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चुनौतीपूर्ण है शिखर पर टिके रहना

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी राजनीति के शिखर पर हैं और समर्थकों की
राय है कि 2019 में होने वाले आम चुनाव में भी वे इस शिखर पर बरकरार
रहेंगे। उनका कामकाज और राज्यों के चुनाव परिणाम, क्या इस बात की गवाही
देते हैं?

Jul 24, 2017 / 11:02 pm

शंकर शर्मा

Narendra Modi

Narendra Modi

प्रो.प्रदीप के.माथुर वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक समीक्षक

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी राजनीति के शिखर पर हैं और समर्थकों की राय है कि 2019 में होने वाले आम चुनाव में भी वे इस शिखर पर बरकरार रहेंगे। उनका कामकाज और राज्यों के चुनाव परिणाम, क्या इस बात की गवाही देते हैं? कहा तो यह भी जा रहा है कि विपक्ष में उन्हें चुनौती देने वाले नेतृत्व का अभाव है। क्या यह सोच केवल आत्ममुग्धता है?

राजनीति में सत्ता की सीढिय़ां चढऩा ऐसा ही है जैसे पनघट की कठिन डगर! कब पैर फिसल जाए और गिर जाएं; कहा नहीं जा सकता। कहने का अर्थ यह है कि चढ़ी गई सीढिय़ों की संख्या इस बात की गारंटी नहीं देती है कि आप उस मुकाम पर बने रहेंगे, जहां आप पहुंच चुके हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी इस वक्त सत्ता के उस मुकाम पर है, जिसे ‘क्लाउड 9’ कहा जा सकता है, जहां सब कुछ उनके ‘मन मुताबिक’ हो रहा है।

पूर्ण बहुमत वाली पार्टी भाजपा उनकी जेब में है, लोकसभा में विपक्ष का कोई नेता नहीं है। देश के 30 राज्यों में से 16 में भाजपा की सरकार है। राष्ट्रपति उनकी पसंद के चुने गए हैं और उपराष्ट्रपति भी बेशक उन्हीं की पसंद के होने वाले हैं। अब सवाल यह है कि क्या मोदी को अभी या निकट भविष्य यानी 2019 के आम चुनाव में कहीं से कोई खतरा दिखाई देता है? हम में से ज्यादातर लोगों का जवाब होगा, नहीं।

केवल कुछ विचारधारात्मक तौर पर मोदी विरोधी खेमे के लोग शायद इस बात पर सहमत ना हों। हमें समझना चाहिए कि राजनीति व क्रिकेट के बारे में कहा नहीं जा सकता कि ऊंट किस करवट बैठे? 1971 में बांग्लादेश बनवाने में भारतीय भूमिका और युद्ध में पाकिस्तान पर भारत की जीत ने ही तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को ‘दुर्गा’ की उपाधि दिलवाई थी, वह भी विपक्ष के नेता अटल बिहारी वाजपेयी से।

उस समय क्या वे यह कह सकते थे कि 1974 के मध्य तक आते-आते इंदिरा गांधी को अपनी कुर्सी बचाने के लिए आपातकाल लगाना पड़ जाएगा? आपातकाल हटने के बाद 1977 में जनता पार्टी ने जो शानदार जीत दर्ज की थी, क्या उसके बाद कोई कह सकता था कि मोरारजी देसाई जैसे प्रधानमंत्री को एक दिन बीच कार्यकाल में ही (1979 में) पद त्याग देना पड़ेगा? परन्तु यह सब हुआ और अब यह भारतीय राजनीतिक इतिहास का हिस्सा है।

