देश के पूर्व सैनिक अब भी संघर्षरत हैं।
सीमा पर दुश्मन के साथ नहीं बल्कि अपने ही देश की सरकार के साथ वन रैंक-वन पेंशन
लागू करने को लेकर। सैद्धांतिक सहमति के बावजूद सरकार की उलटबासियां जारी हैं। हाल
ही वित्त मंत्री अरूण जेटली का बयान कि हर साल पेंशन में संशोधन संभव नही, से ऎसा
लगता है कि सरकार एक बार फिर इसे टालने की कोशिश में है। फौज के मनोबल पर सरकार के
इस रवैये का क्या होगा असर? जब सरकार इस मसले पर सहमत है तो देरी के क्या कारण हो
सकते हैं? जानिए ऎसे ही सवालों पर विशेषज्ञों की राय आज के स्पॉट लाइट
में…
सरकार के इरादे में स्पष्टता का अभाव
सेनि. एडमिरल सुरीश
मेहता
वन रैंक-वन पेंशन को लेकर हम लंबे समय से मांग करते आ रहे हैं
लेकिन परेशानी यह है कि केवल आश्वासनों के अलावा अभी तक कुछ भी हासिल नहीं हुआ है।
केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा चुनाव से पूर्व हमारी मांग का समर्थन करती रही है और
सैद्धांतिक रूप से सैनिकों की मांग को सही भी मानती है लेकिन अब समझ में नहीं आ रहा
है कि यह टालमटोली का रवैया क्यों अख्यितार किया जा रहा है।
मनोबल पर
दुष्प्रभाव
यह बहुत ही गंभीर मामला है। सरकार को यह बात समझनी चाहिए कि जिस बात
से वह पूर्व में सैद्धांतिक तौर पर सहमत थी, उसे लागू करने में अब दिक्कत कैसी? आज
देश के सैनिक का सारा ध्यान सीमाओं की सुरक्षा पर होना चाहिए लेकिन वह अपनी वन
रैंक-वन पेंशन के मुद्दे को लेकर सरकार की ओर टकटकी लगाए देख रहा है। पूर्व सैनिक
इसी मुद्दे को लेकर धरने पर बैठे हैं। अन्य देश हमारे देश में सैनिको की ऎसी स्थिति
पर हंस रहे हैं कि यहां सैनिकों के साथ किस तरह का व्यवहार किया जा रहा है? पड़ोसी
मुल्क पाकिस्तान को ही देख लीजिए, वहां सैनिकों के साथ किस तरह का व्यवहार होता है?
यह सारी बातें सेना के मनोबल पर विपरीत प्रभाव डालती हैैं। सेना के मनोबल का ध्यान
में रखते हुए उहापोह की स्थिति से सरकार को बाहर निकलना चाहिए।
धन की कमी
बहाना
मीडिया के माध्यम से जानकारी मिली जिसमें वित्त मंत्री अरूण जेटली ने कहा
है कि सरकार वन रैंक-वन पेंशन के मुद्दे को लेकर प्रतिबद्ध है लेकिन उनकी गणना के
आधार पर हर महीने या हर साल पेंशन संशोधित नहीं की जा सकती। इसके अलावा यह भी सुनने
को मिल रहा है कि कभी 2011 तक ही इसे लागू करना चाहते हैं। फिर, सुनने को मिला कि
2014 तक देने पर सहमति बन रही है लेकिन पर्दे के पीछे क्या चल रहा है यह स्पष्ट
नहीं है। यदि इन सारी बातों को सही माना जाए तो मेरा मानना है कि सरकार के पास पैसे
की कमी बिल्कुल भी नहीं है। जोड़-बाकी पूर्व में किया जा चुका है।
हम सरकार को पूरी
गणना के आधार पर बता चुके हैं कि उस पर 8000 करोड़ रूपए का ही भार आने वाला है। यह
वित्तीय भार ऎसा नहीं है कि सरकार उठा नहीं सके। सरकार जब बिहार को सवा लाख करोड़
आर्थिक पैकेज दे सकती है तो इतनी छोटी सी राशि सैनिकों को क्यों नहीं दे सकती? इसके
अलावा नौकरशाहों के पेंशन बिल पर सरकार को जितना खर्च करना पड़ता है, उसके मुकाबले
सैनिकों के बिल का खर्च 50 फीसदी भी नहीं है।
जहां तक कामकाज के मामले का सवाल
है तो नौकरशाहों और सेना के काम की तुलना नहीं हो सकती। उन्हें तो निर्धारित समय पर
पदोन्नति और वेतनवृद्धि के प्रावधान मिले हुए हैं, भले ही वे उस पद के लायक काम
करें या नहीं लेकिन सैनिकों को दिन-रात काम करना ही होता है। उनका काम के आधार पर
आकलन किया जाता है। सैनिक अधिक नहीं मांग रहे बल्कि अपने हक की लड़ाई लड़ रहे हैं।
