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सवालों के घेरे में उच्च शिक्षा

Published: May 29, 2015 11:33:00 pm

शिक्षा के क्षेत्र में अभी तक जमीनी स्तर पर सहयोगात्मक और
प्रतिस्पर्धात्मक फेडेरलिज्म का विचार नहीं अपनाया जा सका है

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एम.एम. अंसारी, सदस्य यूजीसी
शिक्षा के क्षेत्र में अभी तक जमीनी स्तर पर सहयोगात्मक और प्रतिस्पर्धात्मक फेडेरलिज्म का विचार नहीं अपनाया जा सका है। इसकी वजह से केन्द्रीय और राज्य विश्वविद्यालय आपस में प्रभावी समन्वय स्थापित नहीं कर पा रहे हैं जिसका सीधा असर शिक्षा की गुणवत्ता पर पड़ा है।

गुणवत्तायुक्त शिक्षा, प्रशिक्षण और शोध का गहन और व्यापक प्रभाव होता है विशेषकर ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था के दौर में। और नई प्रौद्योगिकी और नवाचार के चलते यह बढ़ता ही जाता है। संसाधनों की उर्वरता चाहे वह प्राकृतिक हो या वित्तीय, बहुत ही नाजुक रूप से तकनीकी एवं प्रोफेशनल प्रशिक्षण तथा मानवशक्ति की दक्षता पर निर्भर है। वैश्विक अर्थव्यवस्था होने के चलते विश्व में भारत को जिन देशों से मुकाबला करना है, कई चीजें भारत के ही पक्ष में नहीं है।

यहां मुख्यत: स्कूली शिक्षा की भारी कमी है, वोकेशनल ट्रेनिंग और शोध के इनपुट स्तर, व्यक्ति के कार्य प्रदर्शन की गुणवत्ता पर सवाल उठते रहते हैं। शैक्षणिक विकास की सार्थकता को किसी भी हालत में कम नहीं किया जा सकता है विशेषकर तब, जबकि उत्पादक गतिविधियों के क्षेत्र में भारत हब बनने की ओर अग्रसर है। दुर्भाग्यपूर्ण बात तो यह है कि शैक्षिक व्यवस्था को उस नीति के तहत आगे नहीं बढ़ाया जा रहा है जिस नीति के तहत “मेक इन इंडिया” को आगे बढ़ाया जा रहा है। देश की जो शैक्षणिक व्यवस्था है, वह गुणवत्तायुक्त शिक्षा प्रदान करने में गम्भीर चुनौतियों का सामना कर रही है।

नियामक संस्थाओं में भी दखल
इसी पृष्ठभूमि के चलते भारत के उच्च शिक्षित वर्ग के लोग मानव संसाधन विकास मंत्रालय पर सवाल उठाते रहते हैं। इसी मंत्रालय पर शिक्षा व्यवस्था में सुधार का दारोमदार है। इस मंत्रालय के उत्तरदायित्वों में यह निहित है कि वह देश की विशाल जनसंख्या को शिक्षा का लाभ दिलाए। भारत के नामी-गिरामी संस्थान जिसमें विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, आईआईटी समेत अन्य विश्वविद्यालय भी शामिल हैं, अंदरूनी उठापटक और दखलंदाजी की समस्या से जूझ रहे हैं। उदाहरण के तौर पर देखा जाए तो दिल्ली विश्वविद्यालय ने भारत और विदेश के कुछ विश्वविद्यालयों की तर्ज पर अंडरग्रेजुएट डिग्री प्रोग्राम को लेकर जो नवाचार किया, उससे दिल्ली विवि को लोगों के कोपभाजन का शिकार होना पड़ा।


