायित्व से पीछे हटती नजर आ रही है।

बीजेपी में विवादित बयान कठोर हिंदूवाद की प्रतिछाया नहीं है?
जवाब- ये हल्की बातें हैं। जैसे म्यामांर को लेकर बयानबाजी हुई, ये भी उसी प्रकार की अभिव्यक्ति है। राजनीतिक में हमेशा ज्यादा बोलने की कम और कम बोलने की ज्यादा जरूरत होती है।

संघ की मजबूरी क्या है?
जवाब- संघ राष्ट्रहित को सोचकर पार्टी को सत्ता में लाने के लिए काम करता है। लेकिन उनका स्वभाव पेवेलियन में वापस चले जाने का है। उनका मानना है कि बीजेपी में जो स्वयंसेवक हैं, उन्हीं का दायित्व है कि वो चीजों को ठीक करें।

ये जो स्थिति पैदा हुई है, इससे मोदी निकलेंगे कैसे?
जवाब- संवाद, विश्वास, सत्ता का विकेंद्रीकरण, सहभागिता जरूरी हैं। देश में संवाद का वातावरण बनना चाहिए। एकतरफा बातचीत से काम नहीं चलेगा। अभी चार वर्ष और हैं। जनादेश पांच साल का मिला है।

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