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नीतीश; मजबूत या मजबूर?

Published: Nov 22, 2015 10:23:00 pm

जनता द्व्रारा किसी दल या गठबंधन को विकास, सुशासन और सामाजिक न्याय जैसे
मुद्दों पर भारी बहुमत देना और फिर उस दल या गठबंधन का उस बहुमत के साथ
न्याय करना

Opinion news

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जनता द्व्रारा किसी दल या गठबंधन को विकास, सुशासन और सामाजिक न्याय जैसे मुद्दों पर भारी बहुमत देना और फिर उस दल या गठबंधन का उस बहुमत के साथ न्याय करना, दोनों बहुत अलग बाते हैं। बिहार में भी जब नीतीश-लालू के गठबंधन को जीत हासिल हुई तो उन्होंने कहा कि जीत सुशासन और सामाजिक न्याय की हुई है। पर नीतीश द्वारा मंत्रियों के चयन और उनके शपथग्रहण समारोह में ऐसा फिलहाल तो नजर नहीं आया। मंच पर नजर आया तो सिर्फ लालू का प्रभाव। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के बाद शपथ ली लालू के बेटे और उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव ने और फिर तेज प्रताप ने। लालू ने अपने ही वरिष्ठ नेताओं को पीछे धकेल दिया। सवाल यहीं उठता है कि नीतीश जिस ‘बिहार मॉडल’ की बात करते हैं क्या वह ‘हावी’ लालू के साथ टिक पाएगा? क्या जाति-परिवार की राजनीति सुशासन को चोट पहुंचाएगी? और सबसे बड़ा सवाल, क्या यह महागठबंधन की सरकार वाकई एनडीए का एक मजबूत विकल्प बनकर उभरेगी? इसी पर पेश है आज का स्पॉट लाइट…

सुशासन तो अब पीछे छूट जाएगा
राशिद किदवई वरिष्ठ पत्रकार
बिहार चुनाव की शुरुआत से ही नीतीश एक कमजोर नेता थे। मुख्यमंत्री वे भले ही बन गए हैं पर ताकतवर नेता लालू यादव ही बनकर उभरे हैं। लालू यादव का पुनर्जन्म हुआ है। इस सरकार में नीतीश कुमार की मजबूरियां तो साफ हैं। लालू ने एक बेटे को उप मुख्यमंत्री बनाया। दूसरे को भी केबिनेट मंत्री बनवाया। सरकार के शपथ ग्रहण समारोह में आरजेडी हावी रही। यह जाहिर तौर पर नीतीश कुमार पर राजनीतिक दबाव की वजह से है।

अभी तो लालू यादव लक्ष्मण रेखा में रहेंगे। पर मेरा मानना है कि उत्तर प्रदेश चुनाव में अगर गैर-भाजपा सरकार बनी तो लालू ज्यादा हावी हो जाएंगे। नीतीश-लालू का टकराव भी हो सकता है। मध्यमवर्ग के लिए नेताओं की शिक्षा बड़ा मुद्दा रहता है। राजनीतिक अनुभव बहुत मायने रखता है। दोनों ही लिहाज से तेजस्वी यादव फिट नहीं बैठते। उप मुख्यमंत्री का कोई कॉन्सेप्ट ही नहीं है। हमारे संविधान में काउंसिल ऑफ मिनिस्टर्स हैं और मुख्यमंत्री है।

उप मुख्यमंत्री भी मंत्री जैसा ही है। हमारे देश की राजनीतिक व्यवस्था का बड़ा दुर्भाग्य है कि सुशासन और भाईचारा मुद्दा जरूर होते है पर यह कभी साथ-साथ नहीं दिखते। अब बिहार में यह जनादेश लालू यादव के मुताबिक भाईचारे को मिला है। जबकि सरकार में सुशासन और भाईचारा दोनों रहना चाहिए। पर यहां अंदेशा है कि सुशासन का मसला पीछे रह जाएगा। परिवार और जाति की राजनीति ज्यादा दिखाई देगी।

