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कैसे मिटेंगी आपसी दूरियां

Published: Nov 19, 2015 10:12:00 pm

सत्ता से किसी मजबूत दल को रोकने या बेदखल करनेे के लिए तमाम विपक्षी दलों की एकजुटता का फॉर्मूला कोई नया नहीं है

Opinion news

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सत्ता से किसी मजबूत दल को रोकने या बेदखल करनेे के लिए तमाम विपक्षी दलों की एकजुटता का फॉर्मूला कोई नया नहीं है। एक जमाना था जब इंदिरा गांधी के खिलाफ तमाम विपक्षी दल एकजुट हुए। मकसद था इंदिरा गांधी को सत्ता से बाहर करना। वे इस मकसद में सफल भी हुए पर खुद भी उतनी ही तेजी से बाहर हो गए। और यह सपना ही रह गया। अब बिहार में लालू-नीतीश ने यह फॉर्मूला अपनाया और वे भी अपने मकसद में सफल हो गए। अब चर्चाएं बाकी राज्यों में भी इस फॉर्मूले को गढऩे की हैं पर क्या वहां की सियासी हकीकत बिहार की तरह इसे पनपने देगी? इसी पर पढि़ए आज का स्पॉट लाइट…

अजीत मैंदोला
बिहार चुनाव परिणामों ने देश की राजनीति को लेकर एक नई बहस छेड़ दी है। कई नए सवाल खड़े हो गए हैं। क्या बिहार महागठबंधन अन्य राज्यों में भी बन पाएगा? कांग्रेस की आगे की रणनीति क्या होगी? क्या भाजपा में टूट होगी? क्या नरेंद्र मोदी का तिलिस्म समाप्त हो गया है? आदि-आदि। अब यही देखना होगा कि आखिर होगा क्या? देश का मतदाता कुछ समय से चौंकाने वाले परिणाम दे रहा है। वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में मतदाताओं ने सभी राजनीतिक पंडितों को फेल कर दिया था। भाजपा को ऐसा मत दिया जिसकी कल्पना स्वयं भाजपा ने नहीं की थी। इसके बाद दिल्ली में अरविंद केजरीवाल को छप्पर फाड़ के वोट मिले। नतीजतन उन्होंने रिकॉर्ड जीत हासिल की, और अब बिहार। यहां भी सभी राजनीतिक पंडित फेल हो गए। महागठबंधन को उम्मीद से कहीं ज्यादा सीटें मिलीं।

चला जीत का सिलसिला
वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव को ही लें। परिणामों से लगा कि देश में जात-पात की राजनीति खत्म हो गई है। धर्म की राजनीति हावी हो गई। मोदी नए करिश्माई नेता के रूप में उभरे। दिल्ली चुनाव से पहले उन्होंने हाथ में जिस चुनाव की जिम्मेदारी ली, वहां भाजपा को जीत मिलती गई। हरियाणा, महाराष्ट्र और झारखंड इसके उदाहरण बने। जम्मू-कश्मीर को भी इसमें शामिल किया जा सकता है। इन सफलताओं के बाद तो भाजपा में मोदी और शाह ने जो चाह वही हुआ। यहां पर गौर करने वाली बात यह थी कि अधिकांश राज्यों में कांग्रेस की ही सरकारें थी। जिनके खिलाफ नकारात्मक माहौल ज्यादा था जिसका लाभ भाजपा को मिला। पर श्रेय मोदी और शाह को मिला।

…पर तिलिस्म टूट गया
लगातार जीत के बाद दिल्ली में 10 माह की केंद्र में मोदी सरकार की पहली बड़ी परीक्षा थी। यहां पर भी कांग्रेस के खिलाफ जनता का गुस्सा 2013 के विधानसभा चुनाव और उसके बाद लोकसभा चुनाव में उतर चुका था। इस पहली परीक्षा में मोदी और शाह की जोड़ी फेल हो गई।

दिल्ली चुनाव में न धर्म की चली, न राजनीति की और न ही जात-पात की। हालांकि प्रयोग जरूर हुए। भाजपा के नेताओं ने विवादास्पद बयान देकर ध्रुवीकरण की कोशिशें की थीं। दिल्ली के चुनाव परिणाम के बाद कहा भी जाने लगा था कि देश के मतदाता का मूड बदलने लगा है। मोदी का जादू कमजोर हो गया है। पर भाजपा के रणनीतिकार मानने को तैयार ही नहीं हुए। बिहार के परिणामों ने इस पर मुहर लगा दी। मोदी का जादू समाप्त हो गया था।

