सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की धारा 66 (ए) को सर्वोच्च न्यायालय ने
अभिव्यक्ति के मौलिक अधिकार का उल्लंघन और असंवैधानिक बताते हुए खारिज कर दिया है।
साइबर उत्पीड़न या मानहानि आदि से जनता को राहत दिलाने के नाम पर जोड़ी गई धारा
जनता पर ही अंकुश लगाने का जरिया बनती जा रही थी। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद अब
इंटरनेट पर टीका-टिप्पणी करने वालों पर धारा 66(ए) की तलवार तो नहीं लटकेगी, पर
इसका जवाब मिलना शेष है कि बढ़ते साइबर अपराध, साइबर छेड़छाड़ आदि पर काबू कैसे
किया जा सकेगा? इसी पर पढिए आज के स्पॉटलाइट में जानकारों की राय।
66 ए के तहत किसी की
गिरफ्तारी का विवेकाधिकार पुलिस पर ही छोड़ दिया गया था। सब कुछ उसी पर निर्भर करता
था कि सम्बंधित टिप्पणी आपत्तिजनक/ अपमानजनक है या नहीं। इस धारा में कहा गया था कि
ऎसी टिप्पणियां जो किसी को डराने-धमकाने, बेइज्जती करने या घृणा, भ्रम फैलाने के
लिए जिम्मेदार हों, अपराध को बढ़ावा दें या किसी को नुकसान पहुंचाएं तो उन पर
कार्रवाई होगी।
सरकार ने तर्क दिया था कि यूके के सेक्शन 127 (1)(बी) को ही
उसने पूरी तरह से लागू किया है और यह वहां सफलतापूर्वक लागू है। पर यूके में यह
भारत जितना कड़क कानून नहीं है। वहां 6 महीने की सजा और लगभग 5 हजार पॉन्ड का
जुर्माना है जबकि भारत में तीन साल की सजा और असीम जुर्माना कर दिया गया।
भारत में
यूके के कानून की नकल करते वक्त ज्यादा स्पष्टता और सोच-विचार नहीं किया गया। इसमें
यह परिभाषित भी नहीं किया गया कि अपमानजनक टिप्पणियां किसे माना जाएगा? सुप्रीम
कोर्ट ने भी इसी के मद्दनेजर इस धारा को खत्म किया है। पूरे भारत में उत्तरप्रदेश,
कर्नाटक, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र जैसे राज्यों में ऎसी कई घटनाएं सामने आईं, जहां
सोशल मीडिया पोस्ट को तथाकथित अपमानजनक टिप्पणी मानकर उपयोगकर्ता को गिरफ्तार कर
लिया गया। अब उस व्यक्ति को इस टिप्पणी के अपमानजनक न होने के लिए कोर्ट में ही
लड़ना पड़ता था। कई मर्तबा इस धारा का राजनीतिक दुरूपयोग भी देखने कोे मिला। इसमें
कोई दो राय नहीं है कि 66-ए का इस्तेमाल सोशल मीडिया पर अभिव्यक्ति की आजादी के
खिलाफ हुआ।
बेगुनाह तो बचेंगे पर…
दरअसल, इस कानून को शुरूआत में ही हमें
सही ढंग से परिभाषित कर लेना चाहिए था, जो कि नहीं किया गया। न्यायपालिका की
शुरूआती स्तर पर ही सक्रिय भूमिका रखनी चाहिए थी किस टिप्पणी पर गिरफ्तारी होनी
चाहिए, जैसा कि यूके में होता है। पर इस धारा के खत्म होने से अभिव्यक्ति की आजादी
के पक्ष में हमें खुश नहीं हो जाना चाहिए।
अब ज्यादा चुनौतीपूर्ण स्थिति हो गई है,
जिसके लिए सरकार की ढिलाई जिम्मेदार होगी। चूंकि भारत में ऑनलाइन साम्प्रदायिक
सौहार्द बिगाड़ने, आतंकवाद का महिमामंडन करने वालों की तादाद बढ़ती जा रही है। साथ
ही लोगों की निजी जिंदगी से जुड़ी तस्वीरों से छेड़छाड़, टिप्पणियां भी आम हो गई
हैं। 66-ए में यह भी प्रावधान था कि महिलाओं की अभद्र तस्वीरें या गलत टिप्पणी
पोस्ट करने वालों को गिरफ्तार करने का प्रावधान था।