इसमें दोराय नहीं है कि बिहार में जाति के भरोसे ही वोट मिले हैं। पर यह सरकार नीतीश की बहुत बड़ी परीक्षा है। नीतीश का अतीत देखें चाहे वे केंद्र में मंत्री रहे या बिहार में मुख्यमंत्री, एक लायक नेता की भूमिका में रहे। पर लालू की संस्कृति अलग है। दोनों एक विचारधारा से निकले पर इनका काम करने का मॉडल बिलकुल अलग है। अब या तो नीतीश बदल जाएंगे या लालू। नीतीश सुशासन की बात करते हैं, वहीं लालू के लिए जाति-शासन पहले है। यह आरजेडी की संस्कृति नीतीश के लिए चुनौती होगी।

केबिनेट पर सवाल
राजनीति और वह भी लोकतंत्र में, इस बात पर चलती है कि किसी भी अथवा किसी विषय विशेष पर आम जनता क्या सोचती है? यदि बिहार के मतदाताओं ने नीतीश कुमार और महागठबंधन को विकास और सुशासन के लिए वोट दिया था तब कम से कम नई केबिनेट उस सोच को पूरा करती नहीं दिख रही है। सियासत में इस प्रकार की सोच अथवा राय ही किसी भी सरकार के बारे में छवि का निर्माण करती है।

दबाव की राजनीति
भले बिहार के मतदाताओं का एक हिस्सा इस बात से खुश हो कि लालू यादव के दोनों बेटे मंत्री बन गए, उनमें से एक तेजस्वी यादव तो उपमुख्यमंत्री भी बन गया लेकिन बिहार ही नहीं देश के मतदाताओं का एक बड़ा हिस्सा ऐसा भी है जो मानता है कि यह गलत शुरुआत है। उसे लगता है कि ये दबाव की राजनीति की शुरुआत है। उसका मानना है कि बिहार में जिस तरह से राजनीति हो रही है वह मतदाताओं की अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं है।

लालू कोई नौसिखिए नहीं, पिछली गलती नहीं दोहराएंगे
सतीश मिश्रा सीनियर फैलो, ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन
महागठबंधन की सरकार ने बिहार में गद्दी संभाल ली है। राजद को जनादेश मिला है सत्ता में भागीदारी का। लालूप्रसाद यादव के छोटे बेटे तेजस्वी को उपमुख्यमंत्री एवं बड़े बेटे तेजप्रताप यादव को स्वास्थ्य जैसे अहम पद मिले हैं। आशंकाओं का दौर भी चल पड़ा है। राजनीति में राय अहम होती है। इस मामले में भी माना जा रहा है कि लालूप्रसाद-राबड़ी के पिछले 15 साल के राज के दौरान बिहार में ‘जंगलराज’ की वापसी हो सकती है। लेकिन मेरा मानना है कि महागठबंधन का गठन ही इसलिए हुआ था कि नीतीश और लालू ने ये समझ लिया था कि साथ नहीं हुए तो सफाया तय है।

 ऐसे में ये आशंका कि लालू के दोनों बेटों को सरकार में अहम पद मिलने से बिहार में लूट की शुरुआत हो जाएगी, ऐसे में ये मानना थोड़ी जल्दबाजी होगी। हमें फिलहाल कथित ‘लालूवाद’ से उपजी आशंकाओं पर दोनों यादव पुत्रों को संदेह का लाभ (बेनेफिट ऑफ डाउट) देना होगा। पहले हमें छह महीने देखना होगा कि क्या बिहार में पिछला अध्याय दोहराया जा रहा है। यदि ऐसा होता है तो ही हमें कोई राय बनानी चाहिए। वैसे भी लालू कोई नौसिखिए राजनेता नहीं हैं। गलती नहीं दोहराएंगे। नीतीश के बिहार मॉडल को भी कोई ‘खतरा’ फिलहाल दिखाई नहीं दे रहा है। इसके पीछे कारण हैं।

नीतीश ने गृह, कानून-व्यवस्था, विजिलेंस जैसे अहम मंत्रालय अपने पास रखे हैं। साथ ही बिहार के विकास के विजन डाक्यूमेंट के मंत्रालय अपनी पार्टी जदयू के मंत्रियों को सौंपे हैं। इसके जैसे नीतीश पिछले सालों से बिहार को विकास की राह पर ले जा रहे हैं, उसे आगे भी बढ़ाएंगे। यादव पुत्रों को लेकर ‘परिवारवाद’ की आशंकाएं भी राजनीतिक शब्दावली भी फिट नहीं बैठती है। तेजस्वी और तेजप्रताप दोनों युवा हैं। दोनों के कार्यों को देखने के बाद ही कोई राय बनानी चाहिए। आखिर लालू का वोट बैंक भी सरकार में अपना प्रतिनिधित्व चाहता है। राजनीति के हिसाब से ये यादव पुत्रों से ही पुष्ट हो सकता है।

