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आंतरिक सुरक्षा में भरोसेमंद है बीएसएफ

Published: Aug 25, 2016 05:33:00 am

जम्मू-कश्मीर में शांति बहाली के मकसद से एक बार फिर सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ) की तैनातगी की गई है।

J & K

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जम्मू-कश्मीर में शांति बहाली के मकसद से एक बार फिर सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ) की तैनातगी की गई है। सरकार ने संभवत: इस सम्बन्ध में कोई नीतिगत फैसला लिया है कि आंतरिक सुरक्षा को लेकर इस फोर्स की तैनाती की जाए। बीएसएफ को 1991 में घाटी में आंतरिक सुरक्षा के लिए तैनात किया गया था। इसके बाद वर्ष 2004 में बीएसएफ को वहां से वापस बुला लिया गया।


जब बीएसएफ को वापस बुलाया गया तब भी मेरे मन में सवाल उठा था कि आखिर इतना बेहतर काम करने के बावजूद बीएसएफ को वहां से क्यों हटाया जा रहा है? बीएसएफ के जवान लम्बे समय से तैनात रहने के कारण कश्मीर के चप्पे -चप्पे से वाकिफ थे और सीमा पार से घुसपैठ रोकने में बीएसएफ की प्रभावी भूमिका रही थी। जहां-जहां बीएसएफ के जवान तैनात थे, लोगों के मन में उनके प्रति सम्मान था और अलगाववादियों में खौफ पैदा हो गया था।


 एक तरह से बीएसएफ वहां आर्मी की टक्कर का काम कर रही थी। जहां तक मेरी जानकारी है, वर्ष 1999 में करगिल युद्ध के बाद अलग-अलग तरह की टास्क फोर्स बनाने का फैसला किया गया था। तब यह तय हुआ था कि आंतरिक सुरक्षा को लेकर एक ही तरह की फोर्स की तैनाती की जाए। सुनने में तो यह बहुत अच्छा लगता है लेकिन आंतरिक सुरक्षा की अलग-अलग तरह की जरूरतें होती हैं। कश्मीर घाटी में भी जरूरत होती है तो माओवादियों से निपटने में भी। हरिद्वार में शांति व्यवस्था बनाए रखने के लिए भी और मुजफ्फरपुर जैसे दंगों से निपटने में भी। कश्मीर में बीएसएफ कठिन ड्यूटी पर थी और उसे एक साथ लौटने के लिए कह दिया गया। केन्द्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) को बाद में वहां संतुलन बनाने में काफी परेशानी हुई या यूं कहना चाहिए कि सीआरपीएफ वहां अब लडख़डाऩे लगी थी।

 ऐसे समय में बीएसएफ जवानों को फिर तैनात करने का निर्णय लेना स्वाभाविक ही था। बीएसएफ एक अनुशासित बल है और हथियारों के लिहाज से भी अधिक समृद्ध है। लम्बे समय बाद वापस जाने से हो सकता है कि उसे भी शुरुआती दिक्कतें आए लेकिन उम्मीद की जानी चाहिए कि इससे कश्मीर के हालात काबू में लाने में मदद मिलेगी। अभी यह स्पष्ट नहीं है कि बीएसफ को वहां अतिरिक्त बल के रूप में रखा जाएगा या मुख्य फोर्स के रूप में।


लेकिन, इतना साफ है कि सरकार ने इस सम्बन्ध में अपनी पूर्ववर्ती नीतियों में बदलाव किया है जो एक सुखद संकेत है। उम्मीद की जानी चाहिए कि इससे फर्क पड़ेगा। कश्मीर के मौजूदा हालात इतने गंभीर क्यों हुए यह भी एक विचारणीय सवाल है। मेरी नजर में राजनीतिक विफलता इसके लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार है।


जब कानून-व्यवस्था की सफलता और विफलता की बारी आती है तो सारा दोष सुरक्षा बलों के खातों में डालने की नेताओं की आदत सी हो गई है। स्थानीय नेता लोग राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री से मिलने दिल्ली तो पहुंच जाएंगे। संसद और विधानसभाओं को सिर पर उठा लेंगे। लेकिन, इनसे पूछो कि अपने क्षेत्र की जनता से उन्होंने संवाद किया या नहीं? अपने क्षेत्र में कितनी बार गए? पिछले 45 दिनों में नेताओं ने अपने घरों में बैठे रहने के अलावा कुछ नहीं किया।

 ये वहां के अलगाववादियों को आखिर समझा क्यों नहीं पा रहे? जिनको वे अपने लोग कहते हैं, उनसे बातचीत करने का साहस क्यों नहीं जुटा पा रहे? इसमें कोई दो राय नहीं कि कश्मीर के हालात पर काबू बातचीत के जरिए संभव है। लेकिन, बातचीत का भी एक दायरा तो तय करना ही पड़ेगा। यदि वे आजादी की बात करते हैं तो भला उसे क्यों सुना जाए? हां, यदि कोई और समस्या हो तो बात जरूर करें। देश को तोडऩे की बात करने वालों से भला क्या संवाद किया जाए? गाहे-बगाहे एक सवाल अलगाववादियों व आंदोलनकारियों पर पैलेट गन के इस्तेमाल को लेकर भी उठता है। पैलेट गन से बेहतर विकल्प कोई और हो तो बताया जाना चाहिए। लेकिन, क्या वे यह चाहते हैं कि हमारे जवानों पर गोलियां बरसाईं जाएं, थानों को जलाया जाए और कोई जवाबी कार्रवाई हो ही नहीं। सीरिया मेें सुरक्षा बलों के हमलों में आम नागरिकों की मौत होती है और वहां कोई चूं तक नहीं करता? हमारे यहां किसी अलगाववादी पर पैलट गन दाग दें तो मानव अधिकारों की दुहाई दी जाने लगती है।

क्यों नहीं महबूबा मुफ्ती और उमर अब्दुल्ला अलगाववादियों को समझाने के लिए आगे आते? चिंता की बात तो यह है कि स्थानीय पुलिस भी दबाव में हैं। पुलिस को भी सरकार ने खुद के भरोसे छोड़ दिया है । समर्पण करने वाले आतंकियों को पुलिस बेड़े में शामिल करना तो ठीक है पर इस बात की जांच कौन करेगा कि ये हमारे पुलिस बेड़े को ही खराब तो नहीं कर रहे? बहरहाल, केन्द्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह भी एक माह में दूसरी बार कश्मीर में हालात का जायजा लेने गए हैं। यह माना जाना चाहिए कि सरकार की यह पहल सकारात्मक प्रयासों को गति दे पाएगी। लेकिन, यह तो समझना ही होगा कि ताली दोनों हाथों से बजती है इसलिए बातचीत के लिए दोनों पक्षों को आगे आना होगा।

प्रकाश सिंह पूर्व महानिदेशक बीएसएफ
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