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गांधी का वह आखिरी दिन

आज हमें यह तो याद है कि देश की आजादी के महानायक मोहन दास कर्मचंद
गांधी को नाथूराम गोडसे ने मारा था। यदि वह नहीं मार पाया तो उनके दर्शन
को

Jan 29, 2016 / 11:24 pm

शंकर शर्मा

Mahatma Gandhi

Mahatma Gandhi

आज हमें यह तो याद है कि देश की आजादी के महानायक मोहन दास कर्मचंद गांधी को नाथूराम गोडसे ने मारा था। यदि वह नहीं मार पाया तो उनके दर्शन को। शायद, यही वजह थी कि हत्या से पहले वह भी उनके आगे नतमस्तक हुआ था। लेकिन, हमने क्या किया, साल के दो दिन उनकी प्रतिमा या समाधि पर फूल चढ़ाकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली। राजनेताओं ने उनके नाम व दर्शन को सत्ता हासिल करने का जरिया बना डाला। यही नहीं कुछ ने तो चरित्र हनन भी किया! ऐसा करते हुए क्या निरंतर उनके आदर्शों की हत्या नहीं हो रही? ऐसी ही चिंताओं को समेटे पढि़ए विशेष आलेख और जानिए कैसे गुजरा था उनका आखिर दिन?

सुमित्रा गांधी कुलकर्णी महात्मा गांधी की पौत्री
शुक्रवार 30 जनवरी का दिन उगा। हमेशा की भांति गांधीजी ब्रह्ममुहूर्त में तीन बजकर तीस मिनट पर उठे और प्रार्थना के बाद पत्रों का उत्तर लिखने लगे। उपवास के बाद की कमजोरी नई नहीं थी। लेकिन, काम खींच ही रहे थे। तबीयत ठीक नहीं लगी, इसलिए सुबह घूमने न जाकर कमरे में ही इधर-उधर थोड़ा टहले। उस समय घूमने के बदले मनु लौंग कूट रही थीं कि रात को खांसी उठने पर गुड़ के साथ लौंग का पाउडर मुंह में रखने से बापूजी को आराम मिलेगा।

यह देखकर बापूजी ने कहा, ‘किसे मालूम है रात तक क्या होने वाला है? मैं जिन्दा रहूंगा भी या नहीं। अगर रात को मैं जिन्दा होऊं तो तुम उस समय लौंग कूट लेना। थोड़ी देर बाद रात में तैयार किया हुआ कांग्रेस संविधान के प्रारूप को प्यारेलालजी को देकर कहा, ‘इसे देख लेना। कुछ छूट गया हो तो पूरा कर देना। बड़ी थकान में मैंने तैयार किया है।

मालिश करवाते हुए कहने लगे, ‘मालूम नहीं क्यों कृषि मंत्रालय अनाज की कमी के नाम पर डर रहा है। मद्रास प्रान्त में तो प्रकृति की अपार अनुकम्पा है। नारियल, मूंगफली, केले, टेपीओका आदि अनेक कंदमूल-फल हैं। अगर लोग कुदरत की देन का पूरा उपयोग करें तो इस प्रकार अनाज की भीख न मांगनी पड़े। नहाने के बाद बापूजी को बड़ा अच्छा लगा। शरीर की अस्वस्थता दूर हो गई और स्फूर्ति महसूस करने लगे। उन दिनों हिन्दू महासभा के अध्यक्ष डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी केन्द्रीय मंत्रिमंडल के सदस्य थे। 29 जनवरी को बापूजी ने प्यारेलालजी को डॉक्टर मुखर्जी के पास भेजा था कि हिन्दू महासभा के कार्यकर्ता बड़े उत्तेजक भाषण देते हैं और कांग्रेस नेताओं के नाम लेकर उनकी हत्या करने की बातें करते हैं। डॉ. मुखर्जी उनके नेता हैं, उन लोगों को ऐसी उत्तेजित बातें करने से रोक सकें तो ठीक होगा।

