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अकेलापन

Published: Jul 31, 2015 11:10:00 pm

यहां भी वही “बकवास”। वही चेहरे, वही मोहरे, वही, बहस, वही तर्क
-कुतर्क जो पहले हुआ करते थे। बस ऎंकरनी बदल गई।

Loneliness

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इधर न जाने तबीयत को क्या हो गया है। बड़ा अकेलापन महसूस होने लगा है। कई बार सोचते हैं कि अकेले कहां हैं? परिवार है, दोस्त हैं, सहकर्मी है। इतना सब कुछ होने के बाद भी अकेलापन पीछा नहीं छोड़ रहा। मानो जवानी में किया कोई पाप हो जो बुढ़ापे में पुराने दर्द की तरह टीसता रहता है। पहले सुना और पढ़ा करते थे कि जो शीर्ष पर होता है वह अकेला ही होता है। लेकिन हम तो शीर्ष पर कभी रहे ही नहीं। शीर्ष पर इस वक्त मोदी हैं। वे अकेले हैं या दुकेले यह हमें पता नहीं। हम तो अपनी कह सकते हैं। इसका कोई कारण भी नजर नहीं आता।

अकेलापन भी अजीब बीमारी है। मन नहीं लगता। टीवी देख लिया। अखबार बांच लिए। फिल्में चाट डाली। पुराने भायले-भायलियों से बातें कर ली। फिर लगता है कि अधेड़ावस्था से बुढ़ापे में घुसता हरेक इंसान अपने को अकेला महसूस करते ही होंगे। फिर सोचते हैं कि इस मुददे पर एक फिल्म ही लिख डाले। लेकिन “बाहुबली”, “लार्जर दैन लाइफ” के जमाने में अकेलेपन की पिक्चर को देखेगा कौन? तो क्या करें? कोई तो हमें बताए कि अपने अकेलेपन से जूझने के लिए हम क्या करें? आमतौर पर अकेलेपन से उकता कर आदमी चोरी छिपे पीना शुरू कर देता है लेकिन यह कोई स्थाई उपाय नहीं है। सबसे अच्छा तरीका है कि राजनीति में घुस जाएं। लेकिन वहां भी कौन सी “वैकेन्सी” है।

आजकल तो राजनीति भी प्लानिंग से की जाने लगी है। अपनी बस्ती में रहने वाले एक जुगाड़ू बाप ने बेटे को छात्र संघ का अध्यक्ष बनाने के लिए करोड़ रूपए फूक डाले। लोगों ने पूछा- आपको क्या मिलेगा? वह बोले- लोग अपने बेटे को डॉक्टर बनाते हैं, इंजीनियर बनाते हैं पैसा तो उसमें भी लगता ही है। ये “इनवेस्टमेंट” है। आज जीता है तो कल टिकट के लिए दावेदारी करेगा। टिकट मिल गया और जीत भी गया तो सारा एक झटके में वसूल हो जाएगा। बाप की इस “अंक गणित” से हम बड़े प्रभावित हुए। सोचने लगे हमने तो अपनी सारी जिन्दगी बगैर हिसाब-किताब के निकाल ली। अगर शुरू से ही जोड़, बाकी, गुणा, भाग पर ध्यान देते तो हो सकता है कि इस उम्र में इतना अकेलापन महसूस नहीं होता। क्या आपको भी कभी अकेलापन महसूस होता है? जरूरी नहीं कि सबको होता हो।

किसी को लहसुन से एलर्जी है इसका अर्थ यह नहीं कि आपको भी हो। अकेलेपन से उकता कर हम कई बार टीवी खोल लेते हैं लेकिन यहां भी वही “बकवास”। वही चेहरे, वही मोहरे, वही, बहस, वही तर्क -कुतर्क जो पहले हुआ करते थे। बस ऎंकरनी बदल गई। वरना बाकी सब कुछ यूं का यूं है। कसम से इसी एकरसता से अकेलापन महसूस हो रहा है। सोच रहे हैं नासिक जाकर कुंभ स्नान ही कर आएं। वहां भी अकेलापन सताने लगे तो किसी अखाड़े में शामिल हो जाएंगे। मुई नीरस जिन्दगी में थोड़ा सा तो “थ्रिल” हो। कब तक अकेलेपन के कुए में पड़े रहेंगे।
राही

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