जेब पर चलती घाटे की कैंची
Published: Oct 08, 2015 11:19:00 pm
भले ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पूरे देश
में 2022 तक सभी को 24 घंटे बिजली पहुंचाने की बात कह रहे हों लेकिन
भले ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पूरे देश में 2022 तक सभी को 24 घंटे बिजली पहुंचाने की बात कह रहे हों लेकिन आज तो हालात ये हैं कि जहां बिजली मिल रही हैं वो न तो पर्याप्त है और न ही उपभोक्ताओं की जेब के माफिक।
उपभोक्ताओं को सस्ती व निर्बाध बिजली देने के नाम पर कई राज्यों में विद्युत मंडलों को बांट कंपनियां अब सफेद हाथी साबित हो रहीं हैं। न तो घाटा काबू में आया और न ही उपभोक्ताओं को सस्ती बिजली मिली। अब घाटे से उबरने के नाम पर ये कंपनियां बिजली दरें बढ़ाने में जुट रहीं हैं।
ये कंपनियां बिजली छीजत के साथ कुप्रबंधन पर रोक के ठोस उपाय कर पाएंगी, देश के सबसे बड़े राज्य राजस्थान की बिजली कंपनियों की हालत देख कर ऎसा लगता तो नहीं। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भी इन कंपनियों के हाल कमोबेश एक से हैं। स्पॉटलाइट में पढिए इन्हीं राज्यों की रपट…
राजस्थान : मर्ज बढ़ता ही गया, ज्यों-ज्यों दवा की
करीब 15 साल पहले राजस्थान में तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने उपभोक्ताओं को सस्ती व बेहतर बिजली सुविधाएं उपलब्ध कराने का सपना दिखाते हुए बिजली बोर्ड को भंगकर पांच कंपनियों का गठन किया था। उम्मीद तो यह की जा रही थी कि अच्छे प्रबन्धन से घाटे पर भी अंकुश रहेगा लेकिन हुआ बिल्कुल उलट।
पिछले 15 सालों में बिजली चोरों को राजनीतिक शह, बिजली खरीद से लेकर मेटेरियल खरीद में भ्रष्टाचार और कर्जा चुकाने के लिए भी नया कर्ज लेने की परिपाटी ने आज राजस्थान की तीनों बिजली वितरण कम्पनियों (राजस्थान डिस्कॉम) का घाटा 90 हजार करोड़ कर देश भर में पहले नम्बर पर ला दिया है।
हालांकि डिस्कॉम प्रबन्धन इस घाटे के पीछे वर्ष 2005-06 से वर्ष 2010-11 तक बिजली की दरें नहीं बढ़ाने का तर्क दे रहा है। लेकिन सवाल ये है कि इसके बाद 2011, 2012, 2013, 2015 में बिजली के दामों में बेतहाशा बढ़ोतरी हो चुकी है, फिर भी हालात लगातार क्यों बिगड़ते जा रहे है? राजस्थान के बिजली क्षेत्र की सच्चाई तो ये है कि सरकार चाहे कांग्रेस की हो या फिर भाजपा की दोनों ने ही बिजली कंपनियों की सेहत सुधारने के लिए ठोस काम नहीं किया।
बिजली कम्प्नियों के प्रबन्धन को सुधारने के बजाय सत्ता में बैठे लोगों ने सिर्फ खुद के फायदे के लिए उपयोग में लिया गया। इस दौरान कई बार महंगी दरों पर बिजली की खरीद-फरोख्त हुई तो मैटेरियल खरीद में कई चहेतों को उपकृत किया गया। सूचना एवं प्रौद्योगिकी के नाम पर करोड़ों रूपए फंूक दिए गए लेकिन जनता को आज तक स्मार्ट सेवाएं नहीं मिल पाईं।
बैंकों ने भी किए हाथ खड़े
अगर कंपनियों के पिछले इतिहास को खंगाला जाए तो कई बड़े घोटाले फाइलों में दबे नजर आएंगे। वर्ष 2012 में बैंकों ने कंपनियों की गंभीर वित्तीय स्थिति को देखते हुए पैसा देने से हाथ खड़े कर दिए, तब जाकर हर स्तर पर खलबली मची। लेकिन, इससे पहले तक हालात इतने बिगड़ चुके थे कि अब सभी इस सेक्टर से दूरी बनाना पसन्द कर रहते हंै। भाजपा सरकार तो सत्ता संभालते ही घाटे पर हो-हल्ला कर इस सेक्टर के निजीकरण की नींव रख चुकी है।
कई शहरों को फे्रंचाइजी मॉडल पर निजी कंपनियों को देने का प्लान प्रक्रियाधीन है।
हालांकि, अभी ये कहना भले ही उचित नहीं होगा कि निजी कंपनियों की सेवाओं से जनता कितनी संतुष्ट होगी लेकिन ये सवाल जरूर उठ रहे है कि जब निजी कंपनी इस काम को संभालकर फायदा उठा सकती है तो मौजूदा सरकारी तंत्र क्यों नहीं? इस पूरी मशक्कत में उपभोक्ता की सुविधाओं को ध्यान में रखकर भी सोचा जाना चाहिए।
60,000 करोड़ रूपए का घाटा
केंद्रीय ऊर्जा मंत्री पीयूष गोयल का कहना है कि देश के विभिन्न राज्यों की बिजली वितरण कंपनियां वर्तमान में सालाना लगभग 60 हजार करोड़ रूपए का घाटा झेल रही हैं। उन्होंने कहा कि वितरण कंपनियों को इस घाटे को पाटने के लिए उपाय खोजने होंगे। गोयल ने सुझाव दिया कि इसका एक हल बिजली की दरों में क्रमिक रूप से बढ़ोतरी हो सकती हैं।
फिर कैसे मेक इन इंडिया
औद्योगिक विकास के लिए विद्युत अहम जरूरत है। केंद्र सरकार मेक इन इंडिया का नारा देकर निवेश को आमंत्रित करने के लिए जोर लगा रही है। लेकिन राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में विद्युत उपलब्धता की निराशाजनक स्थिति उजागर हो रही है। केंद्र ने कुछ राज्यों को वित्तीय मदद के संकेत दिए हैं।