चिंता आधी आबादी की
Published: Aug 22, 2016 10:15:00 pm
महिलाओं को बराबरी देने की वकालत तो जोर-शोर से की जाती है लेकिन मौका
आता है तो यह वकालत जीत-हार के दांवपेंच तले दब कर रह जाती है
आधी आबादी को राजनीति में पूरी भागीदारी दिलाने का सवाल भारत ही नहीं दुनिया से जवाब मांग रहा है। ब्रिक्स देशों की महिला सांसदों के जयपुर सम्मेलन में पर्यावरण से लेकर आर्थिक मुद्दे छाए रहे। जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों पर भी विस्तार से चर्चा हुई तो आर्थिक मामलों पर भी विचार-विमर्श किया गया। गैस उत्सर्जन कम करने पर भी आम सहमति के स्वर उभरते नजर आए। लेकिन सम्मेलन से इतर एक सवाल जो उभरता नजर आया वह यह कि दुनिया के तमाम देशों की संसद में महिलाओं की भागीदारी का आंकड़ा आज भी सवालों के घेरे में है।
एकाध देशों को छोड़ दिया जाए तो आधी आबादी को आधी सीटें तो दूर एक-तिहाई स्थान भी नहीं मिल पाता। ब्रिक्स देशों में ही दक्षिण अफ्रीका के अलावा बाकी देशों की संसद में महिलाओं का प्रतिनिधित्व निराश ही करता है। दुनिया में सर्वाधिक आबादी वाले देश चीन की संसद में 23 फीसदी महिलाएं हैं तो भारत में यह आंकड़ा दस फीसदी के आसपास ठहरता है। ब्राजील में दस तो रूस में 3 फीसदी महिलाओं को ही संसद में जगह मिलती है।
महिलाओं को बराबरी देने की वकालत तो जोर-शोर से की जाती है लेकिन मौका आता है तो यह वकालत जीत-हार के दांवपेंच तले दब कर रह जाती है। भारत जैसे देश में तो महिलाएं आज भी अधिकांश क्षेत्रों में बराबरी का दर्जा पाने को संघर्षरत हैं। दहेज और भ्रूण हत्याओं का शिकार भी ‘आधी आबादी’ को ही बनना पड़ता है।
संसद-विधानसभाओं में महिलाओं को एक-तिहाई आरक्षण देने का विधेयक पारित न हो पाना सभी दलों को कठघरे में खड़ा करता है। दूसरे देशों की वे जाने लेकिन भारत की चिंता तो हमें ही करनी होगी। सभी दल एक मंच पर आकर महिलाओं को राजनीति की मुख्यधारा में लाने का तय कर लें तो आने वाले सालों में ही ‘आधी आबादी’ की दशा में सुधार नजर आने लगेगा।