मेलों के बीच अकेला मन (ड़ॉ. विमलेश शर्मा )
Published: Jan 16, 2017 06:05:00 pm
मैं लाख तलाशती हूँ मन के खिलने की संभावना पर उन जमे हुए आँसुओं की नमी मेरे अंतस को भीगो जाती है
फूलने लगा है कचनार चुपचाप कुछ कुछ.. इसका फूलना, निपाती होना हर बरस देखती हूँ पर इस बार टीस दे रहा है इसका यह फूलना। इन ठंडियों में कोई देवता अलसुबह इसके पातों पर अपने आँसू छोड़ जाता है। मैं लाख तलाशती हूँ मन के खिलने की संभावना पर उन जमे हुए आँसुओं की नमी मेरे अंतस को भीगो जाती है। अवसाद को चीर कर कोमल बैंजनी खिलता है मन की किसी डाल पर और मैं भय की छांव में पनपे संकोच से बस देखती रह जाती हूँ। इस बार उसके आने से एक अजान भय है, पीड़ा की टीसभरी दस्तक है।
सोचती हूँ
यह रंग कब तक ठहरेगा किसी दरख्त पर
जानती हूँ
फूलना एक कर्म है
टूटना भी एक कर्म है..
और यह आवृत्ति, निवृत्ति शाश्वत है
फूलने की ही भाँति
दरकन भी तो सात्विक भाव है
एक आकर्षण से भरा
तो दूजा नितांत एकाकी
इसी उधेड़बुन में
उसे आँखों से छूती हूँ
ममत्व उगता है भीतर
मैं सहेजती हूँ उन कोमल तंतुओं को
संतति की तरह
दो आँसू मौन ढुलकते हैं सीप में
यह जानते हुए कि
सबसे प्रिय वस्तुएँ नाज़ुक होती है कपास सी
हाथ लगाने भर से दरक जाया करती है अक्सर
अनन्त दिशाओं में फैली हुई
अकेले होने की पीड़ा को भोगने
एक नया व्याकरण खोजने
अपना अर्थ तलाशने
मैं फिर उसके मोहपाश में हूँ
समिधा होने की अनुभूति तक
जानती हूँ, प्रिय कचनार
तुम लौट रहे हो मुझ तक
फिर – फिर लौटने के लिए
– फेस बुक वाल से साभार