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साहित्य पर सियासत, कब तक?

साहित्य समाज का दर्पण होता है। सामयिक परिदृश्य को सामने रखता है।
कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पी. चिदंबरम ने सलमान रश्दी की किताब ‘द सेटेनिक
वर्सेज’ पर पाबंदी के 27 साल बाद

Nov 30, 2015 / 09:13 pm

शंकर शर्मा

The Satanic Verses

The Satanic Verses

साहित्य समाज का दर्पण होता है। सामयिक परिदृश्य को सामने रखता है। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पी. चिदंबरम ने सलमान रश्दी की किताब ‘द सेटेनिक वर्सेज’ पर पाबंदी के 27 साल बाद, इसे गलती मानकर नई बहस का ‘मुखड़ा’ लिख दिया है। सियासत और साहित्य के बीच। चिदंबरम जब तक केंद्र में कद्दावर मंत्री रहे उन्हें अपनी ‘गलती’ का अहसास नहीं हुआ। अब राग ‘स्वीकारोक्ति’ छेड़ रहे हैं। साहित्य कब सत्ता के लिए ‘खतरनाक’ हो जाता है और कब ‘सरस’? इस मामले में एनडीए सरकार क्या पूर्ववर्ती सरकार की गलती सुधारेगी? प्रतिबंध की सियासत पर क्या लगाम लग पाएगी? पढि़ए ऐसे सवालों के जवाब स्पॉटलाइट में…


मुझे ये कहने में संकोच नहीं है कि सलमान रश्दी की किताब ‘सेटेनिक वर्सेज’ पर बैन- लगाना गलत था। पी. चिदंबरम, कांग्रेस नेता

इस गलती को स्वीकारने में तो 27 साल लग गए। लेकिन अब इस गलती को सुधारने में और कितने साल लगेंगे।-सलमान रश्दी, सेटेनिक वर्सेज के लेखक


चिदंबरम ने स्वीकार किया है कि सेटेनिक वर्सेज को बैन करना गलत निर्णय था। बुद्धदेव भट्टाचार्य (प.बंगाल के पूर्व सीएम) कब कहेंगे कि किताब ‘द्विखंडितो’ को बैन करना गलत था? ममता बनर्जी भी चिदंबरम से सीख लें और मेरे से संबंधित टीवी सीरियल से रोक हटाएं। तसलीमा नसरीन, बांग्लादेशी लेखिका

प्रतिबंध जड़ बनाए रखने की साजिश
असगर वजाहत वरिष्ठ टिप्पणीकार
अंग्रेजी के मशहूर उपन्यासकार सलमान रश्दी की कृति ‘सेटेनिक वर्सेज’ पर 27 साल पहले राजीव गांधी सरकार ने प्रतिबंध लगाया था। कांग्रेस की मनमोहन सरकार में पूर्व वित्तमंत्री रहे पी. चिदम्बरम ने ढाई ढशक से भी ज्यादा वक्त गुजरने के बाद राजीव गांधी सरकार के सेेटेनिक वर्सेज पर प्रतिबन्ध लगाने के फैसले को गलत बताकर एक नया विवाद खड़ा कर दिया है। कांग्रेस सरकार ने इस तरह की कई ऐतिहासिक गलतियों को अंजाम दिया है।

विपरीत असर हुआ
कांग्रेस ने इस देश को हमेशा जड़ बनाए रखने की कोशिश की है। वह नए या अलग विचारों का स्वागत करने की बजाए उसपर हमेशा प्रतिबन्ध लगाने पर आमादा रही है। कांग्रेस के लिए अगर ये कहा जाए कि असहिष्णुता को जन्म देने और उसे वैद्यता प्रदान करने में कोई कसर नहीं रखी है तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। सलमान रश्दी की किताब पर अगर कांग्रेस ने प्रतिबंध नहीं लगया होता तो शायद इस किताब के बारे में इतनी बड़ी आबादी को पता भी नहीं चलता। इतने बड़े पैमाने पर उसकी खरीद भी नहीं होती है। प्रतिबंध का मकसद किसी भी चीज को अंधेरे में धकेलना या उसे छिपा कर रखना होता है, लेकिन इसके उलट यह किताब ज्यादा लोगों के हाथ पहुंची।

कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पी. चिदम्बरम को अब यदि किताब पर प्रतिबन्ध लगाना गलत लगा है, तो वे सही सोच रहे हैं। लेकिन, उनके प्रतिबन्ध को गलत बताने की बात पर कांग्रेस के दूसरे नेता हायतौबा मचा रहे हैं। इससे कांग्रेस पार्टी के अंदरूनी लोकतंत्र का भी चेहरा उभकर सामने आता है। पार्टी के भीतर लोकतंत्र नाम की कोई चीज नजर नहीं आती है। कम-से-कम व्यवहार में तो ऐसा कुछ भी नहीं दिखता है। कांग्रेस के कितने भी बड़े नेता को यदि कुछ बुरा लगता है तो उसकी राय को पार्टी महत्व नहीं देती है। इस पार्टी की दिक्कत यह है कि अगर कोई आलाकमान या पार्टी अध्यक्ष या उपाध्यक्ष अगर कुछ गैर-महत्वपूर्ण भी बोल दे तो उसे महत्वपूर्ण मान लिया जाता है।

पाठकों पर छोड़ दें
किसी किताब पर प्रतिबन्ध लगा देना, किसी सभ्य समाज का लक्षण नहीं है। देश के नागरिकों पर यह छोड़ दिया जाना चाहिए कि उनके लिए क्या अच्छा है और क्या बुरा है। कांग्रेस सरकार के तब लगाए गए इस किताब के प्रतिबन्ध से यह भी पता चलता है कि देश में तर्कसंगत या विवेक के आधार पर कोई फैसला लिए जाने की परिस्थिति ही नहीं बन सकी। मेरे खयाल में जवाहर लाल नेहरू थोड़ा ज्यादा और थोड़ी-बहुत इंदिरा गांधी तर्कसंगत विचारों को तवज्जो देते रहे। वैसे तो इंदिरा गांधी ने भी इस देश में इमरजेंसी लगाई थी। उनके अलावा देश में ज्यादातर सरकारें प्रतिबन्ध की हिमायती रहे हैं। कांग्रेस की प्रतिबन्ध लगाने की परंपरा को क्षेत्रीय दल और भाजपा बढ़ाने में लगी हुई है।

विरोध का लोकतांत्रिक तरीका खोजना चाहिए
राजेश जोशीवरिष्ठ साहित्यकार
किसी भी साहित्यिक कृति पर प्रतिबन्ध लगाना कभी भी अच्छी बात नहीं हो सकती है। कभी-कभी सत्ता में बैठे लोग किसी राजनीति-सामाजिक परिस्थितियों में अपना फायदा-नुकसान देखकर प्रतिबन्ध लगाने का निर्णय ले बैठते हैं। लेकिन, मेरा मानना है कि हमें ऐसी एक परिस्थिति तैयार करनी चाहिए जिसमें किसी को कोई किताब न पढऩी हो तो बेशक वह न पढ़े। किसी व्यक्ति या समुदाय को किसी किताब में कोई आपत्तिजनक बात लगती हो तो वह विरोध का कोई लोकतांत्रिक तरीका ढूंढ़े।

सरकार द्वारा किसी किताब पर प्रतिबन्ध लगाने की बात तो कहीं से जायज नहीं ठहराई जा सकती है। अगर कोई साहित्य पोर्नाेग्राफी कैटेगिरी की हो तो प्रतिबन्ध का फैसला तो समझ में आता है। वह यह तर्क दे सकती है कि पोर्नोग्राफी कैटेगिरी के साहित्य से समाज पर प्रतिकूल या नकारात्मक असर पड़ सकता है। लेकिन होता उलटा है कि सरकार पोर्नोग्राफी साहित्य पर तो कभी प्रतिबंध नहीं लगाती है।

