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 बस पूंछ कटी है, फन कुचला नहीं गया

लम्बे समय से आईएस के आतंक से प्रताडि़त इराक के नागरिकों में पिछले दिनों
तब खुशी की लहर दौड़ गई जब इराक में आईएस के आखिरी और महत्वपूर्ण गढ़ मोसुल
से भी आईएस का सफाया कर दिया गया

Jul 13, 2017 / 11:10 pm

शंकर शर्मा

opinion news

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प्रो. ए. के. पाशा मध्य पूर्व क्षेत्र के मामलों के जानकार
लम्बे समय से आईएस के आतंक से प्रताडि़त इराक के नागरिकों में पिछले दिनों तब खुशी की लहर दौड़ गई जब इराक में आईएस के आखिरी और महत्वपूर्ण गढ़ मोसुल से भी आईएस का सफाया कर दिया गया। आईएस के इराक में सिमटने से क्या वहां स्थायी शांति स्थापित हो पाएगी या फिर आईएस के पुन: सिर उठाने की आशंका है..?


अमरीका के नेतृत्व वाली इराकी गठबंधन सेनाओं ने नौ महीने तक चले भीषण संघर्ष के बाद आखिरकार उत्तरी इराक के शहर मोसुल को इस्लामिक स्टेट ऑफ इराक एंड सीरिया (आईएसआईएस या आईएस) के आतंकियों के कब्जे से आजाद करवा ही लिया। गौरतलब है कि वर्ष 2014 में आईएस ने इराकी सेेनाओं को खदेड़कर मोसुल पर कब्जा कर लिया था। प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर मोसुल में इराक के सबसे ज्यादा तेल और गैस के भंडार पाए जाते हैं।

मोसुल ही वह शहर हैं जहां इराक के पूर्व तानाशाह सद्दाम हुसैन के वफादार सैन्य अधिकारी अमरीकी सेना के डर से पनाह लिए हुए थे। मोसुल पर नियंत्रण पाने में आईएस को सद्दाम हुसैन के इन सिपहसालारों का पूर्ण समर्थन और सहयोग मिला था। तब से मोसुल आईएस का एक महत्वपूर्ण ठिकाना बना हुआ था।

वर्ष 2016 में गठबंधन सेेनाओं ने इसे आईएस के कब्जे से वापस हासिल करने के लिए सैन्य अभियान चलाया। उल्लेखनीय है कि ऐतिहासिक महत्व वाले मोसुल की मस्जिद में ही आईएस के सरगना अबु बकर अल बगदादी ने स्वयं को मुसलमानों का नया खलीफा घोषित किया था। साथ ही मोसुल को अपने इस्लामिक स्टेट की राजधानी बनाया था। करारी शिकस्त के बाद अब तक बगदादी की कोई प्रतिक्रिया नहीं आई है।

आशंका है कि वह मोसुल पर कब्जे के प्रयास की लड़ाई में मारा गया हो लेकिन गठबंधन सेना की ओर से इसकी पुष्टि नहीं की गई है। बगदादी का बयान न आना, और मोसुल की शिकस्त का अर्थ यह नहीं कि वह मारा गया है। बहरहाल, मोसुल आईएस के हाथों से निकल चुका है। आईएस की यह हार भारत के लिए भी काफी महत्त्वपूर्ण हैं।

भारत का विदेश मंत्रालय काफी समय से इराक में 39 भारतीय कामगारों के लापता होने को लेकर परेशान है। ये कामगार इराक में आजीविका के लिए गए थे। विदेश मंत्रालय को इनकी सलामती की अब तक कोई जानकारी नहीं मिल पाई है। आशंका रही है कि इन्हें आईएस ने अगवा कर लिया था। भारत को उम्मीद है कि अब इनको खोजा जा सकेगा।ऐसे में अहम सवाल यह उठता है कि क्या इराक से आईएस का पूर्णत: सफाया हो गया है? मेरा मानना है कि अभी यह कहना तो काफी जल्दबाजी होगी कि इराक से आईएस पूर्णत: नेस्तानाबूद हो गई है।

मोसुल पर गठबंधन सेनाओं के हमले के समय आईएस को पिछड़ते देख अधिकतर आईएस लड़ाके सीमा पार कर पड़ोसी देशों में शरणागत हो चुके हैं। अवसर मिलने पर वे पुन: एकजुट होकर हमला कर सकते हैं। इसके साथ ही यह देखना भी महत्वपूर्ण होगा कि इराकी प्रशासन मोसुल विजय के बाद वहां के नागरिकों के जख्मों पर कितना मरहम लगा पाता है। लम्बे समय से सैन्य संघर्ष का केन्द्र रहे मोसुल का नागरिक जीवन पूरी तरह बर्बाद हो चुका है।

लगातार होती बमबारी के चलते करीब दस लाख नागरिक बेघर हो चुके हैं। वे मूलभूत सुविधाओं से भी वंचित हैं। जान बचाने के लिए मोसुल के नागरिकों को तत्काल बाहरी सहायता की आवश्यकता है। इराक की राजधानी बगदाद में बैठे शीर्ष प्रशासन को तुरंत मोसुल के लोगों के लिए मदद की व्यवस्था करनी चाहिए।

मोसुल में स्थानीय प्रशासन को दुरुस्त कर वहां के नागरिकों को राहत पहुंचाकर उनका विश्वास अर्जित करना होगा। इराकी प्रशासन मोसुल के नागरिकों के जख्मों को भरने में विफल रहता है तो कोई आश्चर्य नहीं होगा कि आम नागरिकों के मन में आईएस के प्रति हमदर्दी पनप जाए। गठबंधन सेनाओं के मोसुल से हटते ही आईएस के हमलों की आशंका है। ऐसी परिस्थिति निर्मित होने पर इराकी सेना के लिए मोसुल पर नियंत्रण बनाए रखना काफी मुश्किल होगा।

मोसुल पराजय से आईएस को इराक में बड़ा नुकसान तो हुआ है लेकिन उसके पूरी तरह खात्मे की बात बेमानी लगती है। मोसुल की जीत को आईएस के खिलाफ निर्णायक जीत नहीं कहा जा सकता। अभी भी उसके नियंत्रण में सीरिया का काफी बड़ा भूभाग है। हैरत की बात है कि आईएस को विश्व के कई बड़े देशों का प्रत्यक्ष व परोक्ष समर्थन प्राप्त है। ये देश विभिन्न स्तरों पर आईएस की मदद करते रहे हैं।

फिर चाहे वह मदद हथियारों के रूप में हो या आर्थिक संसाधन उपलब्ध कराने के रूप में हो। आईएस के मददगार देशों के रूप में सऊदी अरब, तुर्की, इजरायल आदि देशों पर आरोप लगते रहे हैं। वैश्विक परिदृश्य में देखें तो लगता है कि आईएस का इस्तेमाल रूस और चीन पर दबाव बनाने के लिए किया जाता रहा है। कई अन्य देश स्थानीय और अंतरराष्ट्रीय कूटनीति के कारण आईएस के खिलाफ दोहरा रवैया अपनाते रहे हैं।

अंतरराष्ट्रीय कूटनीतिक समीकरणों के चलते एक तरफ तो वे आईएस को आतंकी संगठन बताते हुए इसके खिलाफ जंग में गठबंधन सेनाओं में शामिल होते हैं। दूसरी तरफ क्षेत्रीय रणनीतिक समीकरणों और धार्मिक भावनाओं के कारण आईएस को भी गोपनीय रूप से विभिन्न प्रकार की मदद करते रहते हैं। इस संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि इन देशों के समर्थन से आईएस फिर से इराक में अपनी खोई जमीन हासिल कर ले। फिलहाल तो इराक के नागरिक मोसुल की विजय से राहत महसूस कर रहे हैं।

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