वर्तमान मानसून सत्र समेत संसद के पिछले
12 सत्रों में चार सत्र ऎसे रहे हैं जबकि संसद में तय कार्यक्रम का 25 फीसदी भी काम
नहीं हुआ। ऎसे में सवाल उठना लाजिमी है जब हमारे सांसद पूरा काम ही नहीं करते तो
फिर उन्हें पूरा वेतन क्यों दिया जाए? इसी से जुड़ा सवाल है कि क्या जनप्रतिनिधि और
वेतनभोगी कर्मचारियों को एक ही श्रेणी में रखना उचित कहा जा सकता है? प्रश्न यह भी
है कि क्या वेतन कटौती का भय दिखाकर हम अपने जनप्रतिनिधियों से वह करा सकता हैं,
जिसके लिए वे चुने गए हैं? अगर नहीं तो क्या हो सकता है विधायिकाओं में आए दिन नजर
आने वाले हंगामे और शोरगुल का हल ? इसी पर पढिए आज के स्पॉटलाइट में जानकारों की
राय :
असरकारी तो सामूहिक दंड ही होगा
पार्थ जे. शाह अध्यक्ष, सेंटर
फॉर सिविल सोसायटी
सांसदों की वेतन कटौती का जो प्रस्ताव है, उसे एक
लोकप्रिय जनाक्रोश की तरह से समझना चाहिए। जनता में इसको लेकर गुस्सा है कि हम जिन
संसदों को जनप्रतिनिधि बनाकर भेजते हैं, वे कितने गैरजिम्मेदार तरीके से संसद में
व्यवहार करते हैं। इसके लिए जनता चाहती है कि इन संासदों को अपने गैर-जिम्मेदार
आचरण के लिए दंडित किया जाना चाहिए। पर दंड का स्वरूप ऎसा होना चाहिए जिसका संासदों
में डर हो। असर हो।
आर्थिक दंड काफी नहीं
लेकितन बात सिर्फ लोकप्रिय
जनाक्रोश की ही नहीं है। संसद अगर ठप पड़ी है, कोई कामकाज नहीं हो रहा है तो यह
चिंता का विषय सभी आम और खास के लिए है। यह सिर्फ आज की बात भी नहीं है। ऎसा कई
सालों से हो रहा है। लेकिन “काम नहीं तो वेतन नहीं” जैसा आर्थिक दंड संभवत: सांसदों
पर कारगर नहीं हो सके। “काम नहीं तो वेतन नहीं” का दंड वहां कारगर हो सकता है जहां
कि इससे प्रभावित होने वाले कर्मी या व्यक्ति की आय वेतन पर निर्भर करती हो। ऎसे
व्यक्ति से आर्थिक दंड का भय दिखाकर हम काम करा सकते हैं। उसको काम पर ला सकते हैं।
पर सांसदों के साथ यह मामला है नहीं। संासदों का वेतन उनकी आय का बहुत छोटा हिस्सा
होता है। इसलिए वेतन कटौती का उन पर कोई खास असर होगा, ऎसा लगता नहीं है। इसलिए
इसका कोई ऎसा निरोधात्मक उपाय सोचना होगा जो किन्हीं एक – दो अथवा दस-पच्चीस
संासदों को नहीं, सबको प्रभावित करे। आखिर संसद चले, यह जिम्मेदारी सत्तापक्ष या
विपक्ष की नहीं सभी संासदों की होना चाहिए। जब तक हम इस सामूहिक जिम्मेदारी के भाव
से नहीं सोचेंगे तब तक समस्या का हल नहीं निकल सकता।
संसद का टर्म ही घटता
जाए
होना यह चाहिए कि ऎसा कानूनी प्रावधान हो कि एक वष्ाü में कुछ न्यूनतम दिन
या घ्ंाटे तो संसद अवश्य ही काम करे। जैसे एक वष्ाü मे 120 दिन या फिर 800-900 घंटे
तो संसद में कामकाज हो, ऎसा कानूनन अनिवार्य बनाया जाए। संसद कार्रवाई में कितने