पर वह गांधी कौन है..
 दोपहर में मौलाना लोग आ गए। बापूजी ने कहा, ‘अगर समय से मैं सेवाग्राम नहीं गया तो बाकी के सभी कार्यक्रम गड़बड़ा जाएंगे। 14 फरवरी तक दिल्ली लौट आना चाहिए ताकि पाकिस्तान जा सकूं। लेकिन, यहां से सेवाग्राम के लिए भी निकल पाऊंगा या नहीं, यह भी कहना मुश्किल है। सब ईश्वर के हाथ में है। मौलाना- ‘आप जाइए। आपकी गैरहाजिरी में दिल्ली कैसा रहता है यह भी पता चल जाएगा। दोपहर के दो बजे एक पत्रकार ने पूछा, ‘क्या यह सच है कि आप एक फरवरी को सेवाग्राम जा रहे हैं? बापूजी ने पूछा, ‘कौन कहता है? पत्रकार ने कहा, ‘अखबार में छपा है। बापूजी ने उत्तर दिया, ‘हां, अखबारों में खबर है कि गांधी पहली को सेवाग्राम जाएगा लेकिन वह गांधी कौन है, यह मुझे मालूम नहीं है।

पटेल-नेहरू में मतभेद
चार बजे सरदार पटेल बापूजी से मिलने आए। बड़ी गम्भीर चर्चा थी। सरदार सरकार से मुक्त होना चाहते थे। बापूजी ने उनसे कहा कि ‘पहले वे भी यही सोचते थे कि दोनों- नेहरू या सरदार में से एक को सरकार से निकल जाना चाहिए। लेकिन अब स्पष्ट निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि दोनों को सरकार में रहना चाहिए, इस मौके पर अलग होने से अनर्थ होगा। प्रार्थना में भी यही कहने वाले थे और शाम को जवाहरलाल से भी यही बात करेंगे। अगर आवश्यकता हुई तो सेवाग्राम जाना स्थगित कर देंगे ताकि यह विचारभेद हमेशा के लिए समाप्त हो जाय। सरदार के लिए बापूजी की यह अन्तिम आज्ञा थी। फिर, विचारभेद भी हुए लेकिन सरदार ने स्वप्न में भी नेहरूजी का साथ न छोड़ा।

वहां बैठी भीड़ बापूजी का अभिवादन करने के लिए उठ खड़ी हुई। थोड़ा-थोड़ा खिसककर लोगों ने उनके जाने का रास्ता भी बना दिया। बापूजी ने भी दोनों हाथ जोड़कर सबको नमस्ते किया। उतने में कोई भीड़ को चीरता हुआ धक्का-मुक्की करता हुआ वहां आ गया। ऐसा लगा कि वह बापूजी के चरणों में गिर पड़ेगा। बापूजी को पांव छुवाना एकदम नापसन्द था। भगवान के ही चरण स्पर्श किए जाते हैं। मनुष्य होकर दूसरे या पराये मनुष्य से पांव छुवाना ईश्वर की साक्षी में अहंकार करने के बराबर हो जाएगा। इसलिए साथ में चल रही मनुबहन ने हाथ फैलाकर उस नतमस्तक व्यक्ति को रोकना चाहा लेकिन उस मनुष्य ने मनुबहन को धक्का देकर अलग कर दिया। नमस्ते करते हुए बंधे हाथों से पिस्तौल की तीन गोलियां छूटीं। पहली गोली पर बापूजी के पांव लडख़ड़ाए।

दूसरी गोली लगने पर बापूजी ‘हे राम कहकर गिर पड़े। तीसरी गोली की आवश्यकता ही नहीं थी लेकिन नाथूराम गोडसे पक्का काम करने के आदी थे इसलिए तीसरी गोली छोड़कर पक्का किया कि कहीं गांधी बच न जाय। बापूजी के जमीन पर लुढ़क जाने पर लोगों को पता चला कि कुछ गड़बड़ है। बापूजी की श्वेत शुभ्र चादर पर रक्तवर्णिम कुसुम जैसा दाग पसरने लगा। लोगों ने डॉक्टर को बुलाना चाहा लेकिन बापूजी के प्राण पखेरू किसी की भी प्रतीक्षा किए बिना ‘हे राम के अनादि घोष के साथ परमात्मा में विलीन हो चुके थे। अहिंसा और सत्य के लिए चरम बलिदान का उत्कर्ष कर वे मुक्त हो गए थे। आजीवन की उनकी तपस्या सफल हो गई थी। भारतवर्ष के भाग्य का स्वर्णिम नक्षत्र सदा के लिए अस्त हो गया। साभार : महात्मा गांधी मेरे पितामह पुस्तक से

