स्वर्ण सिंह जेएनयू, अभी विजिटिंग प्रोफेसर, हिरोशिमा विवि
दुनिया की बड़ी शक्तियों को ऐसा लगता है कि उत्तर कोरिया का राजनैतिक ढांचा लोकतांत्रिक और पारदर्शी नहीं होने के कारण उससे बात करना या उसके साथ संबंध बनाना बहुत ही कठिन है। यही वजह है कि उस पर किसी किस्म का दबाव बना पाना भी कठिन है। चूंकि पूर्व में वह परमाणु कार्यक्रम पर अंकुश की शर्तों की उपेक्षा करता रहा है, इससे उसके प्रति शंका और अधिक बढ़ गई है। ऐसे में पहले तो उसने जनवरी में थर्मोन्यूक्लियर परीक्षण को सफलतापूर्वक अंजाम दिया और अब उसने लंबी दूरी की मिसाइल दागने की शक्ति दिखलाई है।
हालांकि उत्तर कोरिया ने इसे अर्थ ऑब्जर्वेशन सेटेलाइट लांच नाम दिया है और इसे राकेट की लांचिंग कहा है लेकिन अमरीका, जापान और दक्षिण कोरिया इसे परोक्ष तौर पर लंबी दूरी की मिसाइल का परीक्षण ही मान रहे हैं। ऐसा समझा जाता है कि इस लंबी दूरी की मिसाइल के सफल परीक्षण के बाद उत्तर कोरिया के पास अमरीका के न्यूयॉर्क और वाशिंगटन तक परमाणु हमला करने की ताकत आ जाएगी।
अवैधानिक नहीं परीक्षण
जहां तक परमाणु और मिसाइल परीक्षण का सवाल है तो वैधानिक तौर पर उ. कोरिया की ओर से किसी भी अंतरराष्ट्रीय कानून का उल्लंघन नहीं किया जा गया है। वह संप्रभु राष्ट्र है और उसे परमाणु शोध और परीक्षण करने का पूर्ण अधिकार है। उल्लेखनीय है कि वह 1963 से ही अपने मिसाइल तकनीक और परमाणु कार्यक्रम पर काम कर रहा है। उसके इस काम को सोवियत रूस व चीन की ओर से समय-समय पर समर्थन और सहायता मिली है। 1993 में उ. कोरिया में जब किम जोंग उन के पिता किम जोंग इल का शासन था, तब ही उन्होंने अपने देश को परमाणु अप्रसार संधि से अलग होने की बात कही थी।
इसके बाद 1994 में एक फ्रेमवर्क एग्रीमेंट पर हस्ताक्षर किए गए, जिसके तहत तय किया गया था कि अमरीका, दक्षिण कोरिया, फ्रांस, ब्रिटेन और जर्मनी उत्तर कोरिया को ऊर्जा के क्षेत्र में सहायता उपलब्ध कराएंगे। लेकिन, उत्तर कोरिया को कालांतर में यह लगा कि इस समझौते के मुताबिक उसे सहायता उपलब्ध नहीं कराई जा रही है तो उसने आखिरकार 2003 में इस परमाणु अप्रसार संधि से खुद को अलग कर लिया। तब से ही उसके परमाणु कार्यक्रम में गति आई और अब तक वह चार परमाणु परीक्षण कर चुका है। यह बात फिलहाल कपोल कल्पना ही लगती है लेकिन इस बात को कोई सोचकर देखे कि यदि उत्तर कोरिया और दक्षिण कोरिया का एकीकरण हो जाए तो विश्व पटल पर एक बड़ा और शक्तिशाली राष्ट्र सामने होगा। फिलहाल उ. कोरिया ऐसा राष्ट्र है जिस पर विशेष अंकुश काम नहीं आ रहे हैं।
इसलिए है खतरा
सबसे ज्यादा खतरा जापान और दक्षिण कोरिया को लगता है। दोनों ही देश इसके काफी नजदीक हैं। फिर दबावों की बातों पर उसके उपेक्षापूर्ण रवैये से भी अन्य देशों को इससे डर लगता है। यदि दुनिया के शक्तिशाली देश अमरीका के राष्ट्रपति ओबामा के कार्यकाल के संदर्भ में इसे देखें तो जो चार परीक्षण उ. कोरिया ने किए, उसमें से तीन तो ओबामा के कार्यकाल में ही हुए। वे ईरान की तरह उ. कोरिया पर काबू नहीं पा सके।
यही नहीं अब तो उसने लंबी दूरी के मिसाइल के सफल परीक्षण से अमरीका तक पहुंच बना ली है। खतरे की बात यहीं तक सीमित नहीं है। उत्तर कोरिया ने अपनी अर्थव्यवस्था को संभाले रखने के लिए मिसाइलें और मिसाइल तकनीक पाकिस्तान, मिस्त्र, ईरान, म्यामांर, लीबिया, नाइजीरिया, सीरिया, लीबिया, संयुक्त अरब अमीरात, वियतनाम को बेची हैं। इसका अर्थ यही है कि उ. कोरिया न केवल एनपीटी की उपेक्षा करता है बल्कि धड़ल्ले से इसकी सोच का उल्लंघन भी करता है। सोच का इसलिए क्योंकि वह तो एनपीटी की वर्तमान में सदस्य नहीं है। दुनिया की बड़ी शक्तियों को उसके इस व्यवहार के कारण दुनिया के लिए खतरा दिखाई देता है।
