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तमिलनाडु में ‘अम्मा’ जैसा कोई नहीं(प्रो.रामू मणिवन्नन)

Published: Dec 06, 2016 11:08:00 pm

तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जे.जयललिता जिन्हें स्नेह से लोग अम्मा भी कहते
हैं, के निधन के बाद तात्कालिक तौर पर सरकार को कोई खतरा नहीं है। उनकी
पार्टी एआईएडीएमके के पास पर्याप्त बहुमत है

J. Jayalalithaa

J. Jayalalithaa

जयराम जयललिता यानी तमिलनाडु की मुख्यमंत्री और ऑल इंडिया अन्नाद्रविड़ मुनेत्र कषगम (एआईएडीएमके) की सुप्रीमो इस संसार से विदा हो गईं। अभिनय के क्षेत्र में जबर्दस्त सफल रहते हुए अपने सह कलाकार एम.जी. रामचंद्रन की प्रेरणा से जब वे राजनीति के मैदान में सक्रिय हुईं तो 1991 में तमिलनाडु की दूसरी महिला मुख्यमंत्री बनीं। तब से लेकर अपने अंतिम समय तक पांच बार तमिलनाडु की मुख्यमंत्री रहीं जे. जयललिता को उनके चाहने वाले सम्मान से ‘अम्मा’ कहकर बुलाते हैं। वास्तव में अम्मा का व्यक्तित्व केवल तमिलनाडु तक ही सीमित नहीं था बल्कि वे समूचे देश की राजनीति में दक्षिण भारतीय राजनीति की बड़ी झंडाबरदार थीं इसीलिए मेरा मानना है कि उनके नहीं रहने से भारत की राजनीति दक्षिण भारत की बुलंद आवाज की कमी हमेशा महसूस की जाती रहेगी।

जहां तक तमिलनाडु में अम्मा के बाद की राजनीति का सवाल है तो यह इस बात से तय होगा कि उनके बाद एआईएडीएमके किस तरह से काम करती है? न केवल तमिलनाडु के लोग बल्कि पूरे देश और खासतौर पर विपक्षी दलों की निगाह इसी पर लगी रहेगी। आमतौर पर एक व्यक्तित्व के आभामंडल के इर्द-गिर्द जब कोई राजनीतिक दल राजनीतिक जमीन तैयार करता है तो उसके सामने इसी तरह की परेशानियां आती हैं।

जयललिता एआईएडीएमके के लिए करिश्माई व्यक्तित्व रहीं। वही पार्टी की सोच थीं और वही पार्टी का चेहरा। उनके आगे पार्टी के सारे नेता बौने नजर आते हैं। कोई एक ऐसा नेता नहीं जिसका प्रभाव पूरे तमिलनाडु पर हो। कोई विकसित ही नहीं हो पाया। पार्टी के जितने भी नेता हैं, उनका अपने चुनाव क्षेत्र से बड़ा शायद ही कोई दायरा हो। ऐसा कोई नेता नजर नहीं आता जो अपने दम पर तमिलनाडु में पार्टी को चुनाव जिता सके। खुद उन्हें भी जयललिता के चेहरे की ही आवश्यकता होती रही है। ऐसा इसलिए लगता है कि जयललिता के बिना पार्टी का कोई वजूद ही नही।

किसी भी राजनीतिक दल को लंबे समय तक चलने के लिए दूसरी पंक्ति के नेताओं को विकसित करना होता है लेकिन एआईएडीएमके में ऐसा हो ही नहीं सका। क्षेत्रीय दलों की त्रासदी ऐसी ही है। ऐसे दलों के आगे बढऩे के लिए पारिवारिक विरासत की जरूरत होती है लेकिन जयललिता के साथ ऐसा भी नहीं है।

अब पार्टी की जिम्मेदारी उन्हीं लोगों पर होगी जो अम्मा के नजदीकी और उनके विश्वास पात्र रहे यानी उनकी करीबी दोस्त शशिकला नटराजन और ्रओ. पन्नीरसेल्वम, जो उनकी अनुपस्थिति में मुख्यमंत्री बने। तात्कालिक तौर पर तमिलनाडु की राजनीति और सरकार को देखें तो उसे फिलहाल किसी किस्म का खतरा नहीं है। राजनीति तो उसी तरह से चलती रहेगी जैसी कि चलती रही है। यह तो जयललिता के राजनीति में आने से पहले भी चल रही थी और उनके बाद भी चलती ही रहने वाली है। रही बात, एआईएडीएमके की, सरकार तो उसके पास विधानसभा में पर्याप्त बहुमत है। जयललिता के दम पर एआईएडीएमके के पास 234 में 136 सीटें हैं और उसकी प्रमुख प्रतिद्वंद्वी पार्टी डीएमके के पास 98 सीटें हैं। ऐेसे में अम्मा की पार्टी की सरकार को फिलहाल किसी किस्म का खतरा नजर नहीं आता है। और, कुछ समय तो सरकार जयललिता के निधन और उनकी सहानुभूति के आधार पर काम करती रहेगी।

धीरे-धीरे स्थितियां सामान्य होंगी और प्रशासन जयललिता के बाद सरलता से चलने लगेगा तब उनकी राजनीतिक विरासत को लेकर घमासान शुरू होने की आशंका जरूर है। मोटे अनुमान के मुताबिक नौ महीने या साल भर तक तो सब कुछ सामान्य चल सकता है। देर-सवेर पार्टी में कलह तो तय है। यद्यपि साल भर की अवधि और अधिक भी खिंच सकती है यदि अम्मा की गहरी दोस्त शशिकला बैकरूम से ही पार्टी को संभाले रहें तो..! दरअसल, खुद शशिकला जननेता नहीं है।

पार्टी में उनका वजूद जयललिता की नजदीकी दोस्त होने के कारण अधिक रहा है। हो सकता है कि उनके समर्थन में कुछ पार्टी विधायक हों लेकिन इनकी संख्या 20-25 से अधिक नहीं है। यही हाल पन्नीरसेल्वम का भी है। अम्मा की राजनीतिक विरासत संभालने के लिए कोई तीसरा नेता भी खड़ा हो सकता है। ऐसे में यदि शशिकला पार्टी को ही संभालने की कोशिश करें, तो पार्टी सत्ता में बनी रह सकेगी लेकिन उन्होंने सत्ता में आने की कोशिश की तो बहुत संभव है कि पन्नीरसेल्वम ही अपनी कुर्सी बचाने के लिए उनके सामने खड़े हो जाएं।

यह भी हो सकता है कि तमिलनाडु विधानसभा भंग करके फिर से चुनाव कराने पड़ें। ऐसे में पार्टी के सामने ऐसे चेहरे को लेकर चुनौती होगी और यह चेहरा एआईएडीएमके के पास फिलहाल नहीं है। अम्मा होंगी नहीं जिनके नाम पर मतदाता भरोसा कर सकें। फिर, वर्तमान हालात से निकलकर पार्टी किस तरह से चली है, इस चुनौती का सामना तो करना ही होगा। ऐसे में किसी सहानुभूति का लाभ पार्टी में किसी को नहीं मिलने वाला। फिलहाल एआईएडीएमके पास जयललिता की राजनीतिक सोच के साथ आगे बढऩे के अलावा रास्ता नहीं है। यही बेहतर भी है।
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