धर्म और राजनीति के बढ़ते घालमेल से
देश में समस्याओं का अंबार लगा है। पुरानी समस्याओं का समाधान हो नहीं पा रहा कि नई
समस्याएं जन्म लेने लगती हैं। अशिक्षा, बेरोजगारी, महिला उत्पीड़न, आतंकवाद,
नक्सलवाद और सीमा पार चुनौतियां अर्से से सभी सरकारों के समक्ष संकट बनकर उभरती रही
हैं।
हर सरकार इनसे निपटने के वादे भी करती हैं और दावे भी लेकिन हर चुनाव में
घूम-फिरकर यही मुद्दे मतदाताओं को सुनाई पड़ते हैं। पिछले कुछ समय से धर्म में
राजनीति और राजनीति में धर्म के बढ़ते हस्तक्षेप ने सरकारों के समक्ष नया संकट खड़ा
कर दिया है। ताजा संकट मांस की बिक्री को लेकर है। महाराष्ट्र से लेकर उत्तर पूर्व
और कश्मीर से लेकर केरल तक मांस की बिक्री पर विरोध के स्वर गूंज रहे हैं।
जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट के गौमांस की बिक्री के आदेश पर सुप्रीम कोर्ट के दो माह
के लिए रोक लगाने से विवाद और गहरा गया है। सवाल उठता है कि मांस की बिक्री के
मामले में धर्म का हस्तक्षेप क्यों हो? इसमें राजनीति का हस्तक्षेप क्यों हो?
न्यायपालिका का हस्तक्षेप भी क्यों हो? देश में कौन क्या खाता है, यह विवाद का
विष्ाय होना ही नहीं चाहिए। मांस की बिक्री सैकड़ों सालों से होती आ रही है लेकिन
विवाद अब पैदा होने लगे हैं। मामलों को हाईकोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक घसीटा
जाता है। विवाद बढ़ते हैं तो इसके पीछे सीधा-सीधा कारण राजनीति है।
एक ही दल जब एक
राज्य में गौमांस की बिक्री पर चुप्पी साध लेता हो और दूसरे राज्य में इसकी बिक्री
पर हाय तौबा मचाता हो तो क्या माना जाए? गौमांस की बिक्री एक राज्य में सही और
दूसरे राज्य में गलत कैसे हो सकती है? मांस की बिक्री पूरी तरह सामाजिक पहलू है।
इसमें धर्म अथवा राजनीति का हस्तक्षेप हो ही क्यों? राजनीतिक दल तो अपने फायदे के
लिए किसी भी हद तक जाने से संकोच नहीं करते।
राजनेता तो समाज में आग लगाकर
राजनीतिक रोटियां सेंकने की फिराक में हर समय रहते हैं। यह आम आदमी का दायित्व है
कि सामाजिक मुद्दों पर राजनीति और धर्म के “पुरोधाओं” को दूर ही रखे। समय की मांग
भी यही है कि सरकारें अपने काम पर ध्यान दें। मांस की बिक्री जैसे मामलों में क्यों
तो सरकार बीच में पड़े और क्यों न्यायपालिका के बीच में पड़ने की नौबत आए। धर्म,
राजनीति और न्यायपालिका का घालमेल जितना कम होगा, समस्याएं भी उतनी ही कम होंगी।