छछून्दर मल
ने अपने जेबकतरे दादा की जेलयात्रा को स्वतन्त्रता संग्राम में योगदान देने
वाली घटना साबित करा दिया। हालांकि छछून्दर के दादा जेब काटने के अपराध
में जेल गए थे
Opinion news
बेचारे छात्र की वेदना को हम बेहतर समझ सकते हैं। दरअसल जब हमसे कोई कहता है कि जनाब जरा इस विषय पर लिख दो तो हमारी हालत सांप-छछून्दर सरीखी हो जाती है। न उगलते बनता है और न निगलते। लिखे तो वह क्या होगा और न लिखे तो फिर सामने वाला कहेगा- यार इसके तो नखरे ही बड़े हैं। एक सृजनकार की यही असली वेदना है। एक लेखक अपनी मरजी से रचता है। लेकिन सरकार अपनी मरजी थोपती है।
अब मोदीजी के गुजरात को ही ले लीजिए। वहां मोदीजी द्वारा नामित सरकार ने बाकायदा सर्कुलर जारी करके विश्वविद्यालयों को बयासी विषयों की सूची दी है कि वे इन विषयों पर शोध निबन्ध तैयार कराएं। बेचारा छात्र! करे तो क्या करे। आपको एक सच्चा किस्सा सुनाते हैं।
जब हमने तीन सौ बरस पहले पेड़ों के लिए तीन सौ तिरेसठ स्त्री-पुरुषों द्वारा किए गए महाबलिदान पर नाटक लिखने का विचार किया तो सबसे पहले उस वक्त का इतिहास पढ़ा। और हम यह जान कर सकते में आ गए कि तत्कालीन इतिहास लिखने वालों ने रियासतों के आधिकारिक इतिहास में इस घटना का जिक्र ही नहीं किया था जबकि यह घटना उतनी ही सत्य है जितनी सूर्य से गर्मी निकलना और बादलों से बरसात होना।
जब हमने थोड़ा विश्लेषण किया तो समझ पाए कि चूंकि इतिहास लिखने वालों को ‘राज्य’ से मदद मिलती है इसलिए वे राजाजी के खिलाफ जाने वाली बातों का अपने लेख में जिक्र ही नहीं करते। यह तो ऐसे ही है कि सेठ छछून्दर मल ने अपने जेबकतरे दादा की जेलयात्रा को स्वतन्त्रता संग्राम में योगदान देने वाली घटना साबित करा दिया। हालांकि छछून्दर के दादा जेब काटने के अपराध में जेल गए थे पर संयोग से उन्होंने एक फिरंगी की जेब काटी थी। पूरे देश में यही हो रहा है।
स्वतन्त्रचेता व्यक्ति बचे ही कहां हैं। जो मु_ी भर लोग हैं उन्हें तरह-तरह के प्रलोभन देकर अपने पक्ष में कर लिया जाता है। एक जमाने में सांस्कृतिक केन्द्रों, अकादमियों में निष्पक्ष विद्वानों को पद दिये जाते थे अब तो मंत्री-मुख्यमंत्री अपने चमचों को बिठा देते हैं। ये लोग भांडों से भी गए-बीते होते हैं और सत्ता-चालीसा लिख-लिख कर साहित्य और संस्कृति में सूगलवाड़ा मचा देते हैं। अगर सचमुच सरकार अपनी योजनाओं का मूल्यांकन कराना चाहती है तो अभी यह देश ‘वीरों’ से खाली नहीं हुआ है। जरा निष्पक्ष लेखकों और संस्कृति कर्मियों से ‘सोशल ऑडिट’ कराये। वे दूध का दूध और पानी का पानी कर देंगे। लेकिन इस चमचा समय से सच बोलने वालों की जरूरत किसे है। सरकारों की विरुदावली गाकर ‘बड़े’ बने लोगों का असली हाल देखना है तो जरा करीब जाकर देखो। जो कभी सत्ता के ‘शेर’ थे वे अब वाणी के गीदड़ बने दिखाई देते हैं। राही