अब यह धारा खत्म होने से ऎसे
में सिस्टम के लिए ज्यादा बड़ी चुनौती होगी कि इन लोगों से कैसे निपटा जाए? पुलिस
के पास अब न तो न्यायपालिका के दिशानिर्देश हैं। न सरकार का कानून रहेगा तो अब क्या
होगा? ऎसे लोगों को ट्रैक करने के लिए पुलिस को लम्बी प्रक्रिया से गुजरना पड़ेगा।
इस धारा के खत्म होने से बेगुनाह तो इसके दुरूपयोग का शिकार नहीं होंगे पर गुनहगार
भी बचें रहेंगे। जो लोग इस किस्म के ऑनलाइन अपराध के शिकार हो रहे हैं, वे अब कहां
जाएंगे? यह दुविधा सरकार के सामने पेश होगी।
सुरक्षा का मॉडल ही नहीं
सरकार
को फौरन आईटी एक्ट में व्यापक बदलाव करना चाहिए। 2009, 2010 और 2013 में संशोधन किए
गए हैं पर इतनी बड़ी तादाद में साइबर मुकदमे दर्ज हो रहे हैं। लोग त्रस्त हैं पर
पुलिस नाकाम ही रहती है। असल में हमारे पुलिसिया तंत्र को आईटी अपराधों का मुकाबला
करने का प्रशिक्षण ही नहीं है। अमरीका और चीन से हमारे संस्थानों को हमेेशा खतरा
बना रहता है। हैरत की बात यह है कि ऑनलाइन दुनिया में सुरक्षित रहने के लिए हमारे
पास कोई मॉडल ही नहीं है। न ही आईटी का कोई इंफ्रास्ट्रक्चर है। इसी से सरकार की
गंभीरता का अंदाजा लगाया जा सकता है।
यही बात न्यायपालिका ने इंगित की है कि जब
सरकार का कानून ही स्पष्ट नहीं है तो किसी को भी गिरफ्तार कैसे कर सकते हैं। 66-ए
खत्म होने के बाद तो अब एक तरह से अपराध से आंखें ही मूंद ली जाएंगी। अगर इस कानून
में स्पष्टता पर ध्यान दिया जाता और इसका दुरूपयोग नहीं होता तो इस धारा के खत्म
होने की नौबत नहीं आती। यूके के कानून की दलील दी गई पर उस कानून को भी हमने
कांट-छाट के साथ लागू किया जिसका खामियाजा भुगतना पड़ा है।
खतरा बड़ा
है
पहले ही हमारे देश में आईटी एक्ट की कमर टूटी हुई है। न्यायपालिका के निर्णय
के बाद तो अब यह धराशाई ही हो गया है! पर कोर्ट की भी जिम्मेदारी है कि वह बेगुनाह
को न फंसने दे। उसने इस दिशा में यह निर्णय दिया है। पर अब सरकार की जिम्मेदारी बढ़
गई है कि वह एक मजबूत कानून के साथ आए।
आज आईएसआईएस जैसे आतंककारी संगठन ऑनलाइन
अपनी जमात को बढ़ा रहे हैं। टि्वटर, फेसबुक पर वो युवाओं को फंसा रहे हैं। सरकार के
पास इन्हें प्रभावी तरीके से रोकने के इंतजाम नहीं हैं। अब किसी धर्म, सम्प्रदाय या
निजी तौर पर की गई टिप्पणी के पक्ष में कहा जाएगा कि यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
है।
इसमें संतुलन कैसे स्थापित होगा, यह बड़ा सवाल पैदा हो गया है। राष्ट्रीय
एकता-अखंडता और साम्प्रदायिक सौहार्द जैसे नाजुक विषय पर चिंता बढ़ना लाजिमी है। पर
यह कोर्ट के निर्णय से नहीं हुआ बल्कि सरकार की आईटी एक्ट को लेकर अगंभीरता के कारण
हुआ है। सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बाद बहुत “विन-विन सिचुएशन” किसी के लिए भी
नहीं रही। बात सिर्फ 66-ए की ही नहीं है। अभी ऎसी धाराओं की कमी नहीं है, जो
अप्रचलित हो गई हैं, उनमें भी संशोधन की सख्त जरूरत है।
बहुत पीछे हैं हम
जब
मैं दूसरे देशों में जाकर आईटी कानून को देखता हूं तो हमारे कानून बाबा आदम के
