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साहित्य से अपना उतना ही नाता है जैसे गोलगप्पे बेचने
वाले का पंसारी से।

Jul 02, 2015 / 12:45 am

मुकेश शर्मा

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शीर्षक पढ़ कर आपको लगेगा जैसे हम किसी साहित्यिक विष्ाय पर निबन्ध लिख रहे हैं। जी नहीं। साहित्य से अपना उतना ही नाता है जैसे गोलगप्पे बेचने वाले का पंसारी से। आजकल के लेखकों और पंसारी में ज्यादा अन्तर नहीं दिखता।


एक मसालों का कारोबार करता है और दूसरा शब्दों का। दोनों का जनता से सम्बंध सिर्फ खाने-कमाने का है। यूं भी अगर किस्से-कहानियों, कविताओं ,गल्पों से समाज बदल जाता तो अब तक रामराज आ चुका होता। राजनीति बदलती है समाज और उसकी अपनी शब्दावली है।


हरेक युग की सत्ता के अपने शब्द होते हैं जो ऎसे ही बदलते रहते हैं जैसे सत्ता बदलते ही अफसर। नेहरू युग के शब्द थे- पंचशील, भूदान, योजना आयोग, यूएनओ, कश्मीर, शरणार्थी, जनसंघ, लोहिया इत्यादि-इत्यादि। इसके बाद इंदिरा युग की शब्दावली थोड़ी अलग रही।


गरीबी हटाओ, समाजवाद, प्रीवीपर्स, राष्ट्रीयकरण, बांग्लादेश, सिन्डीकेट, इंदिरा कांग्रेस, दुर्गा, आपातकाल, मारूति, बेलछी, सातवां बेड़ा, मिग, सोवियत संघ इत्यादि शब्द हावी रहे। फिर अल्प समय के लिए जनता पार्टी सत्ता में आई लेकिन वहां दोहरी सदस्यता, स्वयं सेवक संघ, राम-हनुमान, जूत्तम पैजार, डॉयलैसिस, मध्यवर्ती चुनाव, वापसी जैसे शब्दों का पूरा जोर रहा। राजीव युग भी अल्पकालीन था लेकिन इसमें इक्कीसवीं सदी, बड़े पेड़ का गिरना,धरती हिलना, बोफोर्स, दलाली जैसे शब्द छाये रहे।


इसके बाद कई युग आए लेकिन उनका समय थोड़ा रहा। हां मौनमोहन युग पूरे दस साल चला। इस युग में रिमोट कन्ट्रोल, दलाली, भ्रष्टाचार, राष्ट्रमंडल खेल, कोलगेट, टू जी, जैसे शब्दों की भरमार रही। अब नमो युग चल रहा है। भारतीय राजनीति का यह नितांत नया वक्त है लेकिन इसकी अपनी अनोखी शब्दावली है।


इसमें सेल्फी, गुजरात मॉडल, अच्छे दिन, मन की बात, विदेशी दौरे, तीन बहनें- एक भतीजी, छप्पन इंच और न जाने कौन-कौन से शब्द राजनीतिक डिक्शनरी में आ चुके हैं।


हर दौर में शब्द पनपते और मरते रहते हैं। एक सत्ता के शब्द दूसरी सत्ता में बेकार हो जाते हैं। कुछ घिस जाते हैं लेकिन अनेक शब्द ऎसे हैं जो लगातार चलते रहते हैं जैसे देश के लिए जान, गरीबी, भ्रष्टाचार, हमारी सरकार, शर्मनाक पूरा देश देख रहा है, राष्ट्र प्रेम, देशद्रोही जैसे शब्द लगातार काम में लिए जाते रहे हैं।


आप बड़े मजे से हरेक काल में सौ दो सौ शब्द चिन्हित कर सकते हैं। अगर इन्हें हटा दिया जाए तो यह काल भी इतिहास से गायब हो जाएगा। शब्दों की सूची बनाना बड़ा दिलचस्प खेल है। वैसे एक बात आपको बता दे।


अपना चहेता शब्द “अरे यार” आक्सफोर्ड डिक्शनरी में भी शामिल हो चुका है। हालांकि यह राजनीति का नहीं प्रेम का शब्द है। मजे की बात देखिए कि चालीस बरस पहले की भायलियां और अब मासूम नवासी भी “अरे यार” कह कर ही बुलाती है। क्या अजीब बात है? – राही

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