पारा रंग दिखा रहा है। लगातार चढ़ता जा रहा है। सुबह से ही सूरज शिद्दत के साथ चमकना शुरू कर देता है। दिन में दस बजे तक तो हाल बेहाल होने लगते हैं। दोपहर में सड़कों पर सन्नाटा पसर जाता है मानो किरण कफ्र्यू लागू हो गया हो। एकाध जगह तो पारा पचास पार हो गया। मई और जून तो हमेशा ही तपता है और इस बरस रही-सही कसर पानी की कमी ने पूरी कर दी। पानी का खेल भी अजब है। जीव के शरीर को बाहर भी पानी चाहिए तो भीतर भी पानी की जरूरत होती है। गंदा पानी पी लिया तो गए बारह के भाव।
एक बार हमें पीलिया हो गया। डॉकसाब ने जांच की और बोले- कहीं गंदा पानी पी लिया। हमने कहा- जनाब हम तो घर का पानी पीते हैं। सरकारी नलों से आता है। हमको सरकारी पानी पर पूरा विश्वास है। डॉक्टर हंसे और बोले- विश्वास अंधा होता है। क्या जरूरी है कि घर में आने वाला पानी हमेशा शुद्ध ही हो। वैसे पानी के बारे में लगे हाथों आपको एक सुझाव दे दें। जब भी घर से निकलो पेट की टंकी को पानी से फुल करके निकलो।
चाहो तो कचकड़े की छोटी बोतल में पानी भी भर के साथ ले लो। क्योंकि आजकल सरकार की मेहरबानी से हर चौराहे पर दारू तो मिल जाएगी लेकिन पानी की प्याऊ नहीं मिलेगी। ऐसा नहीं कि गर्मी इस बरस ही पड़ रही है। जरा अपना बचपन याद कीजिए यानी 40-50 बरस पहले के दिन तब न कूलर थे और न एसी। पूरे घर में एक छत का पंखा होता था। गर्मी की दोपहर में सारे घर वाले उसी के नीचे पड़े रहते थे।
अलबत्ता सत्तू का शरबत, नींबू की शिकंजी, कैरी का झोल और प्याज की फालर जरूर होते थे। भरी दोपहर में बाहर निकले तो मां कहती कि प्याज को जेब में रख कर निकल। सिर को ढक कर रख। कसम से इन छोटे-छोटे टोटकों के सहारे गर्मी से लड़ लेते थे। अलबत्ता तब हर चौराहे पर घासफूस की छोटी-सी झोंपड़ी में ठंडे पानी की पांच-सात ‘मूण-मटकियांÓ लेकर एक बूढ़ी काकी या बूढ़ा काका जरूर बैठा रहता जो अपने गंगासागर से शीतल जल पिलाता रहता। अब तो प्यास लगने पर बीस रुपए की बोतल खरीदो।
बेचारा गरीब जिसके नेफे में दो रुपए नहीं होते वह क्या खाकर अपनी प्यास बुझा सकेगा। अलबत्ता सरकारी दफ्तरों, सचिवालयों, अफसरों के कक्षों, नेताओं के बंगलों में जाओ तो भीतर कक्ष में पहुंच कर लगेगा जैसे सीधे चूरू से शिमला पहुंच गए हो। ठंडी- ठंडी हवा में ऊंघते सरकारी अमले को देख लगता है कि भट्टी की तरह तपते इस मौसम में अगर कहीं ठंडा स्वर्ग (कश्मीर) है तो यहीं है, यहीं है, यहीं है।
पर ठंडी सरकारी इमारतों में बैठ कर दोपहरी काटना किस्मत वालों के नसीब में ही लिखा रहता है। हमारे जैसे करमठोक तो दोपहरी से बचने के लिए हांफते कुत्ते की तरह किसी पेड़ की छाया तलाशते हैं पर शहरों में तो सड़क चौड़ी करने के चक्कर में ससुरों ने सारे पेड़ ही काट दिए। बहरहाल जैसे-तैसे रोते-झीकते गर्मी तो काटनी ही पड़ेगी। पहली फुहार पड़ेगी तब जान में जान आएगी पर अभी तो पूरे 60-70 दिन बाकी है। इस गर्मी से बचे तो हम भी देखेंगे ठंडी फुआर।
राही