पिछले लोकसभा चुनाव में
उत्तर-पूर्व के राज्यों में औसतन 80 प्रतिशत मतदान हुआ था। जो इस बात का गवाह है कि
उत्तर-पूर्व के राज्यों में देश की मुख्यधारा से जुड़ने की अपूर्व ललक विद्यमान है।
उम्मीद है कि मोदी सरकार की “लुक ईस्ट पॉलिसी” के पीछे ऎसी ही भावना काम कर रही है,
जिसको साकार करने के दिशा में नगा शांति समझौता किया गया है। उत्तर-पूर्व के शेष
देश से पूरी तरह एकीकृत नहीं हो पाने के पीछे एक वजह उग्रवाद की समस्या भी है। अगर
सरकार उग्रवाद पर काबू पा लेती है तो वह दिन दूर नहीं जब इस क्षेत्र में विकास की
भूमि पर खड़ा भारत पड़ोसी राष्ट्रों से भी बेहतर संबंधों की ओर बढ़ सके। इसी पर
केंद्रित है आज का स्पॉटलाइट…
अब दें सीमा सुरक्षा पर ध्यान
प्रो.
बी.आर. दीपक जेएनयू
नेशनलिस्ट सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालैंड (आईएम) यानी
एनएससीएन के साथ भारत सरकार ने शांति समझौता किया है और फिलहाल इसका पूरा मसौदा
सामने नहीं आया है। फिर भी इस शांति समझौते का सबसे बेहतर पहलू यह है कि हम खापलांग
समूह को अलग रख पाए हैं जो हमारे लिए बड़ी समस्या का कारण रहा है। शांति समझौता न
केवल अच्छी शुरूआत है बल्कि इसके दीर्घकालीन लाभ हमें मिल सकते हैं। हमें अब अपनी
सीमा सुरक्षा और तस्करी को रोकने के लिए ठोस प्रयास करने होंगे
हथियार
तस्करी
नगालैंड या कहें कि पूर्वोत्तर राज्यों के विद्रोही समूहों में खापलांग
समूह यूं तो अलग-थलग ही है और यह म्यामांर के सुदूर घने जंगलों में रहकर
कार्रवाइयों को अंजाम देता रहा है। ऎसा समझा जाता है कि हथियारों और मादक पदार्थो
की तस्करी उन इलाकों से ही होती है, जहां यह समूह सक्रिय है। पिछले दिनों डोगरा
रेजीमेंट पर हमला हुआ जिसमें हमारे 18 जवान शहीद हुए थे, उसमें इसी समूह का हाथ था।
यहां यह भी उल्लेखनीय है कि चीन के दक्षिण पश्चिम प्रांत युन्नान से म्यांमार के दो
क्षेत्र काचीन और कोकांग जुड़े हुए हैं। इन दोनों पर ही चीन का खासा प्रभाव है।
काचीन की तो स्वंतत्र आर्मी भी है और कोकांग के नेतृत्व पर म्यांमार का कोई
नियंत्रण नहीं है। अफगानिस्तान के बाद यदि मादक पदार्थो की तस्करी का यही बड़ा
क्षेत्र है। यदि यह विद्रोही समूह इस शांति समझौते से अलग है, निस्संदेह अन्य
समूहों से शांति समझौते का लाभ भारत को मिलेगा। एक ओर विद्रोही संगठनों के साथ
शांति समझौता और दूसरी ओर यदि पूर्वी सीमा से होने वाले हथियारों व मादक पदार्थो की
तस्करी पर लगाम लगे तो हमारे यह बड़ी सफलता होगी।
चीन से सीमा विवाद अलग
रखें
यह कहना ठीक नहीं है कि जब तक चीन के साथ का सीमा विवाद हल नहीं होता,
नगालैंड की समस्या का कोई निदान नहीं निकलेगा। 1981 से अब तक चीन के साथ सीमा विवाद
पर 39 बैठकें हो चुकी हैं लेकिन सभी बेनतीजा रही हैं। तब से लेकर अब तक चीन की
रणनीति और आर्थिक स्थितियों में बहुत अंतर आ गया है। हालांकि भारत के रूख में बदलाव
आया है लेकिन अब पहले वाली स्थिति नहीं रह गई है। ऎसे मे भारत को एनएससीएन (आईएम)