पर साम्प्रदायिकता की राजनीति पर जात-पात की राजनीति हावी होगी इसकी उम्मीद नहीं थी। पर यहां पर यह भी गौर करना होगा कि भाजपा की दुर्गति केवल जात-पात की राजनीति के चलते नहीं हुई है। एक बड़ा कारण जरूर जात-पात की राजनीति को माना जा सकता है पर बाकी वजह भाजपा के रणनीतिकारों की ही रही। पर अमित शाह की नाकामियों से ज्यादा बहस जात-पात की राजनीति को लेकर ही हो रही है। जाति की यह राजनीति बिहार के बाहर भी चलेगी, इसको लेकर आशंका है। अब जिन राज्यों में चुनाव होने हैं, उनमें केवल उत्तर प्रदेश एक ऐसा राज्य है, जहां पर जाति की राजनीति है।

अब गठबंधन मुश्किल
बिहार के बाद और राज्यों में महागठबंधन बनना मुश्किल दिखता है क्योंकि बाकी सभी जगह हालात अलग हैं। अगले साल जिन राज्यों में चुनाव होने हैं उनमें असम, पश्चिम बंगाल, केरल और तमिलनाडु हैं। इनमें पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु में कांग्रेस और भाजपा को दूसरे दलों पर टकटकी लगानी होगी। केरल में गठबंधन पहले से ही बने हैं। वहां पर भाजपा जरूर अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के लिए हाथ पैर मारेगी। असम में कांग्रेस और भाजपा के बीच सीधे मुकाबले के आसार हैं। यहां पर क्षेत्रीय दल भाजपा को रोकने के लिए कांग्रेस का अब साथ दे सकते हैं। पर महागठबंधन जैसी बात नहीं होगी। इनके बाद 2017 के पंजाब और उत्तर प्रदेश के चुनाव बताएंगे कि महागठबंधन का क्या होगा?

हालांकि इनके साथ उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में भी चुनाव होने हैं पर वहां पर भी भाजपा व कांग्रेस सीधे आमने-सामने हैं। विपक्ष की असल राजनीतिक परीक्षा पंजाब और उत्तर प्रदेश में ही होनी है। पंजाब में नीतीश कुमार की करीबी आम आदमी पार्टी चुनाव की पूरी तैयारी में है। कांग्रेस कभी भी आप के साथ नहीं जाएगी। भाजपा की मजबूरी अब अकालियों के साथ ही चुनाव लडऩे की है। ऐसे में यही तीन असल फं्रट पंजाब में होंगे। हालांकि बसपा भी कुछ सीटों पर दखल रखती है पर ज्यादा भूमिका नहीं निभाती। राजद, सपा और जदयू का पंजाब में कोई वजूद नहीं हैं। राजद और जदयू के सामने सबसे बड़ा संकट पंजाब में आएगा। वह कांग्रेस के साथ जाए या केजरीवाल के साथ, तय करना आसान नहीं रहेगा। अत: महागठबंधन वाली बात होगी नहीं।

क्या इतिहास दोहराएंगे माया-मुलायम
पंजाब के साथ उत्तर प्रदेश में भी कमोबेश यही हालात हैं। उत्तर प्रदेश में अगर 1993 की तरह मुलायम और मायावती हाथ मिला गठबंधन बना लें तो फिर सारे समीकरण ही उलट जाएंगे। उन्हें बाकी किसी दल की जरूरत नहीं होगी। वह अकेले भाजपा पर भारी पड़ेंगे। ऐसे में जात-पात की राजनीति धर्म की राजनीति पर पूरी तरह से हावी हो जाएगी। पर यह सब अगर-मगर में फंसा है। जो अभी हालात हैं उसमें बसपा नेत्री मायावती किसी के झांसे में आने वाली नहीं हैं। बिहार के बाद जानकार मान रहे हैं कि उत्तर प्रदेश में मायावती अभी मजबूत हैं। सपा का आधार लगातार घट रहा है। कांग्रेस बसपा के साथ सौदेबाजी की स्थिति में नहीं है।

