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खुद तो जानें, हम रहें अनजाने

राजनीतिक पार्टियां सत्ता सुख आसक्त हैं।
जनता से वोट तो चाहती हैं, लेकिन पारदर्शिता-जवाबदेही के दौर में पार्टियां अपने
“घर” को “बंद” रखे हैं। आय-व्यय के आंकड़े छिपाती हैं

Aug 25, 2015 / 11:57 pm

शंकर शर्मा

 Opinion news

Opinion news


राजनीतिक पार्टियां सत्ता सुख आसक्त हैं। जनता से वोट तो चाहती हैं, लेकिन पारदर्शिता-जवाबदेही के दौर में पार्टियां अपने “घर” को “बंद” रखे हैं। आय-व्यय के आंकड़े छिपाती हैं। जनता के बारे में पार्टियां सब कुछ जानना चाहती हैं, लेकिन उनकी साझा कवायद ये रहती है कि जनता पार्टियों के भीतरखाने से अनजान रहे। पार्टियों को आरटीआई दायरे में लाने पर पिछली-वर्तमान सरकार का रवैया समान है। यानी कतई नहीं। सुप्रीम कोर्ट में सरकार बोली, पार्टियां सार्वजनिक संस्था नहीं। आखिर कब तक पार्टियां लोकतंत्र के नाम पर केवल जुबानी जमा खर्च करेंगी। इस मुद्दे पर आज का स्पॉटलाइट…

पारदर्शिता के बिना कैसा लोकतंत्र
जगदीप छोकर सह संस्थापक एडीआर
पारदर्शिता के बिना लोकतंत्र अधूरा है। आखिरकार लोगों को उन राजनीतिक दलों की आतंरिक स्थिति, कामकाज और आय-व्यय का ब्योरा जानने का अधिकार है जिन्हें उन्होंने वोट दिया है। लेकिन भारत की राष्ट्रीय पार्टियां अपने आंकड़ों को छिपाना चाहती हैं। जबकि केंद्रीय सूचना आयुक्त (सीआईसी) राजनीतिक दलों को सार्वजनिक संस्थाएं (पब्लिक अथॉरिटी) घोषित कर चुकी है। इसके तहत ये पार्टियां सूचना के अधिकार (आरटीआई) की परिभाषा में लोगों को तथ्य बताने को बाध्य हैं। लेकिन इन राजनीतिक दलों द्वारा सीआईसी के आदेशों की पालना में ऎसे तर्क दिए हैं जो कि पच ही नहीं सकते हैं। सभी पार्टियां इस छिपाने के “खेल” में शामिल हैं।

टालते रहे राजनीतिक दल
वर्ष 2005 में संसद से सर्वसम्मति से सूचना का अधिकार कानून पास हुआ। लेकिन राजनीतिक दल इससे खुद को दूर रखने के हथकंड़ों में जुटे रहे। खुद को सार्वजनिक संस्थाएं मानने से देश के छह राजनीतिक दल कन्नी काटते रहे। इस दौरान सीआईसी में राजनीतिक दलों ने अपना पक्ष भी रखा, खूब तर्क-वितर्क हुए। आखिरकार जून, 2013 में सीआईसी ने फैसला दिया कि राजनीतिक दल सार्वजनिक संस्थाएं हैं, लिहाजा ये सार्वजनिक संस्थाओं के रूप में आरटीआई के दायरे में हैं। इसके बाद भी पार्टियां सीआईसी के फैसले को लागू करने में टालमटोली भरा रवैया अपनाती रहीं।