जमाने के लगते हैं। अमरीका और यूके जैसी जगहों पर तो “ऑन लाइन टे्रकिंग” होती है।
वहां आईटी अपराधों के लिए न्यायालय की कार्रवाई बहुत तीव्र है। ऎसे अपराधों के लिए
पुलिस गिरफ्तार भी नहीं करने आती। कोर्ट से ही कार्रवाई होती है। वहां आपत्तिजनक,
अपमानजक और मानहानि के लिए बहुत स्पष्ट उल्लेख किया गया है कि कौन-सी टिप्पणी इनके
दायरे में होगी और कौन-सी नहीं। बिडम्बना यह है कि हम बाहरी देशों को भरपूर आईटी
सेवाएं प्रदान कर रहे हैं पर हमारा आईटी कानून पिछड़ा हुआ है।
अभिषेक धाभाई आाईटी विशेषज्ञ
मानवाधिकार
के पक्ष में
मानविधकारों के समर्थन में
सुप्रीम कोर्ट ने यह बहुत ही लंैडमार्क निर्णय दिया है। 107 पेजों में दिए गए इस
निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि आईटी एक्ट की धारा 66 (ए) असंवैधानिक
है। न्यायालय ने कहा कि इस धारा में ऎसे संदेशों या अभिव्यक्ति को आपराधिक बताया
गया है जिनका कोई दायरा ही निश्चित नहीं किया जा सकता है।
जिनकी कोई सीमा ही नहीं
है। किसी को नाराज करने वाले संदेश भेजना, चिढ़ाना, अपमान करना या असुविधा पैदा
करना आदि ऎसे संदेशों को इस धारा में आपराधिक और दंडनीय बताया गया है। यह पाबंदियां
तो भारत के संविधान द्वारा अनुच्छेद 19 में दिए गए अभिव्यक्ति के मौलिक अधिकार का
उल्लंघन हैं।
भारत के संविधान में अनु. 19 के उपबंध 2 में जिन आठ मामलों जैसे
मानहानि, अश्लीलता, नैतिकता या अश्लीलता, देश द्रोह, अवमानना, शांति भंग को
रेखांकित किया गया है, जिनके आधार पर राज्य अभिव्यक्ति के अधिकार पर प्रतिबंध के
लिए कानून बना सकता है, धारा 66 (ए) में उठाए गए विषय इनमें से किसी के अंतर्गत
नहीं आते हैं। जबकि धारा 66 (ए) में तो अश्लीलता या नैतिकता शब्द का भी उल्लेख नहीं
है। इसलिए सर्वोच्च न्यायालय ने साफ कहा है कि आईटी एक्ट की धारा 66 (ए) में उठाए
गए विषय अत्यंत अस्पष्ट हैं, अपरिभाषित हैं, साथ ही यह धारा संविधान प्रदत्त
अभिव्यक्ति के अधिकार का उल्लंघन है।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि धारा 66 (ए) के
आधार पर तो यह बताना भी मुश्किल है कि किस काम को अपराध मानें और किस को नहीं। साथ
ही सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि हम एक लोकतांत्रिक समाज में रहते हैं और ऎसे मे हमे
असहमति के प्रति उदार रवैया अपनाना चाहिए। पर धारा 66 (ए) तो असहमति के लिए कोई
गुंजायश ही नहीं छोड़ती। सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी कहा कि लोकतंत्र “विचारों को
एक बाजार मंच” भी होता है। जबकि धारा 66 (ए) इस पर अंकुश लगाती है। इस लिहाज से
देखें तो कोई शक नहीं कि सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय को इतिहास के सुनहरे पन्नों
में दर्ज किया जाएगा।
प्रशांत नारंग,वकील,सुप्रीम कोर्ट
युवाओं को मिली राहत
सर्वोच्च न्यायालय ने बहुत समय बाद नागरिकों के हित में ऎतिहासिक
फैसला दिया है। दुनिया के किसी भी स्वतंत्र और लोकतांत्रिक देश में इस तरह के फैसले
का स्वागत ही किया जाएगा। इस फैसले के बाद न्यायाधीश जे.चेल्मेश्वर और आर. एफ..