दिल्ली विवि ने चार वर्षीय अंडरग्रेजुएट प्रोग्राम (एफवाईयूपी) शुरू किया था ताकि कम समय में नई चुनौतियों मसलन-दक्ष युवाओं की कमी को दूर किया जा सके, जॉब मार्केट में दखल बढ़ाया जा सके और उच्च शिक्षा व्यवस्था को वैश्विक ढांचे के अनुरूप बनाया जा सके। अकादमिक स्तर पर इस प्रोग्राम का बारीकी से निरीक्षण किए बिना ही इसके चिथड़े उड़ा दिए गए। सरकार ने यूजीसी पर दवाब डाला कि वह विश्वविद्यालय को इस प्रोग्राम को रद्द करने के लिए कहे, नहीं तो यूजीसी जो अनुदान देती है, उसे वापस ले लिया जाएगा। इसी के बाद ही विवि के कुलपति दिनेश सिंह को नेशनल असेसमेन्ट एंड एक्रीडिएशन काउंसिल (एनएएसी) के चेयरमैन पद से हाथ धोना पड़ा। सरकार की इस तरह की दंडात्मक कार्रवाई से ऎसे में संस्थानों के मुखिया नवाचार करने में कोई रूचि नहीं लेते हैं।

गौतम रिपोर्ट पर क्रियान्वयन नहीं
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के ढांचे के पुनर्गठन और उच्च शिक्षा की चुनौतियों से निपटने के लिए सरकार ने हरि गौतम समिति का गठन किया था। समिति ने अपनी रिपोर्ट सौंप दी है। पर समिति ने जो संस्तुतियां की थी, उसे क्रियान्वित करने के लिए अभी तक कुछ नहीं किया गया। उच्च शिक्षा के विकास के लिए सरकार के उदासीन रवैये को यह दर्शाता है। इसके अलावा केन्द्रीय विश्वविद्यालयों, आईआईटीज/आईआईएम, मेडिकल संस्थाओं आदि को मजबूत बनाने के लिए जो आवश्यक सुविधाएं चाहिए, उसे मुहैया नहीं कराया जा रहा है। उच्च शिक्षा के कम से कम आधे संस्थान आवश्यक जरूरतों के अभाव में चल रहे हैं। इसमें स्टाफ की कमी भी शामिल है। विश्वविद्यालयों के भविष्य को लेकर मानव संसाधन मंत्रालय अनिर्णय की स्थिति में हैं जिसका प्रभाव उच्च शिक्षा पर पड़ रहा है।

सलाह के बिना ही नीतियां लागू
मानव संसाधन मंत्रालय का एक उदाहरण देखिए, यूजीसी ने बिना किसी आवश्यक तैयारी या शिक्षाविद्ों की सलाह के ही च्वाइस बेस्ट क्रेडिट सिस्टम (सीबीसीएस) को लागू कर दिया। पूरे देश के कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में पढ़ाने और शोध कराने का तरीका अलग-अलग है। इसका प्रभाव उन छात्रों पर पड़ता है जो एक जगह से दूसरी जगह पर जाते हैं। अधिकांश संस्थानों में सेमिस्टर सिस्टम नहीं है और वे प्रोफेशनल और तकनीकि रूप से दक्ष अध्यापकों की कमी की समस्या से जूझ रहे हैं। सीबीसीएस अपने उद्देश्य में सफल हो, इसके लिए सरकार ने मुश्किल से ही वित्तीय सहायता सुलभ कराई है। जरूरी वित्तीय सहायता के अभाव में वे अपने ढांचे को मजबूत नहीं कर सके हैं।

पहले इस कार्यक्रम में सहभागिता निभाने वाले कॉलेजों, विश्वविद्यालयों की मूल जरूरतें जैसे प्रवेश की प्रक्रिया, ढांचागत सुलभता, होस्टल, लैब, फैकल्टी, अध्यापन और शोध की गुणवत्ता का आकलन करना चाहिए था। तदनुसार सरकार को जरूरतों के हिसाब से वित्तीय और ढांचागत समर्थन देना चाहिए था। कहने का अर्थ यह है कि बिना किसी समुचित तैयारी और किसी को शामिल किए बिना ही अपने ही इनपुट के आधार पर इस कार्यक्रम को लागू कर दिया गया।