लालू के सामने घुटनों के बल नीतीश
एन के सिंह वरिष्ठ पत्रकार व जनरल सेक्रेटरी, बीईए
नवम्बर 20, 2015, प्रजातंत्र के साथ 65 साल से कानून और लोक नैतिकता के बीच चल रहे द्वन्द्व का एक नया रूप था। कुछ ने इसे प्रजातंत्र का मजाक कहा तो कुछ ने इसका इस्तकबाल किया। कानूनी और लोक-नैतिकता की एक रस्साकशी में इस बार कानून जीता। राष्ट्रीय जनता दल (राजद) सुप्रीमो लालू यादव के अर्ध-शिक्षित दोनों बेटों ने बिहार के मंत्री के रूप में शपथ ली, शाम को उनमें से एक उप-मुख्यमंत्री घोषित हुआ। लगभग 18 साल पहले इन बच्चों की अशिक्षित मां को रसोई घर से सीधे लाकर राज्यपाल द्वारा मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाई गई।

कानून-लोक नैतिकता का द्वन्द्व फिर देखने को मिला था। राबड़ी देवी को सदन में बहुमत हासिल करने में 112 साल पुरानी राष्ट्रीय पार्टी- कांग्रेस और एक क्षेत्रीय दल- झारखंड मुक्ति मोर्चा- की मदद मिली थी। कानून असहाय देखता रहा। जो कानून लालू यादव को चारा घोटाले में मुख्यमंत्री पद छोडऩे को मजबूर करता है, वह कानून उसी दिन राबड़ी को मुख्यमंत्री बनाने से लालू को नहीं रोक सकता था।

कथित सामाजिक न्याय
एक नेता, जो प्रजातंत्र और नीम सामाजिक चेतना-जनित पहचान समूह की राजनीति का उत्पाद होता है (जिसे कुछ बुद्धिजीवी ‘सामाजिक न्याय की ताकतें’ और ‘सबाल्टर्न पॉलिटिक्स’ (दबे कुचलों की राजनीति कहते हैं) अपने मुख्यमंत्रित्व काल में शासकीय कार्य के दौरान किए गए भ्रष्टाचार का आरोपी बनता है। सीबीआई जब मामले में प्रारंभिक तौर पर सचाई देखते हुए राज्यपाल से इस मुख्यमंत्री के खिलाफ पूछताछ की अनुमति मांगती है और राजनीतिक दबाव बनता है तो वह नेता घर की रसोई से उठाकर अपनी अशिक्षित पत्नी को मुख्यमंत्री बना देता है। शासन चलता रहता है। इस बीच जांच अपनी मंथर गति से आगे बढ़ती है और वह नेता देश की राजनीति में आता है और रेल मंत्री बन जाता है। यानी जिस कानून के तहत उसे मुख्यमंत्री का पद छोडऩा पड़ता है, वह कानून इस मामले में लागू नहीं होता जबकि भ्रष्टाचार में देश की जांच के सर्वोच्च संस्था उसे दोषी पाती है।

लोक नैतिकता का पैमाना
तीन मूल प्रश्न हैं। क्या कुछ गलत हुआ है? और अगर हुआ है तो गलती कहां हुई है और किसने की है? साथ ही एक और प्रश्न है यह गलती (अगर है) कानूनी है या लोक नैतिकता के स्तर पर? और अगर इसका उत्तर मिल जाए तो यह प्रश्न – क्या कानून और लोक नैतिकता में संबंध नहीं है यानी क्या दोनों एक दूसरे के पूरक नहीं हैं?