अच्छे दिन लाने वाली भाजपा के बुरे दिन
इस वक्त भाजपा में अंदरखाने हालात चिंताजनक हैं। बिहार में हार के बाद भाजपा के बुरे दिन शुरू हो गए हैं। अमित शाह ने यदि जिद नहीं छोड़ी तो परिणाम कुछ भी हो सकते हैं। शाह के 60 साल वाले बयान पर भी तीखी प्रतिक्रिया हुई है। शाह भूल गए कि प्रधानमंत्री मोदी ही स्वयं 65 साल के हैं। लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, अरुण शौरी और यशवंत सिन्हा ने कहीं जरा भी अटकलों के हिसाब से फैसला कर लिया तो फिर केंद्र में कुछ भी हो सकता है। बिहार की जीत के बाद नीतीश कुमार की नजर यूं भी लालकृष्ण आडवाणी पर लगी हुई है।

कांग्रेस की उम्मीदें जगीं
बिहार ने कांग्रेस की उम्मीदों को बढ़ा दिया है। हालांकि बिहार के बाद कांग्रेस के लिए राह आसान नहीं है पर भाजपा के कमजोर पडऩे से उसको उम्मीद दिखाई दे रही है। अगले साल असम व केरल में अपनी सरकारें बचाने की चुनौती होगी। तमिलनाडु और प. बंगाल में कांग्रेस पुराने सहयोगियों के साथ जाने की कोशिश कर सीटें बढ़ाने की कोशिश करेगी। प. बंगाल में वह ममता बनर्जी के साथ कम सीटों पर ही समझौता कर सकती है जिससे कि 2019 में ज्यादा सीटों के लिए मोल भाव किया जा सके। तमिलनाडु में कांग्रेस द्रमुक के साथ चुनाव जीतने की कोशिश करेगी। कांग्रेस की असल परीक्षा 2017 में होनी है। उत्तराखंड और हिमाचल तो बचाना होगा साथ ही पंजाब में वह वापसी के लिए पूरी ताकत लगाएगी। पर इन राज्यों में एक ही अड़चन है कि कांग्रेस आपस में संघर्ष कर रही है। उत्तर प्रदेश में उसके सामने खासी दुविधा है।

सियासत में स्थायी दोस्त-दुश्मन नहीं
आलोक मेहता वरिष्ठ पत्रकार
राजनीति में कभी कोई स्थायी शत्रु और स्थायी मित्र नहीं होता। इसलिए कब कौनसा राजनीतिक दल किस के साथ तालमेल कर चुनाव मैदान में उतरता है यह तात्कालिक परिस्थितियों पर निर्भर करता है। हमने देखा है कि पिछले सालों में लगभग दो दशक तो गठबंधन की राजनीति से प्रभावित ही रहे हैं।

बिहार विधानसभा के ताजा चुनाव में भाजपा को बाहर करने के लिए करीब ढाई दशक तक एक-दूसरे के खिलाफ ताल ठोकते रहे नीतीश कुमार व लालू प्रसाद एक हो गए। महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों से पहले ढाई दशकों का भाजपा और शिवसेना का साथ छूटा तो लगभग पंद्रह साल पुराना कांग्रेस और राकांपा का गठबंधन भी टूटा। यह बात और रही कि महाराष्ट्र में सत्ता में बने रहने की चाहत ने भाजपा-शिवसेना गठबंधन फिर से हो गया। विभिन्न दल समय समय पर अपने अपने स्वार्थों के चलते किसी गठबंधन में शामिल होते रहे या उससे बाहर निकलते रहे हैं। लेकिन बिहार के चुनाव में बने गठबंधन ने कांग्रेस जैसे राष्ट्रीय दल को जिस मजबूरी में ला खड़ा किया वह भी अचरज का विषय है।

