बिहार के ताजा राजनीतिक घटनाक्रम ने साफ कर दिया है कि आज के दौर में विचारधारा और सिद्धान्त नाम की चीज रह ही नहीं गई। नेताओं की प्राथमिकता रह गई है येन-केन-प्रकारेण सत्ता से चिपके रहना। महज सोलह घंटे के बिहार के राजनीतिक ड्रामे ने मुंबइया मसाला फिल्मों को भी मात दे डाली।
नीतीश कुमार ने बुधवार की शाम छह बजे इस्तीफा दिया और गुरुवार की सुबह फिर मुख्यमंत्री पद की शपथ ले डाली। इन सोलह घंटों में कुछ बदला तो ये कि दोस्त, दुश्मन बन गए और दुश्मन, दोस्त बन बैठे। नीतीश ने भ्रष्टाचार से समझौता न करने के मुद्दे पर लालू यादव और कांग्रेस का साथ छोड़ एक बार फिर उसी भाजपा का दामन थाम लिया जिसका साथ उन्होंने चार साल पहले छोड़ दिया था। तब वे भाजपा की बागडोर संभालने वाले नरेन्द्र मोदी के साथ कदम मिलाते हुए चलते दिखना इस डर से नहीं चाहते थे कि कहीं उन पर साम्प्रदायिकता का दाग नहीं लग जाए।
अब नीतीश अपने उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव के भ्रष्टाचारी दाग से बचना चाहते थे, तो उन्होंने मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा से फिर दोस्ती गांठ ली। बिहार की जनता समझ नहीं पाई कि नीतीश ने तब गलती की थी या अब। जनता की समझ से राजनेताओं को कोई फर्क भी नहीं पड़ता। बिहार में आधी रात चले ड्रामे ने यह बात भी साफ कर दी कि सत्ता के लिए किसी भी दल को न किसी से परहेज है और न ही कोई सिद्धान्त ही मायने रखते हैं। ये वही नीतीश हैं जिन्होंने भाजपा से किनारा किया था तो उसके मंत्रियों को बर्खास्त कर उन्हें अपमान का घंूट पीने को विवश कर दिया था।
भाजपा नेताओं को अपने घर भोजन पर आमंत्रित कर भोज रद्द कर दिया था। सत्ता की मिठास ने भाजपा नेताओं को वह कड़वाहट भुलाने को विवश कर दिया। आज राहुल गांधी और लालू यादव, नीतीश को कोस रहे हैं। लेकिन इसकी गारंटी कौन दे सकता है कि यही राहुल और लालू सत्ता के लिए कल फिर नीतीश से हाथ नहीं मिला लेंगे।
समझ नहीं आता कि विश्वास किस पर किया जाए और कितनी बार? बिहार की जनता ने पांच साल के लिए महागठबंधन को सत्ता सौंपी थी। नीतीश का भाजपा के साथ सरकार बनाना जनता के विश्वास का अपमान नहीं है? और अगर है तो इस अपमान के लिए असल दोषी किसे माना जाए? लालू के पुत्र मोह को या नीतीश के हठ को। या दोनों को। फैसला जनता को ही करना है।