सरकार किसी दल की नहीं
लोकतांत्रिक व्यवस्था में चुनाव के दौरान राजनीतिक दल एक-दूसरे के खिलाफ मैदान में उतरते हैं। आरोप-प्रत्यारोप लगाए जाते हैं। लेकिन आदर्श स्थिति ये होनी चाहिए कि जब बहुमत वाला दल सरकार गठन करे है तो फिर पार्टी की बातें नहीं हों। लेकिन हमारे यहां ये देखने में आता है कि सरकारें भी एनडीए अथवा यूपीए की ही होती हैं। यानी इन सरकारों के लिए पार्टियां अहम रहती है। अपनी-अपनी पार्टी के हित सर्वोपरि होते हैं। जबकि लोकतांत्रिक पद्धति में ये कतई अनुकूल स्थिति नहीं है। आश्चर्य की बात है कि सरकारें भी अपनी-अपनी पार्टी के हितों को पोषित करती रहती हैं। जबकि देश हित की बातें पीछे चली जाती हैं। सभी दल आरटीआई के मुद्दे पर एक हो गए हैं। यानी सभी का एक ही लक्ष्य है भीतरखाने जो कुछ भी हो उसका जनता को पता नहीं चलना चाहिए। पार्टियो की भलाई के रास्ते में यदि कोई भी रोड़ा आए तो उसे दूर करने में सभी एक-दूसरे के साथ हो जाते हैं। यूपीए सरकार के दौरान भी सभी पार्टियां इस मुद्दे पर मिलीं हुई थीं। अब एनडीए सरकार के दौर में भी सभी पार्टियां कम से कम इस मुद्दे पर तो एकजुट हैं। देश और लोकहित को ताक पर रखकर बस सत्ता सुख अहम हो गया है।

तो खुल जाएगी कलई

सवाल है, आखिर पार्टियां आरटीआई से बचना क्यों चाहती हैं। पहला कारण है कि इन पार्टियो के 75 से 80 फीसदी तक घोषित आमदनी के स्रोत को सार्वजनिक ही नहीं किया जाता है। दूसरा, पार्टियां किसी प्राइवेट कंपनी के रूप में काम करती हैं। चुनाव के दौरान टिकट कैसे बांटे जाते हैं। अमुक को टिकट देना का क्या आधार है ये गु# ही रखना चाहती है। तीसरा, कहने को तो सभी पार्टियों का आंतरिक संविधान है, लेकिन इसकी पालना कागजों में ही सिमटी रहती है। इसे लागू ही नहीं किया जाता है। चौथा, पार्टियां कहती हैं, आरटीआई से कामकाज प्रभावित होगा, ये गलत है। पिछले 10 साल में आरटीआई से संस्थाओं का कामकाज बेहतर ही हुआ है। दरअसल, पार्टियों को कलई खुल जाने का डर है।


बहाने बनाने में जुटे हैं राजनीतिक दल
निखिल डे सूचना का अधिकार कार्यकर्ता
राजनीतिक दल सूचना का अधिकार के दायरे में न आने के लिए बहाना नहीं बना सकते। अगर राजनीतिक दलों को लगता है कि सूचनाएं सार्वजनिक करने से उन्हें नुकसान होगा तो वे उससे इनकार कर सकते हैं। फिर उस पर सूचना मांगने वाला अपील कर सकता है। सेक्शन-8 में इसके कई प्रावधान हैं। पर जनता को वित्तीय पारदर्शिता मुहैया न कराना कहीं से भी जायज नहीं है। जब दल सरकार से जमीन में छूट लेते हैं, अन्य सुविधाओं में छूट लेते हैं और अंत में सत्ता में भी बैठते हैं तो उन्हें जनता को जानकारियां क्यों नहीं देनी चाहिए?

केंद्रीय सूचना आयुक्त ने आदेश दिया था कि राजनीतिक दल पीआईओ नियुक्त करें पर अभी तक उनकी नियुक्तियां ही नहीं की गई। सबसे बड़ी विडंबना यह है कि जो दल सरकार चला रहा है, वह सुप्रीम कोर्ट में जाकर कह रहा है ऎसा नहीं होना चाहिए। असल में सभी राजनीतिक दल आरटीआई का उल्लंघन कर रहे हैं। दलों के ये बहाने हैं कि हम वित्तीय सूचनाएं नहीं दे सकते। जब राजनीतिक दल का मकसद ही जनहित है तो फिर छिपाना कैसा?

