scriptउड़ते मोदी, ठहरी सरकार | Modi flying, like a government | Patrika News

उड़ते मोदी, ठहरी सरकार

Published: May 17, 2015 09:51:00 pm

प्रधानमंत्री के आश्वासन के बावजूद, हवा में डर
और असुरक्षा की सूक्ष्म भावना मौजूद है। हो सकता है कि अल्पसंख्यकों पर हमलों को
बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया गया हो, जैसा कि सरकार दावा

MODI

MODI

प्रधानमंत्री के आश्वासन के बावजूद, हवा में डर और असुरक्षा की सूक्ष्म भावना मौजूद है। हो सकता है कि अल्पसंख्यकों पर हमलों को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया गया हो, जैसा कि सरकार दावा करती है। पर इस तथ्य से इंकार करना मुश्किल है कि उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में अब भी व्यापक निम्न स्तरीय सांप्रदायिक लामबंदी देखी जा सकती है।

जन विमर्श में नजर आने वाला भद्दापन और आक्रामकता, भारत के लिए कोई शुभ संकेत तो नहीं देता। संभव है कि सरकार इसके लिए जिम्मेदार नहीं हो, पर सरकार ने ऎसा भी कोई संदेश देने का प्रयास नहीं किया कि असहिष्णुता को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।


कभी-कभी विश्लेषण के बजाय चुटकुले सच्चाई को अधिक प्रभावशाली तरीके से उजागर कर पाते हैं। वर्तमान सरकार के तौर-तरीके समझने के लिए भी हम एक प्रचलित मजाक का सहारा ले सकते हैं – यूपीए और एनडीए सरकार में क्या अंतर है? यूपीए सरकार में हमारे पास सरकार थी पर प्रधानमंत्री नहीं, एनडीए सरकार में हमारे पास प्रधानमंत्री हैं पर सरकार नहीं है! इस मजाक में एक क्रूरअतिरंजना है, पर यह मोदी सरकार के एक साल के मुख्य तनाव को रेखांकित करता है।

प्रधानमंत्री अभी भी लोकप्रियता की अपेक्षाकृत उच्च लहर पर सवार हैं, पर सरकार बेहद साधारण दिख रही है। उन क्षेत्रों में जहां प्रधानमंत्री अतिरिक्त समय दे रहे हैं, जैसे विदेश नीति, उसका कुछ उद्देश्य है। अभियान के स्वरूप में शुरू की गईं सामयिक योजनाएं जैसे जन-धन योजना ने अपने लक्ष्य हासिल किए हैं। उच्च स्तर पर चलने वाले भ्रष्टाचारपूर्ण लेन-देन में फिलहाल कमी आई है, यह भावना भी है। जीएसटी जैसे बडे विधायी परिवर्तन आने वाले दिनों में लागू हो सकेंगे, इसको लेकर माहौल आशाजनक है। पर अपने समग्र रूप में सरकार लड़खड़ा रही है, क्रियान्वयन और अंतिम ब्यौरे में उलझ रही है।

यह सही है कि मोदी सरकार से लोगों की अपेक्षाएं अवास्तविक रूप से उच्च थीं। नियमन और प्रशासनिक धरातल पर जो अव्यवस्था यूपीए सरकार ने विरासत में छोड़ी थी, उसको साफ करना किसी भी तरह से आसान नहीं था। पर मिस्टर मोदी बहुत भाग्यशाली भी रहे। वैश्विक स्तर पर पेट्रोल के कम दाम के रूप में उनको एक ऎसा अप्रत्याशित लाभ मिला जो कि कोई भी नेता सिर्फ उम्मीद कर सकता है, जिसके कारण मुद्रास्फ ीति और सब्सिडी के मोर्चे पर उनकी चुनौतियां अपने आप ही कम हो गईं।