न्याय तो यही कहता है कि जो लोक नैतिकता है, उसी के अनुरूप कानून बनता है। फिर 65 साल में यह विभेद क्यों? अगर लालू अदालत की नजर में भ्रष्ट हैं और उन्हें कानूनन अगले छह साल तक चुनाव लडऩे यानी लोक-जीवन से बाधित किया जाता है तो जनता उन्हें क्यों वोट देती है? क्या जनता के लोक-नैतिकता के पैमाने अलग है? और अगर जनता वोट देती है तो क्या यह माना जाए कि संदेश यह है कि ‘भ्रष्टाचारी भी चलेगा किंग मेकर के रूप में?’ क्या यह भी संदेश जनता का है कि लगभग तीन लाख करोड़ रुपए के बजट वाले और 11 करोड़ आबादी वाले इस राज्य का नियंता और रहनुमा एक ऐसा लड़का (या लड़के) होगा, जो ‘अपेक्षित’ और ‘उपेक्षित’ में अंतर नहीं जानता। आज विकास बेहद जटिल हो गया है। क्या ‘कुख्यात’ आईएएस अधिकारी उसे हर रोज भ्रमित नहीं करेंगे? और अगर यह कहा जाए कि मुख्यमंत्री नीतीश की देखरेख में सबकुछ रहेगा तो इन ‘रबर स्टैम्प’ की जरूरत क्यों है?

बच्चों के मातहत
मुख्यमंत्री के बाद के तीनों पद (वरीयता के अनुसार) क्रमश: लालू के पुत्र तेजस्वी, तेज प्रताप और और लालू की पार्टी के ही अनुभवी अब्दुल बारी के पास होंगे। यानी अगर नीतीश बिहार से बाहर हैं तो तेजस्वी या तेज प्रताप मंत्रिमंडल की बैठक की सदारत करेगा और बारी और राजीव रंजन सिंह (लल्लन सिंह) इन बच्चों के मातहत होंगे। इस व्यवस्था में यह साफ है कि नीतीश कुमार लालू यादव के सामने अपने घुटनों के बल रहे। लालू के ही आदेश पर नीतीश के निकट रहे और सक्षम श्याम रजक को मंत्रिमंडल से आदेश पर बाहर किया गया। अगर घुटनों के बल ही बैठना था तो भाजपा से संबंध-विच्छेद को नैतिक आधार का जामा क्यों पहनाया? भाजपा ने तो दस साल साथ रहने पर ऐसा नहीं किया था?

जो लालू की ताकत, वही नीतीश का डर
इन सब से हटकर एक और प्रश्न खड़ा होता है – इस तरह की लोक-नैतिकता का प्रश्न उठाने वाले हम स्वतंत्र विश्लेषक कहीं अभिजात्यवर्गीय पूर्वाग्रह के शिकार तो नहीं? क्यों नहीं जब तक अंतिम अदालत से ‘दूध का दूध’ नहीं हो जाता हम लालू यादव को युधिष्ठिर मानते और देश पर राज करने देते? जगन्नाथ मिश्र करें तो कोई ‘ब्रांडिंग’ नहीं और लालू करें तो लोक-नैतिकता का सवाल? कांग्रेस या भाजपा जयललिता (भ्रष्टाचार में निचली अदालत से सजा पाने के बाद) का साथ लें तो नैतिकता का सवाल नहीं, लेकिन नीतीश 360 डिग्री पलटी मारें तो ‘अनैतिक’ और ‘सत्ता के लिए कुछ भी करने को तत्पर’ की संज्ञा?

इन सब से भी एक बड़ा अन्य प्रश्न है। अगर जनता लालू के शासनकाल को ‘जंगल राज’ नहीं मानती और लगातार 20 प्रतिशत से ऊपर (इस बार 42 प्रतिशत) वोट देती है तो हम विश्लेषक को क्या अधिकार है गलत बयानी का। आखिर जनता की अदालत ही तो किसी भी प्रजातंत्र की ‘भव्य’ इमारत की नींव होती है। कांग्रेस के के. कामराज भी अशिक्षित थे पर लोक बुद्दिमता में कई तत्कालीन नेता उनसे सीखते थे। संभव है तेजस्वी और तेज प्रताप को कल शासन चलाना आ जाये और अगर नहीं भी आये तो बिहार के समाज के 15 प्रतिशत यादव का गलत या सही सशक्तिकरण तो कर ही सकते हैं -यही तो लालू की ताकत है और यही नीतीश का डर भी रहेगा।
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