बिल पारित या खारिज होते हैं, कितने प्रश्न पूछे गए, प्रश्न काल कितना रहा, बहस
कितनी हुई, यह सब प्रश्न सेकेंडरी हैं। इनसे संसद के कामकाज के गुणात्मक मूल्यांकन
में बहुत सहायता मिलती भी नहीं है।
मूल चिंता तो यही होना चाहिए कि संसद एक निश्चित
समय अवधि जैसे एक वष्ाü (या एक सत्र में) में कुछ निश्चित दिन या घंटे सुचारू रूप
से कामकाज तो करे। ऎसा नहीं होने पर दंड का विधान भी कुछ संासदों या सत्ता पक्ष
अथवा विपक्ष तक सीमित न हो।
दंड सभी को समान रूप से मिले। उदाहरण के लिए एक दंड यह
हो सकता है कि अगर संसद एक साल में निश्चित दिनों या घंटों तक नहीं बैठती है तो फिर
संसद की कुल समय अवधि पांच साल से घटाकर कुछ माह कम कर दी जाए! क्योंकि ऎसी संसद जो
काम ही नहीं कर रही, उसको अधिक समय तक जारी रखने की जरूरत ही क्यों और किसे होना
चाहिए? इसी तरह जो संसद लगातार दो साल या तीन साल तक न्यूनतम समय भी काम नहीं करे
तोे उसे कुछ अधिक दंड दिया जा सकता है। इस प्रकार का दंड संभव है कि संासदों पर
कारगर हो सके और उन्हें संसद चलने देने के लिए प्रेरित कर सके।
इन्हें भाड़े
का प्रतिनिधि कहें
प्रो. जगदीप छोकर एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक
रिफॉम्र्स
हमें यह समझना होगा कि सांसद कर्मचारी नहीं होते, वे जनप्रतिनिधि
होते हैं। जनप्रतिनिधि पैसे के लिए काम नहीं करते। इसलिए उनके संदर्भ में यह मांग
करना कि वे अगर काम नहीं करे, तो उनके वेतन में कटौती की जाए, यह संसद, सांसद
मंत्री, जनता और लोकतंत्र सभी की अवमानना के समान है। अगर ऎसा ही व्यवहार हमें अपने
संासदों के साथ करना है तो फिर उनको जनप्रतिनिधि कहने की जरूरत नहीं। यह और भी
दुर्भाग्य की बात है इस तरह का प्रस्ताव खुद संासद-मंत्रियों की तरफ से आ रहा है।
इसका आशय यह है कि वे अपने को वेतनभोगी या दिहाड़ी मजदूर समझते हैं। क्या इसका अर्थ
यह भी निकाला जाए कि वे जनप्रतिनिधि होने लायक नहीं?
एक वेतनभोगी जब काम पर रखा
जाता है तो बातचीत का सबसे बड़ा मुद्दा होता है कि कितना वेतन मिलेगा? पर जब जनता
अपने जनप्रतिनिधि का चयन करती है तो वेतन तो किसी ओर से मुद्दा ही नहीं होता। अगर
हमारे सांसद और मंत्री वेतन के लिए काम करते हैं तो फिर इन्हें जनप्रतिनिधि के बजाय
भाडे के प्रतिनिधि कहना होगा। सवाल यह है कि वेतन कटौती नहीं फिर संसद में इस
गतिरोध का हल क्या हो? इसके लिए हमें मूल में जाना होगा। संसद में गतिरोध इसलिए
पैदा हुआ है क्योंकि हमारे जनप्रतिनिधि दरअसल जनप्रतिनिधि की तरह व्यवहार ही नहीं
कर रहे। वे खुद के प्रतिनिधि या बहुत हुआ तो अपनी पार्टी के नेता के प्रतिनिधि की
तरह काम करते हैं।
जनता करे सवाल तो क्या जवाब दें…
विजय
गोयल सांसद
अगर संसद नहीं चलेगी और लगातार बाधित होती रहेगी, