scriptतर्क-कुतर्क | Logic-sophistry | Patrika News
ओपिनियन

तर्क-कुतर्क

जब ऎसे लोग संस्थाओं को चलाएंगे तो उनका बेड़ा गर्क होना
स्वाभाविक है। हमारे भाग्यविधाता सत्य को नामालुम कब समझेंगे

Jul 21, 2015 / 11:18 pm

शंकर शर्मा

Parliament

Parliament

एक फकीर महफिल में सबसे आगे लगी मसनद पर जा बैठा। काजी ने उसे घूर कर देखा तो चौबदारों ने कहा- चल उठ यहां से। तू ऎसीजगह नहीं बैठ सकता। फकीर चुपचाप उठा और पीछे जा बैठा। थोड़ी देर में बातचीत शुरू हुई। तथाकथित दानिशमंद चिल्ला-चिल्ला कर तर्क-कुतर्क करने लगे। कोई मुटी बांध कर चिल्लाता, कोई अपने हाथ जमीन पर मारता।

ठीक संसद का सा हाल हो गया। तभी पीछे बैठा फटेहाल फकीर दहाडा- दलील मजबूत होनी चाहिए न कि गला फाड़ कर गरदन की नसों को फड़काना चाहिए। फकीर की बात पर सन्नाटा छा गया। काजी बोला- अगर तेरे पास समस्या का समाधान है तो बता। फकीर उठा और उसने ऎसे तर्क-वितर्क किए कि सब देखते रहे। उसने अपनी अक्ल का घोड़ा ऎसा दौड़ाया कि उनके गधे तबेले में ही रह गए। अब काजी उठा। उसने विनम्रता से कहा- मुझसे भूल हुई जो आप जैसे विद्वान की कद्र नहीं की। आगे आओ ये पगड़ी पहनो। फकीर बोला- अगर आदमी के पास दिमाग है तो फिर उसे सजावटी पगड़ी की जरूरत ही नहीं है। सिर्फ धन से इंसान विद्वान नहीं हो जाता। गधे को रेशम की झूल पहना दो वह फिर भी गधा ही रहेगा।

आगे से इंसान की कीमत उसके कपड़ों से मत आंकना। आज यही हो रहा है। रेशमी लम्बा कुरता पहन कर लोग अपने को “घाघ” समझने लगते हैं। अपने पैसे से दो-चार किताबें छपवाकर खुद को “कवियों” में शुमार कर लेते हैं। अष्टावक्र गीता के रचियता के साथ भी तो ऎसा ही हुआ था। अष्टावक्र का शरीर टेढ़ा-मेढ़ा था। जब वे राजा जनक के दरबार में पहुंचे तो उनकी आकृति देख कई दरबारी हंस पड़े। ऋ çष्ा ने व्यंग्य से कहा- हे राजन्! मैंने तो सुना था कि तुम्हारी सभा में बड़े विद्वान हैं। ज्ञानी बिराजते हैं लेकिन मुझे तो यहां चर्मकार ही चर्मकार नजर आ रहे हैं।

जो आदमी की चमड़ी देख कर अनुमान लगाते हैं। यह सुनते ही सभा सुन्न हो गई। इसके बाद अष्टावक्र ने जो संभाषण किया वह अद्भुत था। काजी ने फकीर को नहीं पहचाना और दरबारियों ने ऋ çष्ा को। आज भी यही कुचक्र चल रहा है। सत्ताधारी अपने पक्ष के लोगों को ही “राज पाट” सौंपना चाहते हैं। एक महान् फिल्म इंस्टीट्यूट का चेयरमैन नीली फिल्मों के अभिनेता को बना दिया जाता है।

दूसरी संस्थाओं में अपने-अपने ही भरे जा रहे हैं मानो समस्त भारत भूमि पर विद्वानों का अकाल पड़ गया हो। जब ऎसे लोग संस्थाओं को चलाएंगे तो उनका बेड़ा गर्क होना स्वाभाविक है। पता नहीं हमारे भाग्यविधाता सत्य को कब समझेंगे। कांग्रेस राज में खादीपोश, भाजपा के राज में भगवा, “आप” वालों को टोपियों से बाहर कोई सूझ ही नहीं रहा। भले मानुष्ाों कम से कम काबिलियत को तो बख्शो लेकिन मूखोंü के झुंड को काबिलों तक नजर पहुंचाने का सऊूर भी तो आना चाहिए। लेकिन कााबिल इंसान इन बातों की परवाह भी नहीं करता। उसके ज्ञान की खुशबू अपने आप फैलती है।
राही

Home / Prime / Opinion / तर्क-कुतर्क

loksabha entry point

ट्रेंडिंग वीडियो