नरीमन से उम्मीदें बहुत अधिक बढ़ गई हैं कि वे इसी तरह के फैसलों से देश के
नागरिकों को आल्हादित करते रहेंगे।
इसलिए हटाया यह कानून
जब यह कानून लाया
गया था, तब यह सोचा गया था कि इस कानून के माध्यम से लोगों को इंटरनेट पर आपत्तिजनक
सामग्री लिखने और दिखाने से रोका जा सकेगा। इसके सिर्फ दुरूपयोग की आशंका ही थी
लेकिन यह आशंका सही साबित हुई। सूचना प्रौद्योगिकी कानून की धारा 66 ए का राजनीतिक
और पुलिसिया दुरूपयोग बहुत अधिक बढ़ गया। इस धारा में आक्रामक भाषा का इस्तेमाल
करने पर गिरफ्तारी का प्रावधान था लेकिन इस आक्रामक भाषा को सही तरीके से पारिभाषित
कर पाना कठिन होने से, सही और अच्छे लोगों को भी परेशान किया जाने लगा था। जरा
सोचिए कि कोई मुंबई बंद के लिए यह लिखे कि ऎसा होना गलत है और उसे गिरफ्तार कर लिया
जाए, ममता बनर्जी का कोई चित्र बनाए और उसे गिरफ्तार कर लिया जाए या फिर आजम खान के
खिलाफ कोई व्यक्ति टिप्पणी करे और उसे गिरफ्तार कर लिया जाए, तो ऎसे में
अभियव्यक्ति की स्वतंत्रता देश में कहां रह गई? यही बात न्यायालय भी कह रहा है कि
सूचना प्रौद्योगिकी कानून की धारा 66 ए असंवैधानिक है।
इससे संविधान के अनुच्छेद 19
के तहत प्रदत्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का हनन होता है। सोशल मीडिया के
माध्यम से व्यक्ति अपने निजी विचारों को अभिव्यक्त करता है। यदि वह कम लोकप्रिय
व्यक्ति के बारे में बात करता है तो उसका असर कम होता है और अधिक लोकप्रिय व्यक्ति
के बारे में बात करता है तो उसका असर कुछ व्यापक हो जाता है। लेकिन, उसे किसी के भी
बारे में अपनी राय रखने का अधिकार है और यह अधिकार उसे संविधान ने दिया है। जहां तक
आपत्तिजनक अभिव्यक्ति की बात है तो यह हर परिस्थिति में ठीक नहीं है।
न्यायालय का
यही कहना है कि आपत्तिजनक टिप्पणियां करने से कानून व्यवस्था की स्थिति बिगड़ती है
तो उसे भारतीय दंड संहिता की धारा के तहत कार्रवाई करने योग्य माना जा सकता है। भले
ही ये टिप्पणियां सोशल साइट पर ही क्यों ना की गई हों। यानी, आपत्तिजनक टिप्पणियां
करने का अधिकार किसी को भी नहीं है। सोशल साइट पर भी यदि कोई ऎसा करता है तो उसके
लिए सूचना प्रौद्योगिकी कानून की धारा 66 ए की बजाय भारतीय दंड संहिता की धारा के
तहत कार्रवाई की जाएगी। कानून अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तो देता है लेकिन किसी को
भी अन्य की भावनाएं आहत करने का अधिकार नहीं देता।
युवा हो रहे थे
प्रभावित
भारत में सोशल मीडिया पर अभिव्यक्त करने का चलन बहुत अधिक हो गया है।
दुनिया में सबसे अधिक युवा भारत में ही हैं और वे सोशल मीडिया का सबसे अधिक
