व्यंग्य राही की कलम से
इन दिनों हिन्दी पखवाड़ा और श्राद्ध पक्ष का अजीब संयोग है।सरकारी महकमे हिन्दी का ‘तर्पण’ करने में जुटे हैँ। हिन्दी के कथित विद्वान भी नए कुर्ते-पायजामे सिलवाकर विभिन्न कार्यालयों में हिन्दी दिवस मनाने के लिए वैसे ही तत्पर हो रहे हैँ जैसे कनागतों में जीमने के लिए कर्मकांडी बामण। विद्वान जाते हैं, हिन्दी की दशा का दुर्दशा के रूप में इस हाहाकारी ढंग से बयान करते हैं।
सरकारी कार्यालयों में बैठे अफसरों को संतुष्टि प्राप्त हो जाती है- हम ठीक करते हैं जो हिन्दी में काम नहीं करते। लेकिन आपको अपने मन की बात कहें। हमारा बस चले तो हिन्दी दिवस और हिन्दी पखवाड़ा मनाने पर ही तुरंत रोक लगा दें। जो भाषा हमारी मां है, जो हमारे तन-मन में रक्त की तरह रच-बस गई है उसका पखवाड़ा मनाना क्या एक छलावा नहीं? हिन्दी का सबसे बड़ा कबाड़ा उन कथित हिन्दी विद्वानों ने ही किया है, जो ऐसी भाषा लिखते हैं जिसे समझना कांटों भरी राह से गुजरने से भी अधिक दुष्कर होता है। कुछ लोग कहते हैं कि हिन्दी मर रही है, समाप्त हो रही है।
कसम से उनकी बातों पर हमें हंसी आती है। माना कि इस देश के अफसरों की भाषा इंगलिश है। राजकाज हिन्दी में करने में वे तौहीन समझते हैं। तथाकथित अभिजात्य वर्ग हिन्दी में बोलना अपमान समझता है लेकिन यही वर्ग हिन्दी से पल रहा है। हिन्दी से पनप रहा है।
देश के एक बड़े राजनेता ने तो एक बार कह ही दिया था कि वे प्रधानमंत्री सिर्फ इसलिए नहीं बन पाए क्योंकि उन्हें हिन्दी बोलना नहीं आता था। हम तो अपने यार-भायलों, चेले-चेलियों से यही कहते हैं अपनी जुबान में बोलो। अपनी बोली में बतियाओ। हम गांवों में इसलिए जाते हैं कि दो नए शब्द सीख सकें। उन लफ्जों को याद कर सकें जो हमारी नानी और दादी बोला करती थी। श्राद्ध हम पूर्वजों का निकालते हैं। हिन्दी में तो हम जश्न मनाते हैं। कभी मन करें तो सांझ को आ जाना हिन्दी उत्सव क्या होता है, बता देंगे।
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