व्यंग्य राही की कलम से
नाइज्जत की चिन्ता, न फिकर कोई अपमान की, जय बोलो बेईमान की जय बोलो। और बेईमान की जय क्यों न हो जबकि अपने आपको ‘ईमानदार’ कहने वाली सरकार ही उनके सामने घुटनों के बल आ खड़ी हुई हो। सरकार ने बेईमानों की भट्टी बुझाने के लिए आमजन से पानी मांगा। जनता तैयार हो गई। पचास दिन प्यासे मर लेंगे लेकिन किसी तरह इन काले बाजारियों का नाश होना चाहिए। सरकार ने भी खूब तेवर दिखाए।
एक तिथि मुकर्रर कर दी कि इसके बाद कालेधन वालों की खैर नहीं। पुरजोर शब्दों में कहा कि कालाधन नहीं बताने वालों पर दो सौ प्रतिशत जुर्माना लगेगा लेकिन हाय रे हाय। सारी सख्ती धरी रह गई। जल्दी ही दो सौ प्रतिशत पचास परसेंट में बदल गया। यानी जो काला पैसा पचास दिन बाद मिट्टी होने वाला था अब वह आधा तो बचाया जा सकता है। ठगे कौन गए? ईमानदार। ईमानदार तो तीस फीसदी टैक्स अपनी ईमान की कमाई पर देता ही है लेकिन बेईमान के मजे हो गए।
बड़े आराम से बेईमानी की और मात्र बीस फीसदी ज्यादा देकर सारे काले को सफेद कर लिया। अब इसे समझिए। एक ईमानदार है एक बेईमान। दोनों ने नियमों से सौ रुपए कमाए। लेकिन बेईमान ने बेईमानी से सौ रुपए और कमा लिए। टैक्स देने के बाद ईमानदार के पास बचे सत्तर। बेईमान के पास नियम वाले सत्तर तो बचे ही, पचास फीसदी जुर्माना भर के उसने काले धन से ‘पचास’ और बचा लिए।
यानी फायदे में कौन रहा? बेईमान! जिस ‘बेईमान’ को दण्डित करवाने के लिए करोड़ों ईमानदार हफ्तों लाइनों में खड़े रहे, व्यापार चौपट हुआ, किसान रोते रहे उन्हीं बेईमानों के लिए ‘ईमानदार सरकार’ ने एक सुगम रास्ता और खोल दिया जिससे वो अपनी बेईमानी की आधी कमाई मजे-मजे में बचा ले। बताइए घाटे में कौन रहा? आप या बेईमान। इसीलिए हम ‘बेईमान की जय’ बोल रहे हैं। आप हमारे संग बोले या न बोले आपकी मरजी।