इस्तेमाल करते हैं। सूचना प्रौद्योगिकी कानून की धारा 66 ए वास्तव में देश के युवा
वर्ग के लिए खतरा बन गई थी। वे निजी विचार व्यक्त करते हुए जरा सी भी किसी पर
टिप्पणी करें तो उनके खिलाफ सीधे इस धारा में घसीटे जाने का खतरा बन जाता था। अनेक
उदाहरण इस आशय के मिल भी रहे थे। लेकिन अब इस फैसले से देश में नई ऊर्जा देखने को
मिल रही है। सर्वोच्च न्यायालय को इसके लिए बहुत-बहुत बधाई।
विवेक तन्खा, पूर्व अतिरिक्त
महाधिवक्ता
संतुलित
फैसला
आईटी एक्ट की जिस धारा 66 (ए) को सुप्रीम
कोर्ट ने खारिज किया है, उसकी कोई जरूरत ही नहीं थी। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19
में पहले ही ऎसे प्रावधान और पाबंदियां हैं जो अभिव्यक्ति के अधिकार की असीमित छूट
नहीं देते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने बड़ा ही संतुलित फैसला इस मसले पर दिया है।
सुप्रीम कोर्ट ने भी अभिव्यक्ति पर उचित पाबंदी लगाने के राज्य के अधिकार को खत्म
नहीं किया है। पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि इस धारा के बहुत सारे शब्दों के अर्थ
सुपरिभाषित नहीं हैं। उसके क्रियान्वयन के लिए जरूरी कसौटियां और मानदंड निश्चित
नहीं किए गए हैं।
विगत कुछ समय में इस कानून का जिस तरह से दुरूपयोग हुआ है और
बच्चों को, किशोरों को गिरफ्तार किया गया, उससे समाज के सभी हलकों में चिंता थी।
अधिकांश मामले राजनीति प्रेरित रहे हैं। इनमें राज्य ने पुलिस का दुरूपयोग किया,
राज्य मशीनरी का दुरूपयोग किया, लोगों को धमकाया गया। अभी हाल में आजम खान मामले
में पुलिस ने जिस पर कार्रवाई की वह एक बालक था, इसी तरह से मुंबई में बाल ठाकरे की
शव यात्रा मामले में दो किशोरियों को गिरफ्तार किया गया था।
एक को तो सिर्फ इसीलिए
गिरफ्तार किया गया था कि उसने अपनी मित्र की एक पोस्ट को लाइक किया था। इसलिए
सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय स्वागत योग्य है। सुप्रीम कोर्ट ने अभिव्यक्ति की
स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दुरूपयोग को रोकने के राज्य के अधिकार
के बीच संतुलन साधा है।
हमारा संविधान शांति भंग, चरित्र हनन और देशद्रोह जैसे
मामलों में पहले ही अभिव्यक्ति के अधिकार पर उचित प्रतिबंध लगाता है। ऎसे समय में
जबकि हमारे राजनीतिक नेताओं को सहनशील और उदार बनना चाहिए था, वे असहनशील,
तुनकमिजाज, अधिनायकवादी तथा अहंवादी हो रहे हैं। आज जरूरत सहिष्णु और उदार समाज की
है, ऎसे में इस तरह के अनुदार कानूनों की हमारे समाज में कोई जगह नहीं होना चाहिए।
राहुल देव, वरिष्ठ पत्रकार