मेरा मानना है कि सभी एनजीओ, धार्मिक संगठन, राजनीतिक दल, सहकारी समितियों को आरटीआई के दायरे में आना चाहिए। इनका मुनाफा कमाना उद्देश्य नहीं है। हालांकि इसके तहत कुछ गतिविधियां ऎसी हो सकती हैं, जो नहीं बताई जा सकती। पर कानून का सेक्शन 8 इन्हें यह सुरक्षा भी प्रदान करता है। पर ऎसा तो नहीं हो सकता कि राजनीतिक दल पीआईओ ही नियुक्त न करें। पिछली सरकार में यह मसला जब स्टैंडिंग कमेटी में गया तो तत्कालीन अटॉर्नी जनरल ने कहा था कि राजनीतिक दल आरटीआई के दायरे में आ सकते हैं। यह बड़ी विडंबना है कि आम आदमी की तो सारी सूचनाएं सरकार द्वारा एकत्र की जा रही है पर राजनीतिक दल अपनी सूचनाएं छिपाना चाहते हैं।

अमरीका में है तो यहां क्यों नहीं?
वकााहत हबीबुल्लाह पूर्व केंद्रीय सूचना आयुक्त
सूचना के अधिकार के अंतर्गत आने से तो राजनीतिक दल के संचालन में पारदर्शिता ही बढ़ेगी। इसमें किसी भी दल को हिचकना नहीं चाहिए। लोकतंत्र में इससे अच्छी बात क्या हो सकती है कि पारदर्शिता को तवज्जो मिले। खुद सरकार ही तो सूचना का अधिकार लाई थी फिर उनके दलों को इससे बाहर क्यों रखा जाए? पर मुझे लगता है कि हमारे राजनीतिक दल सूचना के अधिकार को समझे ही नहीं हैं। ईमानदारी और पारदर्शिता बढ़ाने से सरकार और दल कमजोर नहीं बल्कि सशक्त होते हैं। धारा-आठ में जो सूचनाएं सार्वजनिक करने योग्य नहीं हैं, उन्हें सार्वजनिक न करने का प्रावधान है। अगर कोई सूचना किसी भी संस्थान की शक्ति में कमजोरी लाए या उसके कार्य को नकारात्मक रूप से प्रभावित करे तो ऎसी सूचनाएं जाहिर न करें। अगर कोई सूचना किसी राजनीतिक दल या संस्थान की प्रतिस्पर्धात्मक शक्ति में भी कमजोरी लाए तो वह सूचना भी नहीं देनी चाहिए।

अगर सरकार समझती है कि राजनीतिक दल पब्लिक अथॉरिटी नहीं हैं और केंद्रीय सूचना आयुक्त ने इसका गलत मतलब लगाया है तो वह कानून में संशोधन ले आए। अभी सूचना के अधिकार अधिनियम में राजनीतिक दल पब्लिक अथॉरिटी हैं। ऎसा पहले भी हुआ है। फाइलों पर होने वाली नोटिंग के बारे में भी पहले सरकार ने ऎसा ही दृष्टिकोण अपनाया था। सरकार ने कोशिश थी, इसे जाहिर नहीं किया जाना चाहिए। पर फिर समझा कि अगर इस तरह सूचनाओं पर प्रतिबंध लगाना शुरू कर देंगे तो यह अधिनियम को ही नियंत्रित करने जैसा होगा। अमरीका जैसे लोकतंत्र में तो पूरी पारदर्शिता है। वहां राजनीतिक दलों का खर्च जनता को मालूम रहता है। तो फिर हमारे दलों को इसमें क्या दिक्कत है।


इससे उन्हें फायदा ही होगा…

हमारी सरकारें और राजनीतिक दल सूचना के अधिकार को अभी तक समझे ही नहीं हैं। लोकतंत्र में ईमानदारी और पारदर्शिता दो मजबूत तत्व होते हैं। इससे सरकार और दल कमजोर नहीं बल्कि उनकी कार्यप्रणाली सशक्त होती है। जनता के समक्ष अपनी आय-खर्च का ब्योरा पेश करने से उनकी प्रतिष्ठा ही बढ़ेगी।



