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ओपिनियन

पंगत

राजा ने द्वार पर जबरदस्त पहरा लगाया लेकिन लढ़ाक भी कम नहीं थे।
वे महल के पास सरोवर में तैर कर ज्यौनार में पहुंच गए

Aug 03, 2015 / 10:35 pm

शंकर शर्मा

Denominational eating

Denominational eating

कसम से खाने का सबसे बड़ा मजा पंगत में बैठ कर आता है। अब तो खड़े- खड़े खाने का चलन हो गया जिसे “गिद्ध भोज” कह सकते हैं। एक हाथ में प्लेट लेकर खड़े-खड़े खाना सबसे मुश्किल कामों में शुमार है। फिर सामान का कॉकटेल देखिए।

गुलाब जामुन की चाशनी धनिए की चटनी में मिल गई है। खस्ता कचौड़ी मटर पनीर में मिल रही है और तन्दूरी के नीचे पड़ी-पड़ी भिण्डी कसमसा रही है और जब बगल में खड़ी किसी भद्र थुलथुल महिला की कोहनी से दाल छलक कर कुरते पर आ गिरती है तो मन करता है कि भरी प्लेट उठा कर या अपने माथे पर मार लें या मेजबान को पकड़ा आएं। गांव में पंगत में बैठ कर ही जीमा करते थे। कद्दू-कैरी का साग, मोतीचूर के लड्डू, गरमा गरम पूरी धाप कर खाते और बरफ का पानी कलेजे को ठंडक देता था। पनीर का नाम हमने सबसे पहले शहर में आकर ही सुना था जब एक सेठजी ने कहा कि बेटी की शादी में वे बरातियों को पालक पनीर खिलाएंगे। अब भी कभी-कभी पंगत में बैठ कर खाने का मौका मिल ही जाता है। जब खबर सुनी कि गुरूजी ने अपने चेलों को भरी पंगत से उठा दिया तो कसम से बड़ा दुख हुआ।

अरे गुरू, पंगत में बैठे शत्रु को भी प्रेम से जिमाया जाता है। अरे क्या हुआ जो कुछ फालतू छोरे ज्यादा भोजन कर गए। अपने यहां तो अजनबियों को भी बुला-बुला कर पंगत में जिमाने की परम्परा है। हो सकता है कि कुछ लढ़ाक भी आ गए हो। लढ़ाक तो आप जानते ही हैं न। जो बगैर बुलाए पंगत प्रसादी जीमने ज्यौनार में घुस जाते हैं। फिर गुलाबी शहर तो लढ़ाकों के लिए उदार रहा है। एक जमाने में राजा ने शहर के लढ़ाकों को चैलेंज किया कि वे उनकी ज्यौनार में जीम कर तो दिखाएं। राजा ने ज्यौनार अपने खास महल में की। द्वार पर जबरदस्त पहरा लगाया लेकिन लढ़ाक भी कम नहीं थे। वे महल के पास उस सरोवर में तैर कर ज्यौनार में पहुंच गए जिसमें बड़े-बड़े मगरमच्छ तैरा करते थे। नंगे बदन पानी में तैरे।

महल की मुंडेर पर कपड़े बदले और ज्यौनार में जीम कर चांदी का सिक्का दक्षिणा में लिया। बिना बुलाए छक कर जीमने का अनुभव एक बार हमने भी किया।किसी सेठ की मां का बारहवां था।उसने तरह-तरह के व्यंजन-पकवान-मिठाई बनवाई। हम भी अपने मित्र के साथ जीमने पहुंच गए।

पत्तल हमारे सामने भी सजा दी गई लेकिन कसम से एक कौर भी खाना मुश्किल हो गया। ऎसा लगा जैसे सारे के सारे पुरसगारी करने वाले हमें देख कर हंस रहे हों। बस उस दिन से कसम खा ली कि कभी बगैर बुलाए कहीं जीमने नहीं जाएंगे। लेकिन गुरूजी ने तो चेलों को बाकायदा बुलाया था। जब बुला लिया तो जिमा भी देते। काहे को रोड़ा किया। खैर कुछ बातें समझ के बाहर होती हैं। पता नहीं क्यों दूसरे के मामले में टेंशन ले लेतेहैं। माफ करना ये पुरानी आदत है। इसके चलते कई बार जूते पड़ते-पड़ते बचे हैं।
राही
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