काश हमारी सरकारें और राजनीतिक दल किसानों को
किसान ही समझते, वोट बैंक नहीं। हर सरकार और राजनीतिक दल किसान हित की बात करते हैं
लेकिन तभी तक जब तक विपक्ष में होते हैं। सत्ता में कोई भी राजनीतिक दल क्यों ना
रहे, किसान को तो परेशान ही होना पड़ता है।
कांग्रेस ने रविवार को नई दिल्ली में
किसान रैली करके मोदी सरकार पर जमकर हमला बोला। पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी और
उपाध्यक्ष राहुल गांधी समेत सभी वक्ताओं के निशाने पर केन्द्र सरकार रही। मुद्दा
किसानों की अपेक्षा पूंजीपतियों को प्रोत्साहन देने का रहा हो या फिर किसानों को
पर्याप्त न्यूनतम समर्थन मूल्य नहीं दिए जाने का या फिर फसल खराबे का मुआवजा कम
देने का, वही बातें दोहराई गई जो विपक्ष में रहते भाजपा जोर-शोर से उठाया करती थी।
दिल्ली का रामलीला मैदान वही था, मुद्दे वही थे, किसानों का दर्द वही था।
अगर कुछ
बदला था तो सिर्फ झंडों का रंग और बैनरों पर लगे नेताओं के फोटो। देश का हर
राजनीतिक दल किसान को अन्नदाता मानता है, उसके उत्थान की बातें करता है, चुनावी
घोषणापत्रों में किसानों के भले की बात भी उठाता है। सवाल यही कि किसानों की तकदीर
फिर भी बदलती क्यों नहीं? क्यों हर साल किसानों को आत्महत्या के लिए मजबूर होना
पड़ता है? आजादी के 68 साल बाद भी किसानों के साथ-साथ देश को इस “क्यों” का जवाब
नहीं मिल रहा तो कारण साफ और सीधा यही माना जाएगा कि किसान ने आज तक किसान के रूप
में अपनी ताकत कभी दिखाई ही नहीं।
एक दल की सरकार से किसान नाराज हुआ तो दूसरे दल
के पाले में जा खड़ा होता है और उससे नाराज हुआ तो फिर पहले वाले के साथ। कांग्रेस
अध्यक्ष ने रैली में कहा कि किसानों की रैली से पार्टी को ऊर्जा मिली है, मिली भी
होगी लेकिन लाख टके का सवाल वही कि क्या इस रैली से किसानों को भी कुछ मिला?
रामलीला मैदान की किसान रैली में सभी वक्ताओं ने किसानों को अब और नजरंदाज नहीं
होने देने की बात कही लेकिन नेशनल क्राइम रिकाड्र्स ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि
2012 में देश भर में 13 हजार 754 किसानों ने आत्महत्याएं की।
जाहिर है उस समय
केन्द्र में कांग्रेस की सरकार थी जो आज दूसरी सरकार को घेर रही है। किसानों के
मुद्दे पर उस समय कांग्रेस सरकार को घेरने वाली भाजपा आज सत्ता में जरूर है लेकिन
किसानों की दशा अब भी जस की तस है। आजादी के बाद से किसानों ने कांग्रेस सरकारें
देख ली, भाजपा राज का स्वाद भी चख लिया और मिली-जुली सरकारों का कामकाज भी देख
लिया। तय उसे करना है कि उसे क्या मिल सकता था और मिला क्या? और इसके लिए क्या
सिर्फ सरकारें ही जिम्मेदार हैं या थोड़ी-बहुत गलती किसानों से भी
हुई?