सार्वजनिक संस्थाएं हैंदल : सीआईसी
सीआईसी की पूर्णपीठ ने 3 जून, 2013 के अपने ऎतिहासिक फैसले में कहा था कि छह राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टियां क्रमश: कांग्रेस, भाजपा, सीपीआई, सीपीएम, बसपा और राकांपा सार्वजनिक संस्थाएं हैं। पूर्णपीठ का कहना था कि सूचना के अधिकार (आईटीआई) कानून के खंड 2 (एच) के तहत ये सभी राष्ट्रीय पार्टियां इस दायरे के अंतर्गत आती हैं। इन सभी पार्टियों को सूचना के अधिकार को लागू करना होगा।

ये गिनाए कारण

पूर्णपीठ के अनुसार राष्ट्रीय पार्टियां सरकार से प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से फायदे उठाती हैं। इसमें शामिल हैं-पार्टी कार्यालयों के लिए अनुदान पर भूमि प्राप्त करना, आयकर में छूट, दूरदर्शन और आकाशवाणी पर मुफ्त एयरटाइम (दृश्य-श्राव्य प्रसारण) व चुनाव के दौरान मुफ्त मतदाता सूचियों की प्राप्ति आदि। साथ ही राजनीतिक दल सार्वजनिक कार्यो में संलग्न हैं और इन्हे संवैधानिक दर्जा प्राप्त हैं।

फ्लैशबैक

फैसले पर हो बहस और समीक्षा
&व्यक्तिगत रूप से मुझे सीआईसी की ओर से दिए गए फैसले से कोई आपत्ति नहीं है। मैं नहीं सोचता हूं कि राजनीतिक दलों के फंड और खातों की जानकारी सार्वजनिक होने से कोई आसमान टूट पड़ेगा। लेकिन फैसले पर बहस और समीक्षा होनी चाहिए।
अरूण जेटली, भाजपा

हम इससे कतई सहमत नहीं
&यह बिलकुल अस्वीकार्य है। हम इससे कतई सहमत नहीं हैं। ऎसा दृष्टिकोण लोकतांत्रिक संस्थाओं को नुकसान पहंुचाएगा। राजनीतिक दलों को ऎसी अनावश्यक बातों में उलझाना लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं के लिए भी हानिकारक है।
जनार्दन द्विवेदी, कांग्रेस

क्यों बताएं पार्टी की आंतरिक प्रक्रिया
&लोकतांत्रिक व्यवस्था में राजनीतिक पार्टियों की भूमिका सार्वजनिक संस्थाओं सरीखी नहीं है। ये भ्रामक तथ्य है। पार्टी फंड के स्रोत बताने में कोई परहेज नहीं, लेकिन पार्टी की प्रत्येक आंतरिक प्रक्रिया को सार्वजनिक नहीं किया जा सकता है। हमें ये नामंजूर है।प्रकाश करात, माकपा

भाजपा ने यू-टर्न लिया है : आप
आम आदमी पार्टी का आरोप है कि राजनीतिक दलों को आरटीआई के दायरे में लाने के मुद्दे पर भाजपा ने यू-टर्न लिया है। सरकार को सुप्रीम कोर्ट में जवाब देने से पहले सर्वदलीय बैठक बुलानी चाहिए थी। भाजपा नेताओं को इस मुद्दे पर यूपीए सरकार के दौर में दिए गए अपने बयानों पर कायम रहना चाहिए था।

संशोधन की कोशिश

सीआईसी के फैसले के विरोध में एकजुट हुई पार्टियों ने पैंतरा भी चला था। वर्ष 2013 के अंत में सूचना के अधिकार में संशोधन के लिए लोकसभा में बिल लाया गया। इसका उद्देश्य सीआईसी के आदेश को खारिज कर पार्टियों को आरटीआई के दायरे से बाहर रखना था। जनविरोध हुआ तो बिल विभागीय स्थायी समिति को भेजा। 15 वीं लोकसभा में पास नहीं होने पर ये बिल लैप्स हो गया।

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