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निस्वार्थ काम को सम्मान

Published: Jul 30, 2015 10:15:00 pm

एशिया के नोबल पुरस्कार कहे जाने वाले
प्रतिष्ठित रमन मैग्सेसे पुरस्कार विजेता संजीव चतुर्वेदी और अंशु गुप्ता ने
अपने-अपने क्षेत्रों में अपने-अपने तरीके से काम करके यह जता दिया कि

Anshu Gupta

Anshu Gupta


एशिया के नोबल पुरस्कार कहे जाने वाले प्रतिष्ठित रमन मैग्सेसे पुरस्कार विजेता संजीव चतुर्वेदी और अंशु गुप्ता ने अपने-अपने क्षेत्रों में अपने-अपने तरीके से काम करके यह जता दिया कि इच्छाशक्ति हो तो कोई भी लक्ष्य हासिल किया जा सकता है। चतुर्वेदी ने सरकारी सेवा में रहते हुए व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष करते यह मुकाम हासिल किया तो गुप्ता ने नौकरी छोड़कर कुछ नया करने की ठानी और उसमें वे सफल भी रहे। दोनों ने दिखा दिया कि मन में लगन हो तो हर बाधा पार की जा सकती है। स्पॉट लाइट में पढिए इन दोनों के साक्षात्कार…

सिस्टम में रहकर लड़ना है बेहतर

एम्स के डिप्टी डायरेक्टर और रेमन मैग्सेसे अवार्ड से सम्मानित भारतीय वन सेवा के अधिकारी संजीव चतुर्वेदी से समीर चौगांवकर की बातचीत के प्रमुख अंश…

भ्रष्ट व्यवस्था से नौकरी में रहकर लड़ते-लड़ते किरण बेदी के बाद रेमन मैग्सेसे अवार्ड पाने वाले आप दूसरे प्रशासनिक अधिकारी है। कैसा महसूस कर रहे है सम्मान पाकर?

उत्तर : मुझे मिला यह सम्मान देश के सभी ईमानदार अधिकारियों के लिए सम्मान की बात है। देश के अलग-अलग हिस्सों में भ्रष्ट तंत्र से लोहा ले रहे ईमानदार अधिकारियों का हौसला बढ़ाने वाला यह समाचार है। लेकिन भ्रष्ट व्यवस्था को पालने पोसनें और भ्रष्टाचार में लिप्त रहने वालें लोगों के लिए यह एक अंतरराष्ट्रीय तमाचा है।

मनमोहन की यूपीए सरकार और मोदी की एनडीए सरकार मेे आप किस सरकार को बेहतर मानते हैं। या दोनों सरकारें
क्लीन गवर्नेस के मुद्दे पर फेल हुई है?

उत्तर – देखिए सिविल सर्वेंट होने के नाते हमें इससे फर्क नहीं पड़ता कि केन्द्र में कौन सी सरकार है। देश का कानून और संविधान सर्वोपरि है। हमें जो सही है, वही करना है। सरकार से कोई फर्क नहीं पड़ता।


भारतीय वन सेवा में आपकी पहली नियुक्ति कुरूक्षेत्र में हुई थी। वहां पर आपने भ्रष्ट ठेकेदारों के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराकर भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग की शुरूआत की थी। इन तेरह सालों में कभी ऎसा लगा कि बस अब बहुत हो चुकी सरकारी नौकरी से तौबा कर लेनी चाहिए?
उत्तर : सिस्टम में रहकर भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़कर लड़ाई को सार्थक अंत तक पहुंचाने की संभावनाए ज्यादा होती है। मैं दो साल से भी कम समय के लिए एम्स का सीवीओ रहा लेकिन इस दौरान मंैने 200 से ज्यादा भ्रष्टाचार के मामले सामने लाए। अगर मैं सिस्टम के बाहर रहता तो इतने मामलें सामने लाने में मुझे दस साल लग जाते। मुझे लगता है कि सिस्टम में रहकर काम में तेजी की गुंजाइश ज्यादा रहती है।


सिस्टम में रहकर व्यवस्था का हिस्सा बन चुके राजनेताओं, अधिकारियों और ठेकेदारों के संगठित गिरोह से लड़ना कितना मुश्किल है?
उत्तर : देश के संविधान में आपको कई अधिकार दिए हुए है। सिस्टम में रहकर व्यवस्था को साफ -सुथरा रखने के लिए अधिकारियों के पास कई रास्ते होते है और जो नहीं करना चाहता उस अधिकारी के लिए दस बहाने हमेशा तैयार होते है। अधिकारी नेता को लूट-खसोट करने के रास्ते बताता है और नेताओं और भ्रष्ट अधिकारियों का यह गिरोह व्यवस्था में लूट मचाता है। राजनेता के आश्रय के कारण कार्यवाही करने में मुश्किले आती हैं। इच्छाशक्ति हो तो लड़ा जा सकता है और रास्ते भी उपलब्ध है। हमारे रूल्स बुक में लिखा है कि सिर्फ राजनीतिक दबाव के कारण किसी अधिकारी को हटाया नहीं जा सकता है। ईमानदार अधिकारियों के पास अधिकारों की कमी नहीं है। बशर्ते उनमें काम करने का जजबा हो। काम करने की गुंजाइश हमेशा बनी रहती है।