डीम्ड विश्वविद्यालयों पर सवाल
इसके अलावा डीम्ड विश्वविद्यालयों की साख पर हमेशा सवाल उठते रहते हैं। यहां की पढ़ाई और शोध के कमजोर स्तर, शिक्षा के व्यापारीकरण, भ्रष्टाचार की शिकायतों के चलते मानव संसाधन मंत्रालय ने 44 डीम्ड विश्वविद्यालयों की फिर से मान्यता के लिए संस्तुति की है। पर इसका भी प्रभाव नहीं पड़ा है।

ज्यादा महत्वपूर्ण बात तो यह है कि इन डीम्ड विश्वविद्यालयों की स्थापना और धन आवंटन को लेकर मानव संसाधन मंत्रालय की कोई नीति ही नहीं है। फंडिग की एकरूपता के तंत्र के अभाव में किसी डीम्ड यूनीवर्सिटी की तो केन्द्रीय विवि की तर्ज पर 100 फीसदी तक फंडिंग हो जाती है तो कुछ की राज्य विश्वविद्यालयों की तर्ज पर। कुछ को तो तय ग्रांट मिलती है और काफी संख्या में इनके साथ निजी विश्वविद्यालयों जैसा व्यवहार किया जाता है।

जमीनी स्तर पर समन्वय नहीं
शिक्षा के क्षेत्र में अभी तक जमीनी स्तर पर सहयोगात्मक और प्रतिस्पर्धात्मक फेडेरलिज्म का विचार नहीं अपनाया जा सका है। इसकी वजह से केन्द्रीय और राज्य विश्वविद्यालय आपस में प्रभावी समन्वय स्थापित नहीं कर पा रहे हैं। मानव संसाधन मंत्रालय बड़ी संख्या में डीम्ड यूनीवर्सिटी के रूप में स्व-पोषित संस्थानों को बढ़ावा देता है तो राज्य सरकारें निजी क्षेत्र को यूनीवर्सिटी स्थापित करने में आगे रहती हैं। निजी विवि और कॉलेजों के बारे में धारणा है कि वे सिर्फ लाभ कमाने वाले संस्थान बनकर रह गए हैं।

लगभग सभी व्यापारिक घरानों और उद्योगपतियों ने सत्ता में रहे राजनीतिक नेताओं के समर्थन से अपने कॉलेज और विश्वविद्यालय स्थापित कर लिए हैं। उच्च शिक्षा के क्षेत्र में निजीकरण इतना बढ़ गया है कि अस्सी फीसदी से ज्यादा कॉलेज और विश्वविद्यालय निजी प्रबंधन के हैं। इनमें साठ फीसदी से ज्यादा छात्रों का नामांकन होता है। और इस स्थिति में इजाफा होता ही जा रहा है। हालांकि यहां तकनीकि और प्रबंधन कोर्स की एक-तिहाई सीटें खाली रह जाती हैं।

नियामक संस्थाएं जैसे यूजीसी, एआईसीटीई, एमसीआई इन अवैध गतिविधियों को बढ़ावा देने की अनुमति दे देती हैं जिससे उच्च शिक्षा और शोध की गुणवत्ता का स्तर गिरता है और मानव संसाधन मंत्रालय मूक बनकर देखता रहता है। उच्च और दूरस्थ शिक्षा संस्थान जिनमें उच्च शिक्षा के एक तिहाई छात्रों का नामांकन होता है, में अप्रभावी नियामकों के चलते वहां शिक्षा की गुणवत्ता संकटपूर्ण हो गई है। देश के हर शहर के कोनों पर स्टडी सेंटरों का खुलना जारी है। अंतिम रूप से, उच्च शिक्षा ऎसी हो जो “मेक इन इंडिया” और “सबका साथ, सबका विकास” पर आधारित हो। इस बारे में मानव संसाधन मंत्रालय को बहुत अधिक ध्यान देना चाहिए।
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