किताब खराब है या अच्छी है, इसे पाठकों को तय करने का अधिकार दिया जाना चाहिए। उन्हें किताब खराब लगती हो तो उसके खिलाफ निंदा प्रस्ताव पास कराने का विकल्प हो। वह लेखकों और प्रकाशकों को चिटï्ठी लिखकर विरोध जता सके। कुल मिलाकर आप असहमति के तौर पर कोई भी लोकतांत्रिक या प्रगतिशील समाज के पैमाने पर कोई फैसला लेने का चलन विकसित करने की कोशिश करें।

विशेषज्ञों की संस्था करे प्रतिबंध का फैसला
विवेक तन्खा पूर्व अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल
साहित्य का मूल्यांकन पढ़ा-लिखा समाज ही कर सकता है। वही इस बात का फैसला करता है कि साहित्य, कलाकृति या अन्य प्रकार की कलाओं का स्तर क्या है? उसके अलावा जब भी कोई इस मामले में फैसला करता है तो विवाद उत्पन्न हो जाते हैं। ऐसा ही कुछ सलमान रश्दी की पुस्तक ‘सेटेनिक वर्सेज’ के साथ हुआ।

सुप्रीम कोर्ट की राय
विख्यात अंग्रेजी लेखक डी.एच. लॉरेंस की पुस्तक ‘लेडी चैटर्लीज लवर’ की बिक्री भारत में सत्तर के दशक में हुई। यह ब्रिटेन में 19 वीं शताब्दी के स्थापित सभ्य सामाजिक के मानदंडों के विपरीत और अभद्र शब्दों की भरमार वाली पुस्तक है। भारत में जब इस पुस्तक ‘लेडी चैटर्लीज लवर’की बिक्री को लेकर विवाद उत्पन्न हुआ तो मामला सुप्रीम कोर्ट तक जा पहुंचा।

इस मामले में सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन न्यायाधीश हिदायतुल्ला ने कहा था कि किसी भी किताब को अच्छा या बुरा नहीं कहा जा सकता है। भले ही वह अच्छी तरह से लिखी गई या बुरी तरह से लिखी गई हो सकती है। मैं सुप्रीम कोर्ट की इसी राय से इत्तेफाक रखता हूं और मेरा मानना है कि पुस्तक सामाजिक चेतना का विषय है और उसे समाज पर ही छोड़ देना चाहिए कि वह अच्छी तरह से लिखी गई है या खराब तरीके से। समाज खुद के विवेक से पुस्तक के बारे में अपनी राय बनाने में सक्षम है। समाज को किसी प्रकार के निर्देश देने की आवश्यकता नहीं है।

नकारात्मक प्रचार
दुर्भाग्य से हमारे देश में स्थिति यह है कि जिस साहित्यिक कृति या किताब को महत्व नहीं दिया जाना चाहिए, उसे हम विवादों के जरिए बहुत ही महत्वपूर्ण बना देते हैं। ये हालात कई बरसों से देश में रहे हैं। या दूसरे शब्दों में कहें तो अब ये परिपाटी के समान ही बन गए हैं। इस मामले में हम यह भूल जाते हैं कि हम ऐसी कृतियों का नकारात्मक तरीके से प्रचार ही कर रहे हैं। केवल लेखन के क्षेत्र में ही ऐसा नहीं होता, फिल्मों के मामलों में तो ऐसा बहुत बार देखने और सुनने को मिलता है। बस, एक बार किताब या फिल्म का संबंध किसी विवाद से जोड़ दीजिए, यह विवाद ही उसकी सफलता की गारंटी बन जाएगा। जबकि किताब अथवा फिल्म की कहानी के बारे में जाने बिना भी लोग उसके समर्थक अथवा विरोधी बन जाते हैं।

