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किस्सा कुर्सी का

Published: Jun 30, 2015 10:46:00 pm

आजकल
शादी-ब्याह की पार्टियों में ही लोग कुर्सी नहीं छोड़ते। आप खड़े हुए नहीं कि कोई
तुरंत टपक पड़ता है

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कुर्सी पकड़ना भी एक कला है। कुर्सी और लक्ष्मी दोनों चंचला हैं। थोड़ी-सी पकड़ ढीली होते ही लक्ष्मी हाथ से फिसल जाती है। इसी तरह कुर्सी का हत्था छूटा नहीं कि अपने आपको जमीं पर पाते हैं। जब तक धूल झाड़ कर खड़े होते हैं, उस पर दूसरा विराज चुका होता है। इसलिए समझदार लोग आसानी से कुर्सी नहीं छोड़ते। कोई ऎसा कारण ही आ पड़े जिसके कारण संविधान ही इसकी अनुमति न दें तब तक कुर्सी छोड़ना महामूर्खता है। आप अगर यह सोचें कि मैं कुछ समय के लिए अपने अनन्य “चेलेे” को कुर्सी पर बिठा दूं और बाद में स्वयं संभाल लूंगा तो इस भरोसे न रहे। कुर्सी पर बैठते ही “चेलाा” स्वयं “गुरू” बनने की राह पर चल पड़ता है। बिहार के मांझी इसका नमूना हैं। इस मामले में लालू चालाक निकले। कुर्सी घर में ही पड़ी रही। अपने साले पर भी भरोसा नहीं किया। आपातकाल से पूर्व कुछ सलाहकारों ने इन्दिरा गांधी को सुझाव दिया था कि वे अपनी कुर्सी किसी खास सिपहसालार को सौंप दें और जब मुकदमे का फैसला उनके हक में आ जाए तो फिर जम जाएं। कई दिन की ऊहापोह के बाद उन्होंने कुर्सी छोड़ना मुनासिब नहीं समझा। ऎसा नहीं कि अपने देश में कुर्सी छोड़ने वाले नहीं हुए। राम, बुद्ध, महावीर ने कुर्सी का त्याग किया ही था। चलिए उनकी बातें आपको कुछ ज्यादा दूर की कौड़ी लगे तो शास्त्री जी को ले लीजिए। उन्होंने एक झटके में रेलमंत्री की कुर्सी छोड़ दी थी। यह बात दूसरी है कि चाचा नेहरू के बाद सारे देश को वे ही विकल्प नजर आए और उन्हें पहले से बड़ी कुर्सी मिली। भाजपा में आजकल कुर्सी संकट चल रहा है।

“बहनें” समझ नहीं पा रहीं कि कुर्सी छोड़ें या न छोड़ें। हालांकि मार्गदर्शक पुरूष्ा अपना उदाहरण देकर बार-बार इशारा कर रहे हैं कि छोड़ ही देनी चाहिए, तभी विश्वसनीयता बनी रहेगी पर कोई हिम्मत ही नहीं कर पा रहा है। अब लालजी में इतनी पावर तो है नहीं कि वे हाथ पकड़ कर किसी को कुर्सी से उतार दें। वैसे भी बूढ़ों-बड़ों की सुनता कौन है। यह तो राजनीति की बात है, आजकल शादी-ब्याह की पार्टियों में ही लोग कुर्सी नहीं छोड़ते।

आप खड़े हुए नहीं कि कोई तुरंत टपक जाता है। अब खड़े-खड़े करते रहिए ताका-झांकी कि कब कहां कुर्सी खाली दिखे और उस पर झपटे। कुर्सी पकड़ने, झपटने, बैठने, बैठकर जमने और जमे हुए को उखाड़ने का संकट हर पार्टी में है। दरअसल अब कुर्सी सिर्फ आसन नहीं बल्कि रूतबा देने वाली, शान बढ़ाने वाली, रूपया उगलने वाली एक मशीन बन चुकी है। जो आज कुर्सी पर है उसकी जै जै कार है। जो कुर्सी पर नहीं उसे लोग सूंघने भी नहीं आते।

जो कुर्सी पर है उसके हाथों में ताकत है, उसकी भक्ति है और जो कुर्सी से परे है उनकी सिर्फ भजनों से ही मुक्ति है। इसलिए ऎसा कौन अक्ल का दुश्मन और आंख का अंधा होगा जो जानबूझ कर कुर्सी छोड़ेगा। जब तक कि कुर्सी से उठाकर पटका न जाए, कुर्सी कोई नहीं त्यागता।
राही

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