आर्थिक प्रदर्शन से निराशा

सरकार का आर्थिक प्रदर्शन निराशाजनक रहा है। प्रधानमंत्री के बड़बोले बयानों के विपरीत, अब तक ऎसा लगभग कोई निर्णय नहीं लिया जा सका है जिसे कि “बोल्ड” कहा जा सके। कुछ नए कल्याणकारी उपाय, जैसे कि वृद्धावस्था पेशन और बीमा तो आवश्यक हैं। पर यूपीए सरकार की कल्याणकारी योजनाओं की तुलना में इन्हें शायद ही नया और दूरगामी कहा जा सके। सब्सिडी के तर्कसंगतिकरण (पेट्रोल को छोड़कर, जो कि यूपीए के समय में हुआ था) की दिशा में बहुत कम प्रगति हुई है। आधार योजना के जारी रहने के कारण, अधिक तर्कसंगत कल्याणकारी राज्य की दिशा में एक संभावित मंच तैयार हो गया है, पर इस कल्याण का भावी स्वरूप अब भी निश्चित नहीं है। यद्यपि समावेशीकरण की दिशा में गरीबी रेखा पर ठहरने की बजाय, मूल तत्वों जैसे बिजली और बुनियादी सुविधाओं पर केंद्रित होने की सरकार की सोच सही है।

सामाजिक मोर्चे पर ढिलाई
पर सरकार सामाजिक क्षेत्र के व्यय की दिशा में मिश्रित प्रशासनिक और वित्तीय संकेत दे रही है। इसकी उसको राजनीतिक कीमत चुकानी पडेगी: ऎसे समय में जबकि ग्रामीण मजदूरी ठहरी हुई है, जिसके कारण मांग में गिरावट आई है, मनरेगा ही एक मात्र उपाय था जिसके माध्यम से ग्रामीण क्षेत्र में अल्पकालिक असंतोष को संबोधित किया जा सकता था। मांग ठहर रही है और यह ग्रामीण क्षेत्र की आय को बढ़ाए बिना पुनर्जीवित नहीं की जा सकती।

वित्त मंत्रालय से हैरानी

दूसरे, यूपीए के दौर में विधायी अभिमान और वकीलों जैसी असावधानियों की वजह से अर्थव्यवस्था कष्टकर ठहराव की स्थिति में आ चुकी थी। इस सरकार के भी इसी तरह के जाल में फं सने का जोखिम है। कर मुद्दों को लेकर वित्त मंत्रालय की विश्वसनीयता गिरावट के एक नये स्तर को छू रही है और उसे इससे उबरने में समय लगेगा। इस सत्र में मंत्रालय ने बीमा, खनन और कोल को लेकर कुछ महत्वपूर्ण विधान पारित किए, पर दो महत्वपूर्ण कानूनों जैसे भूमि अधिग्रहण और जीएसटी को लेकर इसका रवैया हैरान करने वाला है।

भूमि अधिग्रहण कानून, 2013 में कुछ संशोधनों की जरूरत है, पर सरकार का रवैया गलत मशविरे पर आधारित है। एक अर्थपूर्ण और व्यवहारिक मध्यममार्ग की बजाय, यह सीधे 1894 के दौर में जाने की कोशिश कर रहा है। इस प्रçRया में यह अनावश्यक रूप से काफी राजनीतिक पूंजी भी गंवा चुका है।

जीएसटी जब पारित होगा, तो यह “गेम-चेंजर” साबित होगा। पर यह समझना मुश्किल है कि सरकार ने क्यों इस दिशा में प्रयास नहीं किए कि पूर्ण क्षमता वाला जीएसटी विधेयक साकार हो सके। अंतरराज्यीय करों के बने रहने से यह जोखिम बना रहेगा , जैसा कि एक टिप्पणीकार ने दर्ज किया है कि हम “दीमक-खाए” जीएसटी कानून की ओर बढ़ रहे हैं। फिर, नियमन के लगभग हर मुद्दे पर, कर से लेकर पर्यावरण तक, सरकार ने अनिश्चितता कम करने के बजाय बढ़ाई है। ऎसा लगता है कि उसके पास वह सहयोगी ढांचा ही नहीं है, जो कि आधुनिक 21वीं शताब्दी के नियम-कानून बना सके।