कांग्रेस को तो पिछले लोकसभा चुनाव में जिस तरह की पराजय का सामना करना पड़ा उसके बाद तो उसकी मजबूरी ही हो गई कि गठबंधन करने वाले क्षेत्रीय दलों के साथ एक छोटे साझेदार के रूप में जुड़े। जब तक कांग्रेस खुद को कमजोर पाती है तब तक उसके लिए इस तरह के गठबंधन स्वीकार करके ही चलना होगा। यह बात और है कि मोदी लहर में सफाए से पहले कांग्रेस में राहुल गांधी व अन्य नेता यह मानते रहे हैं कि उनकी पार्टी नेतृत्व करने के लिए ही है और वे जहां भी चुनाव मैदान में उतरेंगे, अपने दम पर ही उतरेंगे। लेकिन राहुल और उनकी सलाहकार मण्डली ने यह अच्छी तरह समझ लिया है कि सत्ता का साथ बनाए रखने के लिए गठबंधन अच्छा रास्ता है।

राहुल गांधी तो बिहार चुनाव प्रचार के दौरान सार्वजनिक रूप से पहली बार नीतीश कुमार को नेता स्वीकार करने लगे थे। मुझे लगता है कि प.बंगाल में लेफ्ट को बाहर रखने के लिए ममता बनर्जी से कांग्रेस तालमेल का प्रयास कर सकती है। ऐसा लगता नहीं कि वहां वामदल व कांग्रेस का गठबध्ंान होगा। ममता के लिए भाजपा ज्यादा मुफीद पार्टी है लेकिन वह अल्पसंख्यक मतों को नाराज करने का खतरा शायद ही उठाए। उत्तरप्रदेश में भी विधानसभा चुनाव होंगे तब मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी से कांग्रेस साथ जुड़ेगी ऐसा संभव कम ही लगता है। लेकिन मायावती वहां खुद को बड़ा विकल्प के रूप में पेश करने का जरूर प्रयास करेगी। इन प्रयासों के चलते बसपा के पास दोनों ही विकल्प खुले हो सकते हैं वह भाजपा व कांगे्रेस दोनों को ही साथ जुडऩे का न्यौता दे सकती है।

 कांग्रेस की तरह भाजपा के लिए भी पंजाब में अकाली जैसे सहयोगी का साथ बनाए रखना मजबूरी होगा। यह हो सकता है कि बड़े भाई के रूप में भाजपा यहां ज्यादा सीटों की मांग करे और अकाली दल खुद के दम पर मैदान में उतर जाए। महाराष्ट्र में जिस तरह शिवसेना चुनाव के बाद वापस जुड़ी उसी तरह पंजाब में अकाली सरकार बनाने की मजबूरी हुई तो अंतत: भाजपा का ही साथ ले सकते हैं। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि दिल्ली में जड़े जमा चुकीं आम आदमी पार्टी ने पंजाब से भी चार सांसद जितवाए हैं।

ऐसे में उसका प्रयास अपने बूते पर मैदान में उतरने का होगा। सत्ता के लिए समय के अनुसार दलों का गठबंधन और महागठबंधन भले ही राजनीतिक मजबूरियों के कारण बनते-बिगड़ते रहते हैं लेकिन क्षेत्रीय दलों के उभरते स्वरूप ने मोटे तौर पर कांग्रेस व भाजपा जैसी राष्टीय स्तर के राजनीतिक दलों को कमजोर ही किया है। यह चिंता की बात है कि कांग्रेस जैसा राजनीतिक दल सत्ता प्राप्त करने व अस्तित्व बचाए रखने के लिए राजनीतिक बैसाखियों का सहारा ले रहा है। बिहार में भाजपा जैसे बड़े राजनीतिक दल की जो पराजय हुई है वह भी इस बात का संकेत देने को काफी हैं कि संगठन के बजाए सत्ता के सहारे चुनाव जीतने के प्रयास किए जा रहे थे।

बिहार में कांंग्रेस और भाजपा दोनों का ही संगठन कमजोर पड़ा था। दस करोड़ सदस्यों का दावा करने वाली भाजपा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और खुद पार्टी अध्यक्ष अमित शाह को प्रचार में झोंकने के बावजूद महागठबंधन का मुकाबला नहीं कर पाईं। महागठबंधन एक तरह से बड़े राजनीतिक दलों की विचारधारा को कमजोर ही करते हैं। भाजपा व कांग्रेस सरीखे बड़े दलों को संगठन की मजबूती की ओर ध्यान देना होगा अन्यथा क्षेत्रीय दलों की छाया में ये कमजोर होते ही चले जाएंगे।
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