ऐसे लग सकती है रोक
न्यूज पेपर, पत्रिकाओं, किताबों या फिल्मों में क्या दिखाया जाए या प्रकाशित किया जाए इस पर नियंत्रण का अधिकार सरकार का नहीं हो सकता है। यह बात जरूर है कि सरकार कानून बनाकर तय कर सकती है कि ये बातें अपमानजनक श्रेणी के दायरे में आती हैं और ऐसे मामलों में यह जुर्माना या सजा हो सकती है। यदि इस तरह के कानून की अनुपालना नहीं होती तो मामले को कोर्ट को सौंपा जा सकता है और कोर्ट कानून के मुताबिक इस मामले में फैसला कर सकता है। देश में ऐसा कई मामलों में हुआ भी है।

इसके अलावा किसी विशिष्ट मामले में सरकार को यह लगता है कि कोई प्रकाशित सामग्री अनुचित है तो इसके लिए वह एक संस्था बना दे। उस संस्था के विशेषज्ञ यह तय कर लेंगे कि वास्तव में प्रकाशित सामग्री प्रकाशन योग्य है या नहीं। ऐसे मामलों में किसी भी तरह का फैसला सामाजिक हित में ध्यान में रखकर होना चाहिए। सामाजिक हित के नाम पर राजनीतिक हित साधना उचित नहीं है। हमारे देश में अकसर यही होता है कि सामाजिक हितों के नाम पर राजनीतिक हित साधने की कोशिश होने लगती है। इसे रोकने के लिए विवादित विषयों पर या तो कोई स्वतंत्र संस्था बनाकर उसकी राय पर फैसला लेना चाहिए, अन्यथा न्यायालय पर छोड़ देना चाहिए। सभ्य और पढ़े-लिखे समाज में यदि सरकार इस तरह के फैसले लेगी तो विवाद के बढऩे के आसार बने रहेंगे। सत्ता में आसीन लोग अपने राजनीतिक हितों से अधिक समाज के बारे में ध्यान दें।


भारत में इन किताबों पर प्रतिबंध

द सेटेनिक वर्सेज (सलमान रश्दी)
वर्ष 1988 में भारत बैन लगाने वाला दुनिया का पहला देश। रश्दी पर मुस्लिम धर्म की आस्था पर सवाल उठाने और मोहम्मद साहब का अपमान करने का आरोप लगा।

द हिंदूज : एन अल्टरनेटिव हिस्ट्री (वेंडी डोनिगर)
हिंदू धर्म के देवी-देवताओं की गलत छवि पेश करने का आरोप। कुल 683 पन्नों की इस किताब का विरोध शिक्षा बचाओ आंदोलन समिति ने भी किया।

अंडरस्टैंडिंग इस्लाम थू्र हदीस (राम स्वरूप)
राम स्वरूप की लिखी किताब इस्लाम की निंदा का आरोप लगा। किताब पर विरोध काफी बढ़ा, जिसके बाद प्रकाशक तक को जेल की हवा खानी पड़ी।

लज्जा (तसलीमा नसरीन)
बाबरी मस्जिद प्रकरण के बाद बांग्लादेश में हुई हिंदू विरोधी हिंसा की पृष्ठभूमि पर आधारित इस किताब को भारत में वर्ष 1993 में प्रतिबंधित कर दिया गया था।

द रामायण ऐज टोल्ड (ऑब्रे मेनन)
 हिंदू धर्मग्रंथ रामायण का उपहास उड़ाने वाली इस किताब पर वर्ष 1956 में प्रतिबंध लगा दिया गया। उन पर रामायण के पात्रों का अपमान करने का आरोप।

जिन्ना : इंडिया, पार्टिशन, इंडीपेंडेंस (जसवंत सिंह)
किताब में मोहम्मद अली जिन्ना को विभाजन का जिम्मेदार नहीं बताया। नेहरू और सरदार पटेल को देश के बंटवारे के लिए जिम्मेदार ठहराया गया था।

एन एरिया ऑफ डार्कनेस (वीएस नायपॉल)
 किताब में नायपॉल भारत आने पर यहां के हालात की बयानी करते हैं। गलत छवि पेश करने का आरोप लगा। 1960 में ही भारत पर इस किताब पर लगा बैन।

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