उम्मीद थी कि जल्द ही इस मामले में सरकार की ओर से घोषणा हो जाएगी लेकिन
वित्तमंत्री की बातों ने निराश किया है। ऎसा लगता है कि सरकार फिलहाल इस मामले पर
कुछ महीनों का समय लेना चाहती है। बिहार चुनाव सिर पर हैं, कभी भी इन चुनावों की
घोषणा हो सकती है और ऎसा होते ही आचार संहिता लागू हो जाएगी। ऎसे में यह मुद्दा कम
से कम तीन महीनों के लिए तो टल ही जाएगा।
मरे मन से हक देना ठीक
नहीं
सेनि. मे.ज. अफसर करीम
सरकार की बातों से लग रहा है कि वह
सैनिकों के लिए वन रैंक- वन पेंशन को लागू तो करना चाहती है लेकिन देर से। इस मामले
को लटकाया क्यों जा रहा है, यह बात समझ में नहीं आ रही है। फिलहाल केवल अनुमान ही
लगाया जा सकता है। हाल ही में वित्त मंत्री अरूण जेटली का बयान आया कि हर साल पेंशन
संशोधित करना संभव नहीं है लेकिन वे इस मुद्दे को सुलझाना भी चाहते हैं। उनकी बातों
से लगता है कि वे इस मामले पर दिये गए फॉर्मूले में बदलाव के इच्छुक हैं। वे
सैनिकों को उनका हक टुकड़ों-टुकड़ों में देना चाहते हैं।
कच्चे हैं उनके
तर्क
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चुनाव से पूर्व और बाद में भी वन रैंक-वन
पेंशन का वादा किया। हो सकता है कि उन्हें वित्त मंत्रालय ने पूरी जानकारी नहीं दी
हो लेकिन उन्होंने इस मामले में वादा किया लेकिन अब लगता है कि सरकार अपने वादे से
मुकर रही है। जिस तरह के तर्क अब दिये जा रहे हैं, वे मुद्दे को टालने जैसे ही हैं।
कहा जा रहा है इस तरह से तो अन्य लोग भी पेंशन मांगे। लेकिन, समझ में नहीं आता कि
सैनिकों की तरह अन्य लोग जिंदगी जीते हैं क्या? वे सीमाओं की रक्षा करने में अपनी
पूरी-पूरी जवानी बिता देते हैं। मौत के खतरे से हर क्षण खेलते हैं। उनकी तुलना किसी
और से करना अस्वीकार्य है।
पूर्व में यूनिफॉर्म पेंशन मिलती थी लेकिन 1973 में
तीसरे वेतन आयोग की सिफारिशों के बाद उन्हें समाप्त कर दिया गया। इसके बाद सैनिकों
को वन रैंक-वन पेंशन की बात हुई तो सभी राजनीतिक दलों ने इसे स्वीकार किया लेकिन
दिया किसी ने भी नहीं। स्थिति तो यह रही है कि वेतन आयोग बने लेकिन उसमें सैन्य
अधिकारियों को रखा ही नहीं गया। केवल नौकरशाहों के हिस्से में बढ़ोतरी के लाभ आते
रहे। सैनिकों की ओर कोई ध्यान ही नहीं गया। इस बात को ऎसे समझिए कि एक हवलदार को
यदि चौथे वेतन आयोग के तहत पेंशन मिलती है तो उसे उस सैनिक से कम पेंशन मिलेगी जिसे
छठे वेतन आयोग के तहत सेवानिवृत्ति मिली हो।
ये अच्छे हालात नहीं
यह ठीक है
कि पूर्व सैनिकों का अपनी मांगों को मनवाने के लिए जंतर-मंतर बैठना अच्छा नहीं है।
यह किसी भी सैनिक को शोभा नहीं देता। लेकिन, जरा सोचिए कि क्या सरकार का रवैया सही
है? कुछ भी स्पष्ट नहीं कि वह सैनिकों की मांगों को मानकर उन्हें लागू करना भी
चाहती है कि नहीं? सरकार स्पष्ट जवाब तो दे कि उसे करना क्या है? दूसरी ओर, पूर्व
सैनिकों से पुलिस का बर्ताव कैसा था? यह तो गनीमत समझिए कि किसी पूर्व सैनिक ने पलट
कर पुलिस को कोई जवाब नहीं दिया, वरना स्थिति बहुत ही भयावह होती! पूर्व में यदि
कोई हवलदार या कोई जवान अपने गांव लौटता था तो परिवार जन से पहले जिला कलेक्टर उससे
मिलते थे। सैनिक गौरवान्वित महसूस करता था लेकिन अब कोई इज्जत करना तो दूर,
दुर्व्यव्यहार किया जा रहा है।
सरकार यह तो सोचे कि पंजाब, हरियाणा, राजस्थान और
देश में न जाने कितने ही ऎसे राज्य या गांव हैं जहां पर एक ही परिवार से कई-कई लोग
फौज में आते हैं। जो पूर्व सैनिक जंतर-मंतर पर बैठे हैं, उनमें किसी का बेटा,
