से कहते हैं “हाथी के दांत खाने के और, दिखाने के
और।” चुनाव के समय जनता के धन का दुरूपयोग रोकने और भ्रष्टाचार को जड़ से उखाड़
फेंकने के दावे करने वाले राजनेता कुर्सी पर बैठते ही रंग बदल लेते हैं। लोकसभा
चुनाव के समय धन की बर्बादी रोकने के नाम पर चुनाव जीतने वाली भारतीय जनता पार्टी
और इसके नेता भी सत्ता में आते ही “सत्ता के रंग” में रंगने लगे हैं। सांख्यिकी
मंत्री वी.के. सिंह ने लोकसभा में सांसद निधि कोष राशि पांच से बढ़ाकर 25 करोड़
रूपए करने पर विचार की बात कही तो लगा कि केन्द्र में सरकार भले बदल गई हो लेकिन
राजकाज के तौर-तरीके बिल्कुल नहीं बदले।
1993 में पी.वी. नरसिंहराव सरकार के समय एक
करोड़ रूपए सालाना से शुरू की गई सांसद निधि कोष राशि आज पांच करोड़ तक पहुंच गई
है। हर साल हजारों करोड़ रूपए खर्च होने के बावजूद इस राशि से क्या काम हो रहे, कोई
नहीं जानता। राशि बढ़ाकर 25 करोड़ करने का साफ मतलब हर साल 20 हजार करोड़ रूपए
सांसदों की मर्जी पर छोड़ना है। सब सांसद इस राशि का दुरूपयोग भले नहीं करते हों
लेकिन अधिकांश मामलों में गड़बड़ी की बात सामने आ चुकी है।
वीरप्पा मोइली के
नेतृत्व में गठित प्रशासनिक सुधार आयोग भी इस कोष को बंद करने की सिफारिश कर चुका
है। इस कोष की शुरूआत उस दौर में हुई थी जब नरसिंहराव सरकार अल्पमत में थी और
लोकसभा में बहुमत साबित करने को लेकर दबाव में रहती थी।
2003 में अटल बिहारी
वाजपेयी सरकार ने कोष की राशि एक करोड़ से बढ़ाकर दो करोड़ की तो राज्यसभा में
कांग्रेस के तत्कालीन नेता मनमोहन सिंह ने इसका विरोध किया था। लेकिन वही मनमोहन
सिंह जब सत्ता में आए तो 2011 में उनकी सरकार ने कोष की राशि दो करोड़ से बढ़ाकर
पांच करोड़ कर दी। यानी हर सरकार ने सांसदों को खुश रखने का पूरा-पूरा प्रयास किया।
राव सरकार अल्पमत में थी तो वाजपेयी-मनमोहन सरकार गठबंधन धर्म से बंधी हुई थी।
लेकिन आज मोदी सरकार न अल्पमत में है और न उसे साथियों के सहारे की जरूरत है।
फिर
भी सांसद निधि कोष की राशि बढ़ाने पर विचार हो रहा है तो जरूर कुछ खास बात होगी।
बेहतर हो कि सरकार जनता को भी इस कोष की राशि बढ़ाने के बारे में विस्तार से समझा
दे। बयान के जरिए, विज्ञापनों के जरिए अथवा “मन की बात” के माध्यम से। सरकार
विस्तार से बताए कि बीते 21 सालों में इस कोष के जरिए कितना धन खर्च हुआ और इसका
लाभ क्या हुआ? पैसा जनता का खर्च हो रहा है तो उसे जानकारी तो होनी ही चाहिए। ऎसे
मुद्दों पर सभी दल और सभी सांसद तुरंत एकराय बना लेते हैं तो इसमें कुछ न कुछ
“खासियत” तो जरूर होगी।
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