समूह के साथ शांति समझौते का लाभ लेने के लिए, हथियारों व मादक पदार्थो की तस्करी
के रास्ते बंद करने होंगे।
जरूरी यह हो गया है कि भारत अपने पड़ोसी तीनों देश
बांग्लादेश, चीन और म्यांमार के साथ संयुक्त रूप या फिर द्विपक्षीय रूप से समझौते
करे। इस तस्करी को रोकने और सुरक्षा के लिए ठोस कदम उठाने के प्रयास करने चाहिए और
खासतौर पर खापलांग समूह को अलग रखने की कोशिश जारी रखनी होगी। सीमा विवाद को
सुलझाने के प्रयास एक ओर चलते रहें लेकिन इस सीमा से होने वाले तस्करी और आतंकी
घटनाओं पर लगाम के लिए सुरक्षा समझौते किए जाने चाहिए।
एक्ट ईस्ट
पॉलिसी
भारत की नॉर्थ ईस्ट पॉलिसी जिसे मोदी सरकार वर्तमान में एक्ट ईस्ट पॉलिसी
कह रही है, उसमें तेजी लाने की आवश्यकता है। अभी तक होता यह रहा है कि जब भी उत्तर
पूर्व के राज्यों को देश की मुख्यधारा से जोड़ने के प्रयास किए गए वे जितनी तेजी के
साथ शुरू हुआ, दुर्भाग्य से उतनी तेजी के साथ धीमे भी पड़ गए। मोदी सरकार से
अपेक्षा है कि वह एक्ट ईस्ट पॉलिसी के तहत शांति समझौते के बाद उत्तर पूर्वी
राज्यों में आधारभूत सुुविधाएं उपलब्ध कराने की कोशिश करे, जिसमें वह पिछड़ा हुआ
है। वहां पर रोजगार के साधन मुहैया कराए और विकास पर अधिकाधिक जोर दे। इससे इस
क्षेत्र के लोग न केवल शेष भारत के साथ जुड़ पाएंगे बल्कि चीन सीमा पर भारत की ओर
से सुरक्षा की तैयारी मजबूत होगी।
शांति समझौते का सार
मोदी सरकार और
एनएससीएन -आईएम के बीच समझौते का पूर्ण ब्योरा यद्यपि अभी सार्वजनिक नहीं है पर यह
करार कई दृष्टियों से अहम माना जा रहा है। माना जा रहा है कि समझौते में एनएससीएन
एक ऎसी प्रक्रिया की स्थापना के लिए लिए सहमत हुआ है जिसमें क्रमश: हथियार रखने
जैसे संवेदनशील मुद्दें पर आगे बढ़ने की बात है। साथ ही एनएससीएन ने सैद्धंातिक तौर
पर संप्रभुता तथा राज्यों की सीमाओं के पुनर्रेखांकन की अपनी मांग छोड़ दी है।
शांति वार्ता में विभिन्न संगठनों और सिविल सोसायटी के 19 शीष्ाü नगा नेता शामिल
रहे। संभव है कि नगाओं को स्वशासन की दिशा में कुछ और अधिकार मिलें। समझौते के
अनुसार सीज-फायर 27 अप्रेल 2016 तक रहेगा। पर शांति वार्ता में तीन महत्वपूर्ण नगा
संगठन शामिल नहीं हुए। ये संगठन हैं एनएससीएन – खपलांग, एनएससीएन केके और
रिफॉर्मेशन गुट।
बनते-बिगड़ते रहे संबंध
नगा प्रतिरोध के पहले संकेत तब
मिले थे जब 1918 में “नगा क्लब” का गठन किया गया, जिसने 1929 में साइमन कमीशन से
साफ कह दिया था कि “उन्हें पुरातन काल में अकेला छोड़ दिया जाए।”
1946 में
नगा नेशनल काउंसिल का गठन। अंगामी फिजो के नेतृत्व में 14 अगस्त 1947 को नगालैंड
में “संप्रभु नगा राज्य” की स्थापना को लक्ष्य घोçष्ात किया। 1952 के पहले चुनाव का
बहिष्कार।
11 नवंबर 1975 में एनएनसी के एक गुट से शिलांग समझौता। यह गुट
हथियार रखने को राजी हुआ। पर थुइंगालेंग मुइवा के नेतृत्व में नगा नेताओं के एक
गुट, जो समझौते के समय चीन में था, ने इसे नहीं माना।
