इससे बड़ी त्रासदी और क्या हो सकती है कि जो काम राज्य
सरकारों को करने चाहिए, वह काम न्यायालयों को करने पड़ रहे हैं। वह भी नशे की लत को
छुड़ाने के लिए। राजस्थान हाईकोर्ट ने लाइसेंसधारी ठेकों के माध्यम से डोडा-पोस्त
की बिक्री पर पूरी तरह रोक लगाकर वो काम किया है जो वर्षो पहले ही हो जाना चाहिए
था। न्यायालय ने डोडा-पोस्त से नशे के आदी लोगों को सरकारी चिकित्सकों की सलाह पर
दवाई के रूप में इसका उपयोग करने को कहा है। इसके लिए नशे की लत वाले पंजीकृत लोगों
को दवाई के रूप में खुराक दी जाएगी।
छह वर्ष पूर्व केन्द्र सरकार ने 14 राज्यों में
डोडा-पोस्त की बिक्री नियंत्रित करने और जल्द से जल्द इसकी बिक्री पर रोक लगाने को
कहा था। छह साल में राजस्थान इस दिशा में खास उपलब्घि हासिल नहीं कर पाया। उलटे
जिला प्रशासन के माध्यम से राज्य सरकार तक ऎसी रिपोर्ट आती रही कि डोडा-पोस्त की
बिक्री पर रोक लगाई गई तो बड़ी संख्या में लोग बीमार हो जाएंगे। ऎसी रिपोर्ट
राजनीतिक दबाव के चलते आती थी या किसी और कारण से, इस तथ्य को छोड़ भी दिया जाए तो
इस बात की जांच तो होनी ही चाहिए कि डोडा-पोस्त की बिक्री को कौन चालू रखवाना चाहता
है? डोडा-पोस्त की लत ने कितने परिवारों को तबाह कर रखा है, यह किसी से छिपा नहीं।
पंजाब के जरिए देश के तमाम भागों में इसकी जमकर तस्करी अनजान तथ्य नहीं है।
सरकारों
का काम नशे की बढ़ती महामारी पर रोक लगाना होना चाहिए न कि वोटों के लालच में आकर
इसको बढ़ावा देना। हाईकोर्ट के फैसले के बाद डोडा-पोस्त की सरकारी बिक्री तो बंद हो
जाएगी लेकिन इसकी तस्करी बढ़ने की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता। सरकार को
डोडा-पोस्त की खुराक के लिए पंजीकरण कराने वाले मरीजों की जांच की भी पुख्ता
व्यवस्था करनी चाहिए।
कहीं पंजीकरण में भी तो गड़बड़झाले का खेल नहीं होता?कोर्ट की
मंशा के अनुरूप सरकार को वो सब कदम उठाने के लिए तैयार रहना चाहिए जिससे इसकी
बिक्री पर पूरी रोक लग सके। सरकारें नशा मुक्ति के लिए अभियान चलाती हैं, योजनाएं
बनाती हैं लेकिन उस दिशा में कारगर उपाय नजर नहीं आते। सिर्फ खानापूर्ति के लिए
अभियान चलते हैं। हाईकोर्ट की पहल अंजाम तक पहुंचे, तभी इसकी सार्थकता साबित होगी।
सरकार जिम्मेदारी के साथ नशे की महामारी को रोकने की दिशा में सक्रिय हो जाए तो
अनेक परिवार फिर खुशहाल जिंदगी जी सकते हैं।