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घबराए दुनिया के बाजार

Published: Jun 30, 2015 07:25:00 am

ग्रीस का आर्थिक संकट तीन साल पुराना है। लेकिन पिछले डेढ़ साल से इस संकट
में ठहराव आ गया था। दरअसल यूरोपियन सेंट्रल बैंक के चेयरमैन ने यह कह दिया 

Greece

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प्रो. गुलशन सचदेवा
यूरोप मामलों के जानकार
ग्रीस का आर्थिक संकट तीन साल पुराना है। लेकिन पिछले डेढ़ साल से इस संकट में ठहराव आ गया था। दरअसल यूरोपियन सेंट्रल बैंक के चेयरमैन ने यह कह दिया था कि हम यूरो को किसी भी कीमत पर गिरने नहीं देंगे। वर्ष 2001 में जब यूरोजोन के सभी मुल्कों ने एक करंसी (यूरो) अपनाई, तब सभी देशों का अच्छा विकास हुआ था। शुरूआती सात साल तक एक करंसी का कदम सफल रहा। पर ज्योंही अमरीका में आर्थिक मंदी आई तो यूरोप में सारे वित्तीय संस्थान बहुत सतर्क हो गए थे। पहले जब सभी देश एक साथ आए थे तो इनकी वैश्विक बाजार में एक सकारात्मक छवि बनी थी। तब बाहरी देशों से यूरोजोन में बड़ी मात्रा में निवेश आने लगा था। ब्याज दरें भी यहां कम हो गईं। ज्यों ही ब्याज दरें कम हुईं तो उधारी बढ़ने लगी, वहां की सरकारें भी अंतरराष्ट्रीय बाजार से उधार लेने लगी। सभी मानकर चल रहे थे कि इन अर्थव्यवस्थाओं के जुड़ने से सभी देशों को फायदा होगा।

…जब मच गई खलबली
पर अमरीकी मंदी के बाद ग्रीस में जब नई सरकार आई तो उसने कहा कि वहां जितना राजकोषीय घाटा बताया जा रहा है, वह उससे कहीं अधिक है। यह निर्धारित 3 फीसदी की बजाय 7-8 फीसदी हो गया था। यह खबर आते ही यूरोजोन और बाहरी देशों के वित्तीय संस्थानों में खलबली मच गई। अचानक बाहर का निवेश आना कम हो गया। जो पुराना निवेश वापस लौटाना था, उसके भुगतान में मुश्किल आने लगी।

ग्रीस से पहले भी ऎसे कई देश थे, जहां ऎसा संकट आया था। पर वे आईएमएफ से ऋण लेकर अपनी मुद्रा का अवमूल्यन कर लेते थे। पर ग्रीस के साथ दिक्कत यह हुई कि इसकी मुद्रा भी यूरो थी, जो बाकी देशों के साथ भी जुड़ी हुई थी। इसलिए उसका अवमूल्यन नहीं किया जा सकता था। ग्रीस को जब बाजार से पैसा नहीं मिल रहा था तो यूरोपियन सेंट्रल बैंक, आईएमएफ और यूरोपियन कमिशन ने मिलकर मदद की। पर यही समस्या स्पेन, पुर्तगाल जैसे देशों में भी आना शुरू हो गई थी। इससे यह लगने लगा था कि एकल मुद्रा की स्थिति में बदलाव लाना पड़ेगा।

इसको देखकर एक सुरक्षा फंड बनाया गया। पर आईएमएफ जब ऋण देता है तो कुछ शर्ते भी लगाता है। मसलन, सरकारी खर्चे और पेंशन कम करना, सब्सिडी का बोझ घटाना आदि। यही ग्रीस को अपनानी थीं। पर ऎसी नीतियों के साथ कोई सरकार ज्यादा दिन सत्ता में नहीं रह सकती। इसका परिणाम यह हुआ कि वहां एक “अतिवामपंथी” राजनीतिक दल की सरकार बनी। यह दल बड़े वित्तीय संस्थानों की आर्थिक नीतियों के खिलाफ है।

इसने कहना शुरू कर दिया कि हम यूरो से बाहर नहीं निकलेंगे। हालांकि यह कोई वैधानिक प्रावधान कहीं नहीं है कि कोई देश यूरोजोन से बाहर कब और कैसे हो सकता है? ग्रीस की अर्थव्यवस्था यूरोजोन के अन्य देशों से अलग है। भले ही ग्रीस की सरकार वामपंथी हो पर उसके बावजूद उसने यूरोजोन से बाहर निकलने की बात नहीं कही। उसे मालूम है कि अगर वे यूरोजोन से बाहर निकलेंगे तो सारी समस्या ग्रीस की ही हो जाएंगी। अभी यह समस्या पूरे यूरोजोन की है।