प्रतिनियुक्ति में दिल्ली आने से पहले हरियाणा में आपका 12 बार तबादला किया गया। क्या इन तबादलों ने आपकी शुरू की गई जांच को कमजोर करने के साथ ही आपके मनोबल को भी कमजोर किया क्या?
उत्तर : देखिए तबादला होने पर थोडी तो मुश्किल होती ही है। लेकिन कुछ करने की इच्छाशक्ति हो तो हर समस्या के समाधान और रास्तें उपलब्ध है।


अब केन्द्र में मोदी सरकार है। क्या आपको लगता है कि न खाऊंगा और न खाने दूंगा की सरकार देश में राज कर रही है?
उत्तर : मुझे सबसे ज्यादा निराशा प्रधानमंत्री कार्यालय के उदासीन रवैये से हुई है। माननीय मोदी जी के आने के बाद एक उम्मीद थी लेकिन पिछले एक साल में जो मेरे साथ हुआ, झूठे मुकदमें दर्ज किए गए। प्रधानमंत्री कार्यालय मौन बना रहा उससे तकलीफ और निराशा हुई। हमारी प्रतिबद्धता किसी पार्टी या किसी पॉलिटिकल आइडियोलाजी से नहीं है। हम देश के संविधान के प्रति समर्पित है। सरकार आती जाती रहती है, हमें कोई फर्क नहीं पड़ता।

अब आगे की क्या योजना है?
उत्तर : मंैने कभी भी किसी पुरस्कार और इनाम के लिए काम नहीं किया। जहां भी रहा सच सामने लाने और ईमानदारी से काम किया। आगे भी इसी तरह देश की सेवा करता रहंूगा।

क्या राजनीति में आने की संभावना है?
उत्तर : नहीं, कभी नहीं। मैं राजनीति में कभी नहीं आऊंगा। यहां काम करने के लिए बहुत कुछ है। यहीं रहकर व्यवस्था को साफ सुथरा बनाने की कोशिश करूंगा।

आत्मसम्मान से जीना सिखाएं, दान से नहीं

गूंज संस्था के माध्यम से देश के गांवों में वर्क फॉर क्लॉथ मुहिम छेड़े हुए हैं अंशु गुप्ता। हिंदुस्तान के आम ग्रामीण को मेहनतकश और आत्मसम्मान के साथ जीने वाला मानने वाले अंशु अपनी मुहिम में लोगों को विकास के संसाधन जुटाने के लिए प्रेरित करते हैं और इसके बदले में कपड़े सहित अन्य जरूरत के इस्तेमाल योग्य सामान उन्हें उपलब्ध कराते हैं। इस रचनात्मक दृष्टिकोण के लिए ही उन्हें रमन मैग्सेसे पुरस्कार दिया गया है। पेश है उनसे हुई बातचीत के प्रमुख अंश..

समाज सेवा की शुरूआत कैसे हुई?

उत्तर : व्यक्ति को मुख्य रूप से जीवन में तीन चीजों की जरूरत होती है। पहली रोटी, दूसरा कपड़ा और तीसरा मकान। इसमें कपड़ा ऎसा मुद्दा है जो वास्तव में मुद्दा बन ही नहीं पाया। इसे लेकर समाज में चर्चा ही नहीं होती। कपड़े को तो आपदा राहत में दान के तौर पर इस्तेमाल ही किया जाता है। जब भी बाढ़ या फिर कोई भूकंप आ गया तो लोग इसे एकत्र कर पीडितों तक पहुंचाते हैं। लेकिन, इस संदर्भ में हम यह भी भूल जाते हैं कि कपड़ों की कमी के कारण ठंड से भी तो मौतें होती हैं। उनके लिए भी कुछ करना चाहिए। कुछ करने के लिए आपदाओं की प्रतीक्षा क्यों? यही सोच काम की शुरूआत की।

