कहने को हम दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश हैं पर सही मायनों में यहां लोकतंत्र कहीं नजर नहीं आता। आता भी है तो पांच साल में एक-दो या तीन बार मतदान के दौरान। अपनी सरकार चुनकर लगता है कि हमारे यहां लोकतंत्र है। चुनाव हुए और सरकारें बनी नहीं कि लोकतंत्र पर कोई और तंत्र हावी हो जाता है। या यूं कहें कि ‘जिसकी लाठी, उसकी भैंस’। पूरे पांच साल आम जनता बैठी रहती है अपनी किस्मत के सहारे और राज करते हैं उद्योगपति, अफसर और दबंग नेता। मुंबई का ताजा उदाहरण इसकी पुष्टि करने के लिए पर्याप्त सबूत माना जा सकता है।
एक फिल्म में पाकिस्तानी कलाकारों के काम करने का विरोध शुरू हुआ जो फिल्म को रिलीज नहीं होने देने तक जा पहुंचा। लोकसभा और विधानसभा चुनाव में जनता द्वारा ठुकराए गए नेता सिनेमा मालिकों को सरेआम चुनौती देने लगे। फिल्म निर्माताओं से लेकर सिनेमा मालिकों और सरकार से लेकर प्रशासन तक, सबके हाथ-पैर फूल गए। दौर बयानों से लेकर बातचीत तक के चले। और जो नतीजा आया, वो शर्मसार करने वाला था!
लोकतंत्र को भी और कानून-व्यवस्था को भी। फिल्म रिलीज करने को लेकर महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री आवास पर हुई बैठक में महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के प्रमुख राज ठाकरे की शर्तों पर समझौता हुआ। ठाकरे ने फिल्म निर्माताओं को सैनिकों की संस्था को पांच करोड़ रुपए देने का फरमान सुनाया। ये कैसा लोकतंत्र हुआ, जहां मुख्यमंत्री आवास पर ऐसा नेता आदेश सुनाए जिसे मतदाता नकार चुके हों। बात सिर्फ राज ठाकरे की ही नहीं। देश के हर राज्य और हर शहर में राज ठाकरे सरीखे स्वयंभू नेता मौजूद हैं जिनके आगे प्रशासन भी विवश है और पुलिस भी मौन।
ये तो लोकतंत्र नहीं हुआ। इसे तो सरासर ‘गुंडा तंत्र’ ही माना जाएगा। इस परिपाटी से बचने की जरूरत है। कोई भी व्यक्ति कितना ही प्रभावशाली क्यों न हो उसे लोकतंत्र पर हावी होने की छूट नहीं दी जा सकती। व्यक्ति के सरकार पर हावी होने का सीधा मतलब सरकारी की लाचारी मानी जाएगी।