ग्रीस तो नहीं चाहेगा
हालांकि पिछले 15 दिन के घटनाक्रम को देखें तो जो बेलआउट पैकेज ग्रीस को मिलने वाला था, उसकी नई किश्त के लिए खास शर्ते लगा दी गईं। ग्रीस में 25 फीसदी बेरोजगारी है व 50 फीसदी युवा बेरोजगार हैं। उसका कहना है कि इन शर्तो को मानने पर ग्रीस की अर्थव्यवस्था पर ज्यादा नकारात्मक असर पड़ेगा। अगर ग्रोथ नहीं होगी तो वह पैसा वापस कैसे कर पाएंगे। इसे लेकर यूरोजोन में ग्रीस से वार्ता चल रही थी। असल में यह एक खेल खेला जा रहा है।

ग्रीस तो अभी भी यही मानकर चल रहा है कि बाकी देश ग्रीस को नहीं निकलने देंगे। वरना यूरोपियन प्रोजेक्ट पर सवालिया निशान लग जाएगा। भले ही ग्रीस छोटी अर्थव्यवस्था हो पर उसके संकट मात्र से ही दुनिया के बाजार गिर रहे हैं। मुद्राओं पर फर्क पड़ गया है। तो उसके बाहर निकल जाने पर क्या हाल होगा? दुनिया में वैसे ही ग्रोथ अभी कमजोर है। यह सब स्थिति ग्रीस को मालूम है। उसका वह फायदा उठाना चाह रहा है।

यूरोप व अमरीका के अर्थशाçस्त्रयों का भी यही कहना है कि अगर ग्रीस को निकाला गया तो इसका बहुत नकारात्मक असर होगा। हालांकि अब यह अहसास होने लगा है कि बाकी यूरो करंसी वाले मुल्कों ने आखिरकार मन बना लिया है कि ग्रीस को निकाल देना चाहिए। उनका यह भी कहना है कि बार-बार ग्रीस को जो ढील दी जा रही है, उससे स्पेन, पुर्तगाल जैसे मुल्क भी इन परिस्थितियों का फायदा उठाने लगेंगे। इसलिए अन्य देशों ने मिलकर पिछले दो साल से ऎसा सिस्टम बना लिया है ताकि ग्रीस के बाहर हो जाने पर यूरोजोन पर कम से कम असर पड़े।

दोगुना हो गया है कर्ज
जब यूरोजोन में सभी मुल्क शामिल हुए तो यह शर्त रखी गई थी कि किसी भी देश पर उसकी जीडीपी का 66 फीसदी सार्वजनिक ऋण नहीं होना चाहिए पर वर्तमान स्थिति यह बन गई है कि ग्रीस पर उसकी अर्थव्यवस्था का दोगुना कर्जा हो गया है।

यह है ग्रीस की परेशानी
2008 में ग्रीस की अर्थव्यवस्था संकट में थी और सरकार के लिए वित्तीय घाटे की भरपाई करना मुश्किल होता जा रहा था। इससे उबरने के लिए ग्रीस ने अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष और यूरो बैंक से भारी कर्ज लिया। ग्रीस की आर्थिक स्थितियों को रेटिंग एजेंसियों ने नकारात्मक श्रेणी में डाल दिया। इससे ग्रीस और भी अधिक आर्थिक संकट में फंसता चला गया।

2011 में विकास दर तीव्र गति से गिरने लगी। 2012 तक बेरोजगारी 33 फीसदी के स्तर पर आ गई। ग्रीस की बड़ी-बड़ी कंपनियों ने भी खुद को दिवालिया घोषित करना शुरू कर दिया। इससे उबरने के लिए ग्रीस ने भारी ऋण लेने शुरू कर दिए।
320 अरब यूरो का कुल ऋण हो चुका है ग्रीस पर। जिसमें यूरो जोन के सदस्य देशों द्वारा दिया गया 52.9 अरब का सहायता ऋण, अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष (आईएमएफ) का करीब 32 अरब, यूरोपीय केंद्रीय बैंक (ईसीबी) का करीब 25 अरब और यूरोपीय बेलआउट फंड (ईएफएसएफ) का करीब 140 अरब यूरो ऋण है।

30 जून (आज) को ग्रीस की आईएमएफ को करीब 1.5 अरब यूरो चुकाने की डेडलाइन है। संकट इसलिए बढ़ा क्योंकि ईसीबी और ग्रीस के बीच 28 जून को हुई बातचीत विफल हो गई। ईसीबी ने ग्रीस में इमरजेंसी फंडिंग बढ़ाने के लिए इनकार कर दिया। ईसीबी की घोषणा ने ग्रीस के बैंको के ऊपर दबाव बढ़ा दिया है। ग्रीस के बैंक पहले से ही केन्द्रीय बैंक के ऊपर निर्भर थे।

29-30 जून की मध्य रात्री को ग्रीस के प्रधानमंत्री एलिक्सिस त्सिप्रास ने आर्थिक नियंत्रण उपायों की घोषणा की क्योंकि बिगड़ते हालात को देखते हुए लोग बैंको की तरफ पैसा निकालने के लिए भागने लगे। उपायों के तहत 6 जुलाई तक सभी ग्रीक बैंको सहित विदेशी बैंक बंद रहेंगे, खाता धारकों को एटीएम से दिन में 60 यूरो से अधिक निकालने की अनुमति नहीं होगी और बिना पूर्व अनुमती के अपने पैसे को देश से बाहर नहीं भेजा जा सकता।
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