पूर्वाभास था उन्हें!
करीब चार बजे सरदार वल्लभ भाई पटेल बापूजी से चर्चा के लिए आ गए। काफी गंभीर विषय पर चर्चा होती रही। बातें करते हुए समय उड़ा जा रहा था। प्रार्थना के लिए देर हो गई। बापूजी ने कहा, ‘अब मैं प्रार्थना के लिए भागूं।Ó उस समय किसी ने कहा, ‘काठियावाड़ से दो कार्यकर्ता मिलने आए हैं।Ó बापूजी ने कहा, ‘प्रार्थना के बाद आने को कहो। अगर जिन्दा रहा तो मिलूंगा। बापूजी को प्रार्थना में देर करना जरा भी पसन्द नहीं था। लेकिन, उस दिन पांच-दस मिनट देर हो ही गई थी। बापूजी बहुत तेज चल सकते थे। उस दिन देर हो रही थी तो लगभग भागते हुए प्रार्थना भूमि पर पहुंचे।

गोडसे भी नतमस्तक
सभा स्थल पर बैठी भीड़ बापूजी का अभिवादन करने के लिए उठ खड़ी हुई। बापूजी ने भी दोनों हाथ जोड़कर सबको नमस्ते किया। उतने में कोई भीड़ को चीरता हुआ धक्का-मुक्की करता हुआ वहां आ गया। ऐसा लगा कि वह बापूजी के चरणों में गिर पड़ेगा। बापूजी को पांव छुवाना एकदम नापसन्द था। भगवान के ही चरण स्पर्श किए जाते हैं। मनुष्य होकर दूसरे या पराये मनुष्य से पांव छुवाना ईश्वर की साक्षी में अहंकार करने के बराबर हो जाएगा। मनु बहन ने हाथ फैलाकर उस नतमस्तक व्यक्ति नाथूराम गोडसे को रोकना चाहा लेकिन वह नहीं रुका और फिर…

वे करिश्माई व्यक्तित्व के धनी थे
प्रो. विद्या जैन निदेशक, गांधी अध्ययन केन्द्र राज. वि.वि. जयपुर
महात्मा गांधी के चिंतन के कई पहलू हैं जिनको आज के समय में याद किया जाना काफी जरूरी है। यह चिंताजनक तथ्य है कि गांधी के अवदान पर चर्चा करने के बजाय उनके बारे में बेवजह ऐसे तथ्यों को तूल दिया जाता है जिन का कोई अर्थ ही नहीं। दरअसल यह कथित विदेशी बुद्धिजीवी कहे जाने वालों की देन है जो भारतीय चिंतन को चिंतन नहीं मानते। इनका ध्यान गांधी व अम्बेडकर सरीखे महापुरुषों के बारे में अनावश्यक चर्चाओं पर ज्यादा रहता है। मसलन वे क्या खाते थे? कैसे रहते थे? कैसे चलते थे आदि। गांधी का मूल विचार तो सत्य, अहिंसा व सत्याग्रह का रास्ता दुनिया को दिखाने का रहा है।
 
प्रकृति के नजदीक
देखा जाए तो वे एक और पर्यावरण प्रेमी नजर आते हैं तो दूसरी और राजनीतिक व्यक्ति और दार्शनिक। प्रकृति और पर्यावरण की महत्ता दर्शाते हुए वे कहते हैं ‘धरती के पास सबका पेट भरने के लिए सब कुछ है पर हम जिस तरह जी रहे हैं उसमें चार-पांच धरती भी कम पड़ेगी। कुछ लोग षडयंत्र पूर्वक उनके बारे में अनर्गल प्रचार करने में भी पीछे नहीं रहते। गांधी के चिंतन को हम समष्टि के रूप में देखें तो व्यक्ति और समाज प्रकृति व ईश्वर से अलग नहीं है। बहुत बड़ा प्रश्न यह है कि गांधी आखिर क्या थे? वे राजनीतिक रूप से एक कुशल रणनीतिकार थे तो एक बड़े दार्शनिक भी। आजादी के आंदोलन को उन्होंने जनआंदोलन के रूप में खड़ा किया। हम देखते हैं कि जब गोपाल कृष्ण गोखले पटल पर थे तो तक आजादी का आंदोलन बुद्धिजीवियों के हाथ में था। गांधी जी ने इससे गरीब, दलित और मध्यम वर्ग को भी जोड़ा।