भारत की भूमिका
भारत के लिहाज से देखें तो पिछले एक साल में भारत ने चीन के पड़ोसी देशों मंगोलिया, वियतनाम, कंबोडिया के साथ उत्तर कोरिया के साथ भी संबंधों को बेहतर बनाया है। भारत उ. कोरिया के साथ करीब 10 करोड़ डॉलर का व्यापार करता है। उ. कोरिया का दूतावास नई दिल्ली में और भारत का दूतावास उ. कोरिया में है। बीते वर्ष अप्रेल में उ. कोरिया के विदेश मंत्री री सू युंग भारत आए थे और उन्होंंने न्यूक्लियर कार्यक्रम के साथ मानवीय सहायता के संबंध में बातें भी की थीं। ऐसे में जबकि अन्य देश उ. कोरिया के साथ बातचीत से हिचकिचाते हैं, चीन के अलावा भारत भी बातचीत का प्रमुख विकल्प साबित हो सकता है।
एनपीटी से यूं हटा उ.कोरिया
उत्तर कोरिया ने 1985 में परमाणु अप्रसार संधि को (एनपीटी) मंजूर किया था। फिर, 1993 में इससे अलग होने की चेतावनी दी। 1994 में जर्मनी, फ्रांस, ब्रिटेन, अमरीका और दक्षिण कोरिया ने फ्रेमवर्क एग्रीमेंट किया, जिसके तहत उ. कोरिया को ऊर्जा के क्षेत्र में सहायता देने का वायदा किया गया। उ. कोरिया ने वायदे नहीं निभाने की बात कहते हुए 2003 में खुद को एनपीटी से अलग कर लिया।
इन्हें बेची हैं मिसाइलें
के वल पड़ोसी देश द.कोरिया और जापान के साथ अमरीका के लिए खतरा नहीं है मिसाइल परीक्षण। उ. कोरिया मिसाइलें और मिसाइल तकनीक पाकिस्तान, मिस्त्र, ईरान, म्यांमार, सीरिया, लीबिया, यूएई और वियतनाम को बेच चुका है।
उकसाने की कार्रवाई
अमरीका समेत विभिन्न देशों ने इसे रॉकेट परीक्षण की आड़ में मिसाइल परीक्षण करने का नाम दिया है। माना जा रहा है कि यह अमरीका तक वार करने की क्षमता रखता है। इस मिसाइल परीक्षण को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रस्तावों का उल्लंघन और अमरीका और उसके सहयोगी देशों को उकसाने की कार्रवाइ्र्र के रूप देखा जा रहा है। इसे देखते हुए यह भी संभावना है कि संयुक्त राष्ट्र इस मसले को लेकर उत्तरी कोरिया पर अतिरिक्त प्रतिबंधों का ऐलान करे।
कभी स्वीकार नहीं किए अंकुश
सं युक्त राष्ट्र ने उत्तर कोरिया पर बैलेस्टिक मिसाइल प्रौद्योगिकी के उपयोग पर पाबंदी लगा दी थी। लेकिन, इस तरह के अंकुश को उत्तर कोरिया ने कभी स्वीकार नहीं किया और चार परमाणु परीक्षण के साथ लंबी दूरी के मिसाइल का परीक्षण भी किये। 2009 में संयुक्त राष्ट्र ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि उ. कोरिया की माइनिंग एंड डेवेलपमेंट कॉर्पोरेशन परमाणु अप्रसार कार्यक्रम का मुखौटा है।
सीधे तौर पर अमरीका को चुनौती है यह
प्रो. संजय भारद्वाज जेएनयू, नई दिल्ली
मिसाइल प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल पर संयुक्त राष्ट्र की रोक के बावजूद उत्तर कोरिया ने लंबी दूरी का रॉकेट लॉन्च किया कर यह दर्शाने को प्रयास किया है कि सैन्य ताकत के मामले में वह दूसरे देशों से पीछे नहीं है। सही मायने में देखें तो उत्तर कोरिया का यह सैन्य ताकत का प्रदर्शन दक्षिणी कोरिया के साथ शीत युद्ध के बाद से ही चल रहा है। वैचारिक दृष्टि से देखें तो दक्षिण कोरिया पूंजीवादी विचारधारा का समर्थक है और उत्तर कोरिया एक पार्टी का गैर लोकतांत्रिक शासन है, जो कम्युनिस्ट विचारधारा से प्रभावित है। हम जानते हैं कि उत्तर कोरिया को चीन व रूस से पहले सीधा समर्थन मिलता रहा है। दोनों की देश उत्तर कोरिया के आणविक कार्यक्रम को प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप में समर्थन देते रहे हैं।
