मानसिक रूप से कमजोर बच्चों के घर की सच्चाई डराने वाली है। बारह बच्चे मर गए और अनेकों अभी भी बीमार हैं।
गोविंद चतुर्वेदी
मानसिक रूप से कमजोर बच्चों के घर की सच्चाई डराने वाली है। बारह बच्चे मर गए और अनेकों अभी भी बीमार हैं। और यह सारी कहानी तो राजस्थान की राजधानी जयपुर के एक विमंदित गृह की है। पूरे राजस्थान में वे कितने होंगे और उनका क्या हाल होगा, यह न विभाग के मंत्री को पता होगा न सचिव को। इधर, अस्पताल में बच्चे दम तोड़ रहे थे, उधर सरकार और विपक्ष भाजपा और कांग्रेस खेलने में लग गए। तुम्हारे राज में भी ऐसा हुआ था, अब तुम्हे बोलने का हक नहीं। शर्म नहीं आती ऐसा कहने वालों को!
कहां जाकर रुकेगी हमारी राजनीति का गिरना और किन-किन मुद्दों पर करेंगे हम राजनीति? क्या कुछ मद्दों को, राजनीति से अगल भावनाओं के लिए छोड़ेंगे या फिर बलात्कार से लेकर हत्याओं तक पर बढ़ती महंगाई की तरह राजनीति ही करते रहेंगे। यह जानकर शायद सबकों आश्चर्य हो कि इस घर में रहने वाले हर बच्चों के कपड़ों के लिए राज्य सरकार सालाना आठ हजार रुपए देती है। आठ हजार रुपए ही नहीं खाने-पीने के पैसे भी अलग से लेकिन सारे पैसे कहां जाते हैं? खाने-पीने में?
यदि ऐसा नहीं होता तो इस घर का सच ऐसा डरावना नहीं होता। ऐसा नहीं है कि ऐसे हादसे पहले नहीं हुए। हुए हैं, लेकिन तब लोगों को सजाएं भी मिली हैं। समाज कल्याण के छात्रवास में आवासनियों से बलात्कार हुए तो अधीक्षक ही नहीं सचिव और मंत्री तक पर आंच आई। सवाल मंत्री या सचिव के इस्तीफे का नहीं है। सवाल है, उस व्यवस्था को सुधारने का, जिसमें यह सब होता है।
एक घर तो डाकिन भी छोड़ती हैं की तरह भ्रष्ट और निकम्मे लोगों को कम से कम ऐसे विभागों से, काम से तो दूर रखना चाहिए, जहां व्यक्ति को अपनी ही सुध नहीं हो। जब विमंदित बच्चियों के बीच पुरुष घूमेंगे तो कुछ नहीं होने की गारंटी कौन देगा? आखिर मंत्री हो या सचिव उन्हें गीता, रामायण और कुरान-बाइबिल की कसम खाकर यह गारंटी तो देनी ही होगी कि इन बेजुबानों के साथ अन्याय नहीं होगा। यदि वे यह गारंटी दे सकते हैं तो उन्हें जनता के पैसे से मौज-मस्ती करने का कह है, अन्यथा फिर उन्हें घर बैठ जाना चाहिए। निदेशक को एपीओ अथवा अन्य कुछ को निलंबित करने से कुछ नहीं होने वाला। यह सवाल तो तब भी रहेगा कि यदि वे लापरवाह थे तो उनसे ऊपर उन्हें देखने वाले कितने सजग थे?