संत और राजनीतिज्ञ
वे इतने बड़े आंदोलन का नेतृत्व कर रहे थे कि संतों में राजनीतिज्ञ और राजनीतिज्ञों में संत नजर आते थे। यह अंतर्सबंध उनके जीवन से जुड़ी हर घटनाओं में नजर आता है। मुझे कई अंतरराष्ट्रीय सेमीनारों में भी जाने का मौका मिला है। इनमें यह महसूस किया है कि बाहर का बुद्धिजीवी भी गांधी को ‘महामानव का दर्जा देते हैं। दुर्भाग्य इस बात का है कि हमारे यहां विदेश से कोई बात आती है तब ही उस पर मुहर लगती है। हमारा योग बाहर जाकर ‘योगा हो जाता है तो सब मानने लगते हैं। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि गरीब और अमीर के बीच खाई पाटने का काम गांधी के बताए रास्ते पर चल कर ही किया जा सकता है। पश्चिमी चिंतक एरिक्सन ने अपनी पुस्तक ‘मोहनिया टू महात्मा में गांधी को करिश्माई व्यक्तित्व बताया है।महापुरुषों से जुड़े विवाद जब उठते हैं तो काफी दु:ख होता है। नेताजी सुभाष बोस का निधन विमान हादसे में हुआ या नहीं इस पर भी बहस का व्यर्थ मुद्दा बनाया जा रहा है। हमें यह सोचना चाहिए कि कोई व्यक्तित्व आखिर हमें क्या दे गया ?

खुद को ढालना होगा
सवाल यह भी उठता है कि आखिर गांधी दर्शन का प्रसार कैसे हो? मेरा तो यह मानना है कि सबसे पहले गांधी को पढऩे-पढ़ाने वाले को भी खुद को गांधी के अनुरूप ही ढालना होगा। युवा पीढ़ी गांधी के सत्याग्रह आंदोलन से किस तरह से जुड़ी यह हमने अन्ना हजारे के तेरह दिन के आंदोलन में देखा है। अन्ना की एक आवाज पर देश भर में युवा पीढ़ी में भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन का जो ज्वार उठा वह किसी से छिपा नहीं है।

इसलिए यह कहना भी ठीक नहीं है कि हमारी युवा पीढ़ी गांधी को बिसराती जा रही है। दरअसल गांधी को सिस्टम के हाथों बिसराया जा रहा है। पिछले सालों में हमने देखा है कि सत्ता में आने के लिए राजनीतिक लोगों ने गांधी का सबसे ज्यादा इस्तेमाल किया। वे सत्ता में काबिज भी होते गए लेकिन जब गांधी के सिद्धांतों और नीतियों को लागू करने का मौका आया तो पीछे हट गए। गांधी के आदर्शों को किताबों से बाहर लाने की जरूरत है। गांधी के विचार हर समय प्रासंगिक हैं। जरूरत इनको अपनाने की है। गांधी कहते हैं ‘प्रथम पुरुष एक वचन की शुरुआत तुमसे ही है। हम चाहें तो व्यवस्था के खिलाफ खड़े हो सकते हैं। पहले खुद में ही वह भाव जगाना होगा।

सत्ता के लिए नाम का इस्तेमाल
दरअसल गांधी को सिस्टम के हाथों बिसराया जा रहा है। पिछले सालों में हमने देखा है कि सत्ता में आने के लिए राजनीतिक लोगों ने गांधी का सबसे ज्यादा इस्तेमाल किया। वे सत्ता में काबिज भी होते गए लेकिन जब गांधी के सिद्धांतों और नीतियों को लागू करने का मौका आया तो पीछे हट गए। गांधी के आदर्शों को किताबों से बाहर लाने की जरूरत है। गांधी के विचार हर समय प्रासंगिक हैं।

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