भांजा, भतीजा अब भी फौज में है। इन लोगों के मनोबल पर क्या असर पड़ रहा होगा, इस
बारे में जरा सा भी सोचा नहीं गया? सरकार को पूर्व सैनिकों के साथ राजनीतिक
दांव-पेच वाली स्थिति नहीं रखनी चाहिए। देर-सबेर उसे वन रैंक-वन पेंशन देनी तो है
ही लेकिन मन में खटास लाकर, सेना का मनोबल गिराकर ऎसा करना ठीक नहीं
होगा।
क्या है मांग
सेना के जवानों की मांग है कि एक ही पद और एक ही
समय तक काम कर सेवा निवृत्त होने वाले जवानों की पेंशन एक ही होना
चाहिए।
मांग की पृष्ठभूमि
1973 में तीसरा वेतन आयोग आने तक सेना के
जवानों को पेंशन उनको मिलने वाले अंतिम वेतन की राशि का 70 प्रतिशत तथा
सिविलियनलोगों को पेंशन अंतिम वेतन की 30 प्रतिशत हुआ करती थी। तीसरे वेतन आयोग ने
वेतन समानता के नाम सभी की पेंशन वेतन की 50 प्रतिशत कर दी। यह भुला दिया गया कि
अधिकांश सैनिक जवान 35 वर्ष और अधिकारी 45 वर्ष की उम्र में रिटायर हो जाते हैं,
इसलिए वे कई पदोçन्नतयों और वेतन वृद्धियों से वंचित रह जाते हैं जो कि 60 – 62 साल
तक काम करने वाले सिविल सेवा कर्मियों की मिलती है।
इसलिए है जरूरी
एक पद पर रिटायर होने वाले हर सैन्यकर्मी को समान पेंशन तर्कसंगत है। उदाहरण के
लिए बीस साल पहले सूबेदार के पद से रिटायर होने वाले एक सैन्यकर्मी की पेंशन और आज
रिटायर होने वाले सूबेदार के पेंशन में काफी अंतर होता है। सैन्य कर्मियों की मांग
है यह पेशन विसंगति हटाई जाए। बीस साल पहले रिटायर्ड होने वाले सूबेदार की पेंशन आज
की महंगाई का सामना करने लायक नहीं है। इसलिए सैन्यकर्मियो की पेंशन को भी हर साल
अद्यतन किया जाना चाहिए और उसको उस वर्ष रिटायर्ड होने वाले सैन्यकर्मियों के
अनुसार किया जाए।
इसलिए बढ़ा असंतोष्ा
जानकारों का मानना है कि आईएएस
अधिकारी वर्ग और विधायक-सांसद पहले ही समान पद, समान पेंशन का लाभ उठा रहे
हैं।
इतनी होगी लागत
कोश्यारी कमेटी ने वन रैंक वन पेंशन लागू करने का
खर्चा 1065 करोड़ रू. बताया। सातवें वेतन आयोग में यह खर्च 25त्न बढ़कर 2379 करोड़
रू होगा।
पेंशन में ग्रोथ नहीं
सेना के पे-कमीशन सेल के अनुसार
वष्ाü 1999 – 2000 में डिफेंस पेंशन जीडीपी की 0.54 फीसदी थी जो 2014-15 में घटकर
0.38 रह गई।
सिविलियन के षडयंत्र से कम नहीं
जवानों की पेंशन कम करना और
उसे नागरिक सेवा के लोगों की पेंशन के समान करने का कोई औचित्य नहीं था। दोनों की
सेवा परिस्थितियों तथा सेवा अवधि में कोई तुलना ही नहीं है। ऎसा निर्णय से पहले
सेना के लोगों की राय लेना भी जरूरी नहीं समझा गया। एक प्रस्ताव आया था कि
रिटायरमेट के बाद सेना के जवानों को अर्घ-सशस्त्र बलों में भर्ती कर लिया जाए, पर
नागरिक प्रशासन ने उस प्रस्ताव को भी खारिज कर दिया। यह सब सेना के साथ एक षडयंत्र
की तरह नजर आता है।कमोडोर सी. उदय भास्कर
फौजियों का धरना देना ठीक
नहीं
पेंशन मांगों को लेकर पूर्व सैन्यकर्मियों का ऎसे जंतर-मंतर पर धरना ठीक
नहीं है। यह मांग न्यायसंगत है, पर जवानों को सरकार का पक्ष भी सुनना चाहिए। हर साल
बीस लाख सैन्यकर्मियों की पेंशन बढ़ाने पर बहुत लागत आएगी। सरकार ने उनकी मांग को
स्वीकार कर लिया, इसलिए अब सैन्यकर्मियों को सरकार पर छोड़ देना चाहिए कि वह इसको
कैसे और कब लागू करती है। इस बात पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि अर्घ सैनिक बलों
जैसे बीएसएफ, आईटीबीपी और एएसपी को भी क्यों नहीं वन रैंक, वन पेंशन का लाभ दिया
जाए?पीके मिश्रा, पूर्व एडिशनल डीजे, बीएसएफ