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सीधे सरकारों से हो रक्षा खरीद (सुरीश मेहता)

Published: Oct 27, 2016 11:49:00 pm

‘गवर्नमेंट टू गवर्नमेंट’ खरीद किए जाने से छल-कपट की गुंजाइश नहीं रहती और
खरीद भी जल्दी हो जाती है। जिस तरह हमने फ्रांस से राफेल खरीद को अंजाम
दिया है, उसी पैटर्न पर बड़ी रक्षा खरीद होनी चाहिए। इस तरह पारदर्शिता बनी
रहती है

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रक्षा खरीद की प्रक्रिया में जो गलती पिछली सरकार ने की थी, मौजूदा सरकार भी वही दोहराती दिख रही है। मतलब यदि कोई कंपनी दलाली देती है या समझौते का उल्लंघन करती है तो उस कंपनी को ब्लैकलिस्ट करना समाधान नहीं है। कई बार तो उस समूह की ही सारी कंपनियों को ब्लैकलिस्ट कर दिया जाता है, जो कि अविवेकपूर्ण है।

जाहिर तौर पर हम इसका खामियाजा भुगतते रहे हैं। अभी रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर ने यूपीए सरकार के वक्त 2010 में आतंकवादियों से लडऩे के लिए राइफल खरीद के लिए एक इजरायली कंपनी को दिए 1000 करोड़ रुपए के कॉन्टे्रक्ट को रद्द कर दिया है। रक्षा मंत्रालय की ओर से कहा गया है कि तमाम विचार-विमर्श और वैधानिक सलाह के बाद यह डील समाप्त की गई है। अब सेना को फिर से ये बंदूकें खरीदने की प्रक्रिया शुरू करने को कहा गया है।

यानी इस तरह डील खत्म करके हम खुद को ही दण्ड दे रहे हैं। जाहिर है कंपनी को तो नुकसान दिया ही है पर हम खुद का भी नुकसान कर रहे हैं। इस तरह हमारा सैन्य आधुनिकीकरण बहुत पिछड़ गया है। हमारे पास अभी पुरानी कार्बाइन राइफल हैं। अब या तो हम स्वदेशी निर्माण की क्षमता विकसित कर अपनी ताकत बढ़ाएं या फिर इस तरह रद्द होती डील से पिछड़ते जाएं। मेरा मानना है कि हमें रक्षा खरीद में व्यावहारिक होने की जरूरत है। सबसे पहला उपाय तो हमें यह करना चाहिए कि हम बड़ी रक्षा खरीद संबंधित देश की सरकार से करें।

अगर ‘गवर्नमेंट टू गवर्नमेंट’ खरीद होगी तो उसमें छल-कपट की गुंजाइश नहीं रहती और खरीद भी जल्दी हो जाती है। जिस तरह हमने फ्रांस से राफेल खरीद को अंजाम दिया है। इस तरह डील में एक पारदर्शिता और स्पष्टता रहती है। दोनों सरकारों को मालूम रहता है समझौता क्या है और उसे कैसे पूरा करना है? इसलिए अभी तक जो खरीद का सिद्धांत रहा है, वो मूलत: गलत है। हालांकि छोटी रक्षा खरीद में हमें कंपनियों से ही संपर्क करना होगा पर वह भी पूर्णत: सरकार की निगरानी में हो। किसी कंपनी से डील करने से हमें पहले अच्छा होमवर्क करना चाहिए।

कंपनी को यह स्पष्ट चेतावनी हो कि यदि दलाली दी गई तो खामियाजा कंपनी को ही भुगतना पड़ेगा। अगर भारत से कोई बिचौलिया सामने आए तो फौरन सजा दी जानी चाहिए। त्वरित गंभीर कार्रवाई से कंपनियां भी सावचेत रहेंगी और बिचौलिए भी। वरना अभी तो हमारी सेनाओं को ही आधुनिक हथियारों का अभाव झेलना पड़ता है।

इसलिए रक्षा मंत्रालय को एक ‘फुल पू्रफ मेथेडॉलोजी’ अपनानी होगी। रक्षा खरीद के लिए हमें पुख्ता मापदंड बनाने होंगे। जो कंपनी ज्यादा से ज्यादा ये मापदंड पूरे करे, उससे डील कर ली जाए। पर कई दफा दिक्कत खुद हमारे रक्षा मंत्रालय के स्तर पर भी सामने आती है। जिस तरह इस राइफल डील में सामने आया है कि 28 कंपनियों ने टेंडर प्रक्रिया में हिस्सा लिया था। पर आखिर में डील एक इजरायली कंपनी को मिली, जिसे जानबूझकर फायदा पहुंचाने के लिए नियमों को ताक पर रखने का आरोप है।

यानी अभी हमारी रक्षा खरीद प्रक्रियाएं नौकरशाहों द्वारा जकड़ी हुई हैं। ये सैन्य जरूरतों को न तो समझते हैं न ही खरीद प्रक्रियाओं को आसान बनाने पर जोर देते हैं। रक्षा तंत्र में सबसे ताकतवर तो रक्षा सचिव है, पर जवाबदेही नहीं है। सेनाओं पर जवाबदेही है पर अधिकार नहीं है। इस स्थिति को सुधारने के लिए एक ‘चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ’ होना चाहिए। वहां खरीद से लेकर समंवय का काम होना चाहिए। इसके अलावा हमें स्वदेशी हथियार निर्माण पर जोर देना चाहिए।

रक्षा उपरकणों से संबंधित सौदों में दलाली की बात आती है तो स्वाभाविक तौर चिंता होती है। जनमानस में सवाल उठता है कि क्या दलाली खाकर हथियार खरीद से देश की सुरक्षा से समझौता नहीं किया जाता? पूर्व में पनडुब्बी खरीद से लेकर बोफोर्स तोप खरीद, बराक मिसाइल से लेकर अगस्ता हेलीकॉप्टर में दलाली के प्रकरण गुंजायमान रहे हैं। हमने उपाय के तौर पर कंपनी को ब्लैकलिस्ट कर दिया और दोषियों तक नहीं पहुंच पाए।

हालांकि रक्षा संबंधी सौदों में काफी सतर्कता बरती जाती है। कंपनी के लोग रक्षा मंत्रालय से संपर्क में रहते हैं और भारतीय सेना की जरूरत के मुताबिक सामग्री की खरीद होती है। पर फिर भी एक-एक सौदे में वर्षों लग जाते हैं। फिर भी जरा-सी हेराफेरी की अफवाह पर ही सौदे रद्द कर दिए जाते हैं। पर इसका नुकसान मैं फिर दोहराना चाहूंगा कि कंपनी को यदि ब्लैकलिस्ट कर देने से हम हमारे दुश्मनों के मुकाबले तकनीकी तौर पर काफी पिछड़ते चले जाते हैं।

कई बार रक्षा सौदों को लेकर केवल आरोप लगाए जाते हैं और बाद में पता लगता है कि इन आरोपों को साबित करना बेहद कठिन है। रक्षा उपकरण बेचने के लिए कंपनियों के बीच गलाकाट प्रतिस्पर्धा होती है। ऐसे में यदि किसी एक कंपनी के साथ सौदा होता है तो अन्य प्रतिस्पर्धी कंपनियां यह दिखाने की कोशिश करने लगती है कि सौदे में कुछ न कुछ हेराफेरी जरूर की गई है। स्वदेशी पनडुब्बी निर्माण में भी हम इन्हीं वजहों से पिछड़ गए। समाधान यही है कि सरकारों के साथ सीधी बातचीत की जाए।
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