कपड़े से सेवा की प्रेरणा कैसे मिली?
उत्तर : 1991 की बात रही होगी जब मैंने हबीब नाम के व्यक्ति के साथ करीब एक हफ्ता गुजारा। वे लावारिस लाशों को उठाने का काम करते थे। उसकी बेटी, जो करीब पांच-छह साल की थी, ने बताया कि जब उसे ठंड लगती है तो वह किसी भी शव के साथ चिपककर सो जाती है क्योंकि वह शव कुछ भी नहीं कहता। हबीब के साथ मैंने ऎसी लाश भी देखी जिसके बदन पर बहुत हल्का सा कपड़ा था। लगता था कि ठंड के कारण उसकी मौत हुई होगी। ऎसे में कुछ करने को मन कचोटता रहा। फिर 1998 में पत्नी मीनाक्षी के साथ तय किया कि लोगों के लिए कपड़े एकत्र किए जाएं। हमारे छोटे से ही घर से 67 कपड़े निकले। हमारा उद्देश्य बिल्कुल साफ था कि हमें कपड़े की समस्या से जूझ रहे लोगों के लिए काम करना है ना कि संस्था के नाम के लिए। हमने काम पहले शुरू किया और गूंज नाम से संस्था का पंजीकरण करीब साल भर बाद 1999 में कराया।

अपने लिए काम करते हुए हुए अन्य लोगों के लिए काम करने का समय कैसे निकाल पाए? घर का खर्च कैसे चलाया?
उत्तर : मैं और मेरी पत्नी दोनों ही घर चलाने के लिए काम करते थे। हमने तय किया कि दोनों में से एक के वेतन से ही घर चलाया जाए। फिर, मैंने अपनी नौकरी छोड़कर इसी काम को हाथ में ले लिया। केवल कपड़े ही नहीं घर में तीन साल से बेकार पड़ा ऎसा सामान भी हमने लोगों को देने में ही उपयोग किया।

आपने वर्क फॉर क्लॉथ की शुरूआत की है? इसे शुरू करने का कारण क्या है?
उत्तर : हमने ऎसा पाया है, हिंदुस्तान के गांवों की खूबी वहां के लोगों का आत्मसम्मान है। यही वजह है कि वहां भिखारी नहीं मिलते। यह शहरों के विषय हैं। हमें लगता है कि दान मुफ्तखोरी को बढ़ाता है। व्यक्ति मुफ्तखोरी का आदी हो जाता है। इस मनोवृत्ति पर रोक लगनी चाहिए। इसके लिए ही वर्क फॉर क्लॉथ की शुरूआत की। इसके तहत हम गांवों में उनके विकास के संसाधनों के काम करने को कहते हैं, चाहे वह पोखर के लिए काम करे या सड़क के लिए। हम बदले में उन्हें उनकी आवश्यकता की वस्तुएं उपलब्ध कराते हैं। इसमें कपड़े से लेकर फर्नीचर, जूते आदि कुछ भी हो सकते हैं। इसे वे स्वाभिमान के साथ स्वीकार करते हैं।


इससे दान की महत्ता समाप्त नहीं होती?
उत्तर : नहीं, बिल्कुल भी नहीं। हमें लोगों को मुफ्तखोरी का आदी नहीं बनाना है। हमें लोगों को आत्मसम्मान के साथ जीने की राह दिखानी है। यही वजह है कि हम जो पुरानी वस्तुएं लोगों से लेते हैं, उन्हें भी दान नहीं कहते। दान देकर आप किसी पर अहसान कर रहे होते हैं बल्कि इसके विपरीत सच्चाई तो यह है कि जो आपकी इस्तेमाल की हुई चीज ले रहा है, वह उस वस्तु को नई उम्र दे रहा होता है। वह उसका मूल्यवर्धन करता है। हम इसी सोच को बदलने की बात करते हैं। यही अधिक महत्वपूर्ण है। हमारे लिए उत्पाद से अधिक उसे जरूरत मंद लोगों को उपलब्ध कराने का उपकरण अधिक महत्वपूर्ण है जो लोगों के आत्मसम्मान को बचा रहा है।

मैग्सेसे पुरस्कार के क्या मायने हैं आपके लिए और गूंज के लिए?
उत्तर : इस पुरस्कार ने पहचान को व्यापक बना दिया है और लोगों तक संस्था के काम से परिचय करा दिया है। इससे जिम्मेदारी बढ़ गई है। हम चाहते हैं कि लोग दान और विकास के लिए मेहनत की नई अर्थव्यवस्था को समझें।

आप कहना चाह रहे हैं कि स्कूलों में बच्चों को मुफ्तखोर बनाया जा रहा है?
उत्तर : मेरा कहने का आशय है कि हमें बच्चों के मामले में दोहरा मापदंड छोड़ना पड़ेगा। हम अपने बच्चों को ये तो सिखाते हैं कि फलां व्यक्ति या आंटी यदि कुछ दें तो मत लेना लेकिन दूसरी ओर उन्हें मुफ्त में वस्तुएं उपलब्ध कराकर उनके आत्मसम्मान को घटाने की कोशिश करते हैं।

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