समाजवादी पार्टी में अब उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव हर स्तर पर विजयी होकर निकले हैं। राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में सपा की कमान तो अखिलेश के हाथ में आ ही गई है, साइकिल चुनाव चिन्ह की लड़ाई भी जीतने के बाद एक तरह से उत्तरप्रदेश सपा में अब अखिलेश युग का आगाज हो गया है। सबकी निगाह अब प्रदेश में भावी चुनावी समीकरणों की ओर है। सब जानते हैं कि सपा सुप्रीमो के रूप में मुलायम सिंह यादव हमेशा गैरभाजपा और गैरकांग्रेस के महागठबंधन की वकालत करते रहे हैं।
वहीं अखिलेश ने अपने बूते साफ-सुथरी सरकार बनाने व विकास के नाम पर चुनाव मैदान में जाने की बातें कई बार कही है। साथ ही यह भी कहा है कि कांग्रेस साथ आए तो वे प्रदेश मेें 300 से ज्यादा सीटें जीतने की स्थिति में रहेंगे। जाहिर है अब अखिलेश, कांग्रेस से गठबंधन की जो बातें पहले प्रशांत किशोर के जरिए करते आए हैं अब खुलेआम करेंंगे। ऐसा गठबंधन यदि बन गया तो यह साफ है कि उत्तरप्रदेश में आगामी विधानसभा चुनावों में सपा, कांग्रेस और अजित सिंह के राष्ट्रीय लोकदल के साथ अखिलेश नई ताकत के साथ मैदान में उतर सकते हैं।
अखिलेश, राहुल गांधी और जयंत चौधरी की यह तिकड़ी उत्तरप्रदेश में चुनावी महासमर को त्रिकोणीय संघर्ष का रूप दे सकती है। गठबंधन का फैसला अखिलेश ही करेंगे और सबसे ज्यादा सीटें भी वे अपने पास रखेंगे। यह तस्वीर आगामी एक-दो दिन में साफ हो जाएगी।
यह भी उम्मीद की जा रही है कि कुछ और छोटे दल भी इस गठबंधन का हिस्सा हो सकते हैं। कौमी एकता दल के सपा में विलय और अतीक अहमद जैसे नेताओं को उम्मीदवार बनाने का अखिलेश सख्त विरोध करते रहे हैं। कौमी एकता दल के मुख्तार अंसारी को छोड़कर उनके भाइयों के प्रति अखिलेश का रवैया जरूर नरम हो चला है।
तमाम मतभेदों के बावजूद यह भी एक तथ्य है कि अखिलेश, अपने पिता मुलायम सिंह के नाम व सरकार के काम के सहारे ही चुनावी वैतरणी पार करने की कोशिश करेंगे। चुनाव आयोग से कानूनी लड़ाई जीतने के बाद खुद अखिलेश ने पार्टी कार्यालय में कहा कि उनके व मुलायम सिंह के बीच कोई मतभेद नहीं है। वे मेरे पिता हैं और पिता ही रहेंगे। अब यक्ष प्रश्न यह है कि क्या मुलायम और अखिलेश के बीच चली यह जंग थम गई है?
तस्वीर का एक पहलू यह भी है कि मुलायम ने भले ही अखिलेश को लेकर तल्खी दिखाई हो, लेकिन उन्होंने हमेशा रामगोपाल यादव को ही दोषी ठहराया। वे यही कहते रहे कि अखिलेश, रामगोपाल के बहकावे में है। लेकिन उनकी यह बात गले नहीं उतरती कि पांच साल का कार्यकाल पूरा करने वाला मुख्यमंत्री अखिलेश यह साजिश नहीं समझे कि कोई भाजपा के इशारे पर उसको बहकाने में लगा है।
एक बात यह भी रेखांकित करने की है कि मुलायम सिंह अभी भी पुत्रमोह में हैं, इसीलिए वे अखिलेश के प्रति नरम रवैया रखते हैं। चुनाव आयोग को पूरे दस्तावेज न सौंपना भी उनके इसी रवैये का परिचायक है। लेकिन राजनीतिक गलियारों में यह भी चर्चा है कि सपा के इस संपूर्ण ‘महाभारत’ की पटकथा पहले से ही तैयार थी। मैं इसे मानने को तैयार नहीं। यदि यह पटकथा भी थी तो तय संवादों से अलग संवाद अदायगी किसी के लिए भी आत्मघाती ही होती है।
अब भले ही चाचा शिवपाल यादव अदालत में जाने की बात कह रहे हों लेकिन मेरा मत है कि अखिलेश अपने पिता के नाम को छोडऩा नहीं चाहेंगे। टिकटों के बंटवारे में अभी और तस्वीर साफ होगी। वैसे भी सिर्फ दस फीसदी सीटों को लेकर ही विवाद था। अब देखना यह है कि अखिलेश, जिनके पास सपा उम्मीदवार तय करने का सर्वाधिकार है, अतीक अहमद, मुख्तार अहमद और अमनमणि त्रिपाठी सरीखे दागी नेताओं को बाहर का रास्ता दिखा पाएंगे अथवा नहीं। सही मायने में अखिलेश यादव को यह प्रयास करना ही होगा कि उनके उम्मीदवारों में कोई दागी नहीं आ पाए। फिर भी राजनीतिक दल कोई भी हो, उम्मीदवार तय करते समय जाति, धर्म और समुदाय का सहारा जरूर लेगा। लेकिन इस बार विकास का मुद्दा भी हावी रहेगा और नोटबंदी व कानून-व्यवस्था का भी।
सभी को युवा मतदाताओं पर खास फोकस करना होगा। बहरहाल, यह कहा जा सकता है कि समाजवादी पार्टी में अखिलेश युग का आगाज हो गया है। यूं कह सकते हैं कि मुलायम युग अब अखिलेश युग में प्रवेश कर गया है। हालांकि, अखिलेश युग की शुरुआत तो तब ही हो गई थी जब तमाम दावेदारों को पटकनी दे पांच साल पहले युवा अखिलेश ने प्रदेश की कमान संभाली। लेकिन बड़ी बात यह है कि शिवपाल यादव अब अलग-थलग पड़ गए हैं।
उन्हें थोड़ी-बहुत राहत तब ही मिल सकती है जब मुलायम खुद मैदान में उतरें। वे अखिलेश से अलग राह चल ऐसा कर पाएंगे इसकी उम्मीद कम ही है। मुलायम ने अखिलेश से मुसलमानों की नाराजगी का जिक्र कर एक राजनीतिक शिगूफा छोड़ा है। कई बार उन्होंने रामगोपाल को भाजपा की ‘बी’ टीम बताया है। इन तमाम बातों के बावजूद अखिलेश की सत्ता वापसी की राह आसान नहीं है। भाजपा और बसपा भी पूरी तैयारी के साथ मैदान में आएगी। सत्ता विरोधी लहर का असर भी अखिलेश को झेलना पड़ सकता है। मुख्यमंत्री के रूप में उत्तरप्रदेश मेें अच्छे-बुरे कामों का जवाब भी अखिलेश को ही देना है।
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