क्रियान्वयन ही बना चुनौती
तीसरे, इस सरकार की विशिष्टता दरअसल क्रियान्वयन होनी थी। कुछ मंत्रालयों, जैसे रेलवे में, आश्वस्तिकारी नई उर्जा का संचार हुआ है, कोल मंत्रालय ने भी कम से कम कोल इंडिया को उत्पादन के मोर्चे पर उचित आकार-प्रकार में लाकर खड़ा कर दिया है। पर आम निवेश को घरों से बाहर निकालने के मोर्चे पर, जो कि आर्थिक उन्नति को गति देने में निर्णायक होता है, सरकार को अभी अपना प्रदर्शन दिखाना शेष है। पर, जैसा कि विनायक चटर्जी ने हाल में ध्यान दिलाया है, यहां तक कि सार्वजनिक निविदाओं में भी गिरावट आई है। रूकी हुई परियोजनाओं को आरंभ करने के लिए सरकार के पास कोई भरोसेमंद योजना नहीं है, जिनमें अधिकांश भूमि-अधिग्रहण की समस्या को लेकर नहीं रूके हुए हैं।

शिक्षा में प्रदर्शन निर्लज्ज
सरकार की सबसे बड़ी और निर्लज्जतापूर्ण असफलता स्वास्थ्य और शिक्षा के मोर्चे पर रही है। यह सही है कि इस क्षेत्र में भी विरासत में अव्यवस्था मिली थी, पर यही दो क्षेत्र हैं जहां इस बात के संकेत भी नहीं हैं कि इस क्षेत्र की गहरी समस्याओं को हल करने की दिशा में सरकार के पास कोई बुनियादी सोच भी है। जरूरत के मुताबिक वित्तीय सहायता भी इन दोनों क्षेत्र में सुस्त है, नियामक ढांचा पूरी तरह से बिखरा हुआ है तथा वातावरण में विद्यमान तदर्थवाद और अनिश्चितता के संकेत तो इन क्षेत्रों के भविष्य को अंधकारमय ही इंगित करते हैं।

यह भी स्वीकार करना होगा कि प्रधानमंत्री के आश्वासन के बावजूद, हवा में डर और असुरक्षा की सूक्ष्म भावना मौजूद है। हो सकता है कि अल्पसंख्यकों पर हमलों को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया गया हो, जैसा कि सरकार दावा करती है। पर इस तथ्य से इंकार करना मुश्किल है कि उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में अब भी व्यापक निम्न स्तरीय सांप्रदायिक लामबंदी देखी जा सकती है। जन विमर्श में नजर आने वाला भद्दापन और आक्रामकता, भारत के लिए कोई शुभ संकेत तो नहीं देता है। संभव है कि सरकार इसके लिए जिम्मेदार नहीं हो, पर सरकार ने ऎसा भी कोई संदेश देने का प्रयास नहीं किया कि असहिष्णुता को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।

यह अहसास है कि प्रधानमंत्री उंचा उड़ना चाहते हैं। प्रधानमंत्री मोदी को अभी भी जनसमर्थन हासिल है क्योंकि कोई दूसरा विकल्प नजर में नहीं है। पर क्या सरकार के पास प्रधानमंत्री को समर्थन करने वाली इंजन शक्ति मौजूद है, खुला सवाल यही है। फि लहाल अनुकूल बाहरी कारकों के समर्थन से पुष्ट अर्थव्यवस्था कुछ घर्राते हुए साथ दे रही है, इसलिए सरकार की कमजोरियां फिलहाल तो ढंकी ही रहेंगी। इसके पूर्व कि हवा इस घर्राते – घिसटते इंजन को तयशुदा मार्ग से दूर फे क दे, इसको एक साथ कार्य करना ही होगा।


प्रताप भानु मेहता अध्यक्ष, सेटर फॉर पॉलिसी रिसर्च
loksabha entry point

ट्रेंडिंग वीडियो