सैन्य ताकत दिखाई
उत्तर कोरिया ऐसा कर विश्व मंच पर यह साबित करना चाहता है कि आर्थिक दृष्टि से भले ही वह एक कमजोर देश है लेकिन सैन्य ताकत के मामले में वह कहीं आगे हैं। एक तरह से यह प्रयास अंतराष्ट्रीय समुदाय को डराने वाला है। पहले कथित रूप से हाईड्रोजन बम के परीक्षण को भी इसी कूटनीति का हिस्सा माना जाना चाहिए। उत्तर कोरिया के न्यूक्लियर प्रोग्राम को चीन का भी काफी सहयोग रहा है।
एक दूसरा पक्ष देखें तो तानाशाही की मार झेल रही उत्तर कोरिया की जनता को वहां का शासक यह भी आश्वस्त कर देना चाहता है कि वे सुरक्षित हैं। साथ ही यह धमकी भी कि लोकतंत्र की मांग करने वाले उसके यहां सुरक्षित नहीं रह पाएंगे। यानी जो तानाशाही शासन के खिलाफ जाएंग उनको इसके नतीजे भुगतने पड़ेंगे। यह दुनिया के उन देशों को भी चेतावनी है जो उत्तर कोरिया में लोकतंत्र के पक्षधर हो सकते हैं।
अपने सैन्य कार्यक्र्रम जारी रखकर उत्तर कोरिया अपने मित्र देशों से आर्थिक सहायता की मांग करने में भी आगे रहने वाला है। एक पक्ष देखें तो उत्तर कोरिया के इस रवैये का बड़ा फायदा दुनिया में बड़ी ताकत के रूप में उभर कर आ रहे चीन को भी होगा। अपने प्रतिद्वंद्वी दक्षिण कोरिया को अमरीका के समर्थन मिलने से भी उत्तर कोरिया खुद को खतरे मेें महसूस करने लगा है। ऐसे में उसकी नजर चीन की ओर है।
भारत की निरपेक्ष छवि
दरअसल यह सब ईस्ट एशिया में शक्ति संतुलन का प्रयास मात्र है। एक ओर अमरीका और उसके समर्थित देश हैं तो दूसरी ओर चीन और उसके समर्थक। उत्तर कोरिया के जिन गिने-चुने देशों से कूटनीतिक सम्बन्ध हैं उनमें भारत भी शामिल हैं। उत्तर कोरिया के विदेश मंत्री भारत भी आकर गए हैं।
हम यह भी देख रहे हैं कि 1951 में उत्तर कोरिया और दक्षिण कोरिया के बीच संघर्ष में जब अमरीका ने दक्षिण कोरिया का साथ दिया तो भारत ने अमरीकी कैम्प को ज्वाइन नहीं किया। हां यह जरूर है कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय के सम्मुख भारत अपनी निरपेक्ष छवि का फायदा इन दोनों देशों के बीच संघर्ष की स्थिति में उठाने की स्थिति में होगा। भारत को संयुक्त राष्ट्र में स्थायी सदस्यता के लिए अंतरराष्ट्रीय समुदाय के समर्थन की जरूरत है। ऐसे में उत्तर कोरिया में लोकतांत्रिक शासन की मांग उठने पर भारत की भूमिका अहम होगी।
वैश्विक कूटनीति के हिसाब से देखें तो उत्तर कोरिया का मिसाइल परीक्षण अमरीका को चुनौती देने वाला है। इतना जरूर है कि अभी फ्रांस व रूस की न्यूक्लियर मोनोपोली को कोई झटका नहीं है। दूसरी ओर जापान ऐसा देश है जिसने कभी खुद को न्यूक्लियर पॉवर के रूप में अपने बूते पर विकसित नहीं किया। वह एडवांस तकनीक के लिए अमरीका पर निर्भर रहा है। ऐसे में अमरीका और चीन दोनों अपने-अपने तरीके से सैन्य शक्ति के संतुलन के प्रयास में जुटे हैं।
संतुलन के प्रयास
दरअसल यह सब ईस्ट एशिया में शक्ति संतुलन का प्रयास मात्र है। हम देख रहे हैं कि एक ओर अमरीका और उसके समर्थक देश हैं तो दूसरी ओर वे देश हैं जिनको चीन से सैन्य व अन्य आर्थिक मदद मिलती रहती है। वैश्विक कूटनीति के हिसाब से देखें तो उ.कोरिया का मिसाइल परीक्षण एक तरह से अमरीका को ही चुनौती देता दिख रहा है। चीन ने जिस तरह से खुद को शीर्ष ताकत के रूप में उभारना शुरू किया है उसको देखते हुए उसका ज्यादा जोर इस बात पर रहेगा कि विश्व के अमरीका खेमे वाले देशों को भी अपने पक्ष में लाने का प्रयास करे।