निरपराध को सजा न हो, यह देखना
न्याय का काम है पर एक को बचाने में माफिया मौज मारे, यह कहां का न्याय है?
खेत के चारों तरफ कंटीली झाडियों की बाड़ लगाई जाती है
इसलिए कि आवारा पशु खेत में न घुस सकें और फसल का नुकसान न हो। लेकिन क्या हो कि जब
बाड़ ही खेत को खाने लगे? बेचारा किसान क्या करेगा? ताले चोरों की खातिर लगाए जाते
हैं लेकिन जब चौकीदार ही माल पार करने लगे तो बेचारा मालिक कहां जाकर रोएगा। अब तो
इस देश में यही होता दिख रहा है। रक्षक ही भक्षक हो रहे हैं।
इंदिरा गांधी के समय
भ्रष्टाचार की जो धार नाली के रूप में शुरू हुई थी वह मनमोहन-2 के राज में गंदा
नाला बन गई थी। भ्रष्टाचारी उसमें डुबकी लगा कर अपने आपको धन्य मानने लगे। लगा कि
जैसे भ्रष्टाचार रूपी राक्षस का अंत हो जाएगा। लेकिन हुआ क्या? अलबत्ता जो
भ्रष्टाचार एक बेलगामी घोड़ा बन कर बेतहाशा भागा जा रहा था उसके लगाम तो लगी लेकिन
उसे पूर्णत: काबू तो अभी तक न मोदी कर पाए हैं और न केजी। इसका कारण भी है। अब
भ्रष्टाचार हमारी रगों में वायरस की तरह घुल गया है। बेइमानी के बैक्टीरिया देश के
शरीर में पैठ जमा चुके हैं।
इनसे पार पाना एक-दो लोगों के वश की बात नहीं। जब सारा
तंत्र ही गल चुका हो तो क्या करेंगे मोदी और क्या करेगे केजी। सूबे की हों या
केन्द्र की। सरकारों का इकबाल खत्म हो चुका है। राज का डर रहा ही नहीं। जब
भ्रष्टाचारी, स्वेच्छाचारी राज्य से डरना छोड़ देते हैं तो फिर क्या होता है यह
बताने की भी जरूरत क्या है?
राज की पताका फहराने में न्याय की सबसे बड़ी भूमिका
होती है। जब चोर लुटेरों के दिल से अदालत का डर निकल जाए तो फिर वे अपनी करनी से
बाज नहीं आते हैं। आजकल न्याय भी अपना चाबुक असली अपराधियों पर कम कानून मानने
वालों पर ज्यादा चलाने लगा है। क्यों एक तड़ी पार गुंडा और आदतन अपराधी बार-बार जेल
से बाहर आकर अपराध दोहराता है। क्योंकि वह कानून की छलनी से छन कर बाहर आ जाता है।
कानूनी भाषा में जमानत पर छूट जाता है। माना कि निरपराध को दण्ड न हो, यह देखना
न्याय का काम है पर एक को बचाने के चक्कर में सारा अपराधी तंत्र ही मौज मारे, यह
कहां का न्याय है? और जरा मजे देखिए। जिसे सजा हो गई वह तो मजे से शूटिंग में बिजी
हो गया है क्योंकि वह पैसे वाला है, पहुंच वाला है और जो बेचारा कुछ हजार की जमानत
नहीं जुटा पाया वह जेल में पड़ा सड़ रहा है हालांकि उस पर अभी अपराध भी साबित नहीं
हुआ।
तो साहब जरा अपनी आंख खोल कर चारों तरफ निहारिए। आपको बाड़ ही खेतों में चरती
हुई मिल जाएगी। चाणक्य ने अपने सूत्रों में कहा है जैसे पानी में तैरती मछली कब
पानी पी जाती है पता ही नहीं चलता वैसे ही भ्रष्ट सरकारी अधिकारी कब राज्य का धन
गिटक जाता है, मालूम ही नहीं पड़ता।
राही