1997 से 2007 के बीच कई
बार हुए आईएम गुट से सीज-फायर समझौता। प्रधानमंत्री वाजपेयी को मिली नगाओं के बीच
विशेष लोकप्रियता। उन्हें वार्ता के लिए दिल्ली लाने में सफल हुए।
वर्तमान
नगालैंड
भारत के 16 वें राज्य के रूप में 1 दिसंबर 1963 को गठन के पूर्व नगालैंड
क्षेत्र की पहाडियां राजनीतिक रूप से असम का भाग थीं। नगालैंड में 11 जिले हैं
जिनमें 16 जनजातियां रहती हैं। एक दूसरे से अलग इन जनजातियों में कई स्वायत्तशासी
प्रशासनिक इकाई भी हैं। राज्य की 90 प्रतिशत आबादी ईसाई है। एनएससीएन-आईएम की मांग
है कि असम, मणिपुर, अरूणाचल प्रदेश के कुछ नगा बहुल जिलों और बर्मा का भी कुछ
हिस्सा मिलाकर एक “वृहद नगालिम” राज्य बने। इस वृहद नगालिम राज्य का क्षेत्रफल लगभग
1 लाख 20 हजार वर्ग किमी होगा, जबकि वर्तमान नगालैंड का क्षेत्रफल 16,579 किमी तथा
आबादी लगभग 25 लाख है।
“वृहद नगालिम” की मांग पर पांच बार मुहर
वृहद नगालिम
की स्थापना की मांग को कितना लोकप्रिय समर्थन हासिल है इसका अंदाजा इस बात से लग
सकता है कि नगालैंड की विधानसभा अब तक पांच बार क्रमश: दिसंबर 1964, अगस्त 1970,
सितंबर 1994, दिसंबर 2003 तथा 27 जुलाई 2015 को नगालिम की मांग पर अपनी मुहर लगा
चुकी है। इसलिए जब भी कोई सरकार नगाओं से शांति समझौता की बात करती है, तो अन्य
सरकारों जैसे मणिपुर, अरूणाचल और असम के नेताओं की सतर्क निगाहें भी इस पर रहती
हैं, विशेष्ाकर राज्य की सीमा के पुनर्रेखांकन के मुद्दे को लेकर। हालिया करार को
लेकर फिलहाल कुछ पेचीदगियां भी हैं।
पूर्वोत्तर पर 5 प्रमुख
नीतियां
नेहरू-एलविन नीति
आजादी के पहले डेढ़ दशक में पूर्वोत्तर को
लेकर अपनाई नेहरू-एलविन नीति से पूर्वोत्तर में प्रशासनिक गतिविधियों को विस्तार
मिला। आदिवासी इलाकों पर फोकस रहा। 50 के दशक में पं. नेहरू ने महसूस किया कि
पूर्वोत्तर के लोगों को शेष भारत के साथ मिलाने के लिए पूर्वोत्तर के राजनीतिक
समावेश से परे आदिवासी नीति की ज्यादा जरूरत है। वेरियर एलविन ने भारतीय आदिवासी
नीति को हकीकत बनाने में अहम योगदान दिया।
चीन से हार के बाद
चीन से
हार के बाद भारत को अहसास हुआ कि किसी क्षेत्र को नजरंदाज करना कितना भारी पड़ सकता
है। नेहरू-एलविन की नीति को कठघरे में खड़ा किया गया। युद्ध खत्म होने के बाद यह
पाया गया कि पूर्वोत्तर के कई इलाकों में प्रशासनिक मौजूदगी संतोषजनक नहीं थी।
युद्ध में हार के बाद केंद्र ने पूर्वोत्तर पर सुरक्षा के लिहाज से गौर किया जाने
लगा। नेहरू और एलविन के बाद पूर्वोत्तर राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक एकीकरण की
नीति अपनाई गई।
राजनीतिक प्रतिनिधित्व
भारत की आजादी के बाद पूर्वोत्तर
के कई इलाकों ने स्वायत्तता व स्वतंत्रता की मांग की थी। इसके मद्देनजर वहां की
तमाम नस्ली, सांस्कृतिक व राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को लोकतंात्रिक भागीदारी से
पूरा करने की नीति बनी। अविभाजित असम की राजनीतिक सरहदों का पुनर्सगठन हुआ। 1963
में नगालैंड बना। इसके बाद 1971 में मेघालय। साथ ही दो केंद्र शासित प्रदेश मिजोरम
और अरूणाचल प्रदेश भी बने। मणिपुर व त्रिपुरा भी राज्य बने।
डेवलपमेंट
पैराडाइम
80 के दशक में केंद्र ने पूर्वोत्तर के विकास के लिए डेवलपमेंट
पैराडाइम नामक नीति बनाई। इसमें विकास संस्थाओं का गठन कर निवेश से क्षेत्र की
विभिन्न समस्याओं हल प्रस्तावित किया।
लुक ईस्ट नीति
पूर्वोत्तर
राज्यों की सीमाएं विभिन्न पड़ोसी देशों से लगने के कारण यहां के आर्थिक विकास को
तरजीह की मांग उठी। विशेषज्ञों के अनुसार, पूर्वोत्तर का भारत से राजनीतिक एकीकरण
और शेष एशिया से आर्थिक एकीकरण जरूरी है।
विकास की नई राह खोलेगा
समझौता
पी.के. मिश्रा सेनि. एडीजी बीएसएफ
नगालैंड की समस्या काफी
पुरानी है। 1980 में शिलांग समझौता भी हुआ लेकिन इस समझौते की अनुपालना नहीं हो
सकी। एक बडा कारण तो विद्रोही संगठनों के बीच एका नहीं होना रहा। खासतौर पर
एनएससीएन समूह में का गुटों में बंटे होने से भी समस्या जस की तस बनी रही। पूर्व
गृह सचिव के.पkनाभैया उत्तर पूर्वी राज्यों के विद्रोही संगठनों के साथ निरंतर
बातचीत करते रहे। उनकी करीब 25 बरसों की मेहनत को फलीभूत किया हमारे प्रमुख
वार्ताकार आर.एन. रवि और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल ने। शांति समझौते का
सारा श्रेय इन दोनों और निस्संदेह एनएससीएन के नेता थुइंगालेंग मुइवा को जाता
है।
उल्लेखनीय है कि एनएससीएन के खपलांग समूह ने अप्रेल 2015 में शांति प्रयासों
से खुद को अलग कर लिया था। उत्तरी नगालैंड खासतौर पर सीमावर्ती क्षेत्र में मणिपुर
का उक्रूल क्षेत्र में उनका प्रभाव अधिक था। उनका मुख्यालय म्यांमार में काचीन हिल
क्षेत्र में है।। वे शांति समझौते के लिए तैयार नहीं है। सिर्फ में नगालैंड का
क्षेत्र ही नहीं लेकिन मणिपुर के क्षेत्र तमिंगलोंग, उख्रूल, सेनापति, चंदेल,
चुराचांदपुर इन जिलों में नगाओं की संख्या मणिपुरियों के मुकाबले अधिक है। यहां पर
इस समूह का विशेष प्रभाव रहा है।
यह समूह अपने प्रभाव का इस्तमाल करते हुए मणिपुर
में दीमापुर से कोहिमा तक रोड को बंद कर दिया करता था। लेकिन, इस शांति समझौते में
खपलांग समूह अलग-थलग कर दिया गया है इसलिए अब यह रोड बंद नहीं किया जाएगा। इसका
जमीनी असर केवल नगालैंड नहीं बल्कि मणिपुर के साथ मिजोरम और अरूणाचल प्रदेश पर भी
दिखाई देगा। ऎसा इसलिए होगा क्योंकि एनएससीएन (आईएम) काफी बड़ा समूह है। नगा हिल्स
और त्वेनसांग की ओर से मणिपुर में होने वाले उपद्रवों पर भी लगाम लगेगी। अब यदि इस
शांति समझौते के बाद नगालैंड और मणिपुर की ओर म्यांमार से सड़क संपर्क भी जुड़ गया
तो खपलांग समूह और उसके सहयोगी उल्फा संगठन को खासा धक्का लगेगा।
सरकार ने एक्ट
ईस्ट पॉलिसी के तहत पूर्वोत्तर राज्यों के विकास के लिए प्रयास शुरू किए हैं। अब
नगालैंड ही नहीं समूचे पूर्वोत्तर राज्यों के लोग खुद जो भारतवासी मानते तो हैं
लेकिन जुड़ाव नहीं रखते वे भी इस धरती से जुड़ जाएंगे।