व्यंग्य राही की कलम से
पुरानी फिल्म लोफर में एक बड़ा ही मीठा गाना था- शहरी बाबू! दिललहरी बाबू! पग बांध गया घुंघरु, मैं छनछन निरत करां। शहर होता ही इतना मोहक है। बिल्कुल एक मोटे रोगी की तरह, जो बाहर से देखने में तन्दुरुस्त नजर आता है लेकिन जिसके भीतर बीमारियां भरी होती हैं।
जानकार कहते हैं कि आने वाले दस बरस बाद गांवों का देश कहलाने वाला हमारा भारत देश शहरी बबुआओं का ‘कंट्री’ बन जाएगा। वैसे भी अगर किसी को एक देश में दो देश देखने हो तो उन्हें बड़े आराम से ‘भारत’ और ‘इंडिया’ नजर आता है। आज से तीस बरस पहले जब हम अपना प्यारा ‘कस्बा’ छोड़कर ‘राजधानी’ आए थे तो यह ‘महानगर’ हमें बड़ा कस्बा ही लगा था। वैसे ही प्यारे लोग, एक दूजे को जानने वाले मित्र, चौड़ी सड़कों पर आराम से चलने का सुख और शहर में शांति यह सब चीजें यहां मौजूद थी। लेकिन अब तो अपनी ही बस्ती में हम अजनबी की तरह फिरते हैं।
शहर के हर तीसरे चौराहे पर लगे कूड़े का अंबार है। अगर गलती से महानगर की सड़क पर आप फिसल कर गिर गए तो कोई हाथ बढ़ा कर उठाने वाला नहीं मिलता। आंख मूंद कर हो रहे इस शहरीकरण की ताजा मिसाल दिल्ली में लगे कूड़े का अंबार है जो शीघ्र ही कुतुबमीनार की ऊंचाई को पार कर लेग।
अच्छा है। तब हमारे देश में आने वाले टूरिस्टों को हम बताएंगे कि देखो हमने कूड़े से ही एक मीनार बना डाली। आप चाहे तो इसके सामने खड़े होकर एक सेल्फी ले सकते हैं जो कि अद्वितीय होगी। हमारा तो शहर में दम घुटता है।
सड़क पर चलते डर लगा रहता है कि न जाने कौन सा वाहन अपनी चपेट में ले ले। सांझ को भय होता कि न जाने कौन तमाचा मार के पर्स मोबाइल लूट ले। रात को फुटपाथों पर सोते हुए मजदूरों की कतार देख कर स्वार्थी होने का अहसास नींद गायब कर देता है। लेकिन गांव में रहें तो रहें कैसे, वहां न सड़क है, न पानी, न बिजल और न ही अस्पताल।। यही हमारे वक्त का सच है।
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