तो क्या प्रधानमंत्री मोदी के साथ भी ऐसा कुछ हो सकता है? फिलहाल किसी के पास इस बात का कोई जवाब नहीं है। लेकिन, इस बात का विश्लेषण करें कि पिछले तीन सालों में क्या हुआ? हमें स्पष्ट हो जाएगा कि क्या मोदी की लोकप्रियता का ग्राफ गिरा है या बढ़ा है? भाजपा का प्रचार तंत्र जनता को यही बताता है कि मोदी बहुत महान हैं। भाजपा नेता और कार्यकर्ता यही जताने में लगे रहते हैं कि सरकार तो बिल्कुल ठीक काम कर रही है, अगर कहीं गड़बड़ी है भी तो वह विपक्ष की वजह से है। लोकतांत्रिक देश में ऐसी राजनीति कर मोदी अनजाने ही विपक्षी एकता को बढ़ावा दे रहे हैं।

परन्तु प्रधानमंत्री के बारे में एक और धारणा बलवती हो रही है कि वे जो बोलते हैं, करते नहीं हैं। उनकी कथनी व करनी में अंतर साफ देखा जा सकता है। उन्होंने कहा कि 100 दिन में विदेशों से काला धन वापस ले आएंगे, प्रत्येक को 15 लाख रुपए देंगे, पाकिस्तान को उसकी औकात दिखा देंगे, पिछली सरकार के भ्रष्टाचारों पर फैसला करेंगे और सालाना एक करोड़ रोजगार सृजन करेंगे। इसके अलावा रोजमर्रा काम आने वाले सामान की कीमतों में दिनों दिन हो रही वृद्धि से भी आम आदमी खिन्न है। बैंक जमाओं पर ब्याज दर कम करने से वरिष्ठ नागरिकों को काफी नुकसान पहुंचा है।

इन सारी बातों के बावजूद इसमें कोई दो राय नहीं है कि मोदी स्वतंत्र भारत के लोकप्रिय प्रधानमंत्रियों में से एक हैं लेकिन उनके चारों ओर ऐसी जमात खड़ी है, जो उन्हें असलियत से वाकिफ नहीं करवा रही। यही नहीं ऐसे लोग प्रधानमंत्री को लगातार यह आश्वस्त करते आ रहे हैं कि अगर कोई उनसे नाखुश है भी, तो उनके पास कोई अन्य कोई विकल्प ही नहीं है इसलिए उनकी कुर्सी सुरक्षित है।

जहां तक प्रधानमंत्री के कामकाज के तौर-तरीके का सवाल है तो जनता को दिलासा देने के लिए भले ही वे आम सहमति की बातें कर लें लेकिन उनकी स्वयं इसमें कोई आस्था नहीं है। यहां तक कि नोटबंदी जैसे मुद्दे पर उन्होंने अपने वित्त मंत्री अरुण जेटली की राय तक नहीं ली। वे स्वयं भी जानते हैं कि नोटबंदी का फैसला बहुत बड़ी गलती रही है। इससे देश की अर्थव्यवस्था कम से कम एक साल पीछे धकेल दी गई।

मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों का घर में ही विरोध शुरू हो गया है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जिसका सहयोगी संगठन भारतीय जनता पार्टी के साथ स्वदेशी जागरण मंच भी है, पहले ही सरकार द्वारा प्रस्तावित विदेशी निवेश नीति का विरोध कर रहा है। एक अन्य प्रमुख सहयोगी संगठन भारतीय मजदूर संघ ‘दमनकारी श्रम नीतियों के खिलाफ’ आंदोलन की तैयारी कर रहा है।

सवाल यह भी है कि क्या विदेशी के साथ घरेलू राजनीतिक समझ रखने वाले प्रधानमंत्री ने अपने ही सहयोगी संगठनों के नेताओं से सरकार के कामकाज को लेकर चर्चा की है। लगता है कि शायद उन्हें इन सबके के लिए फुर्सत नहीं है।

या फिर, वे विरोधी स्वरों पर ध्यान ही नहीं देना चाहते। लेकिन, 2019 के आम चुनावों का नतीजा अपने पक्ष में तय मान कर चल रहे प्रधानमंत्री मोदी और उनके समर्थकों को यह याद दिला देना जरूरी है कि राजनीति कब और कैसे अचानक सब कुछ बदल जाता है, पता ही नहीं लगता। राजनीति में बदलाव के लिए एक सप्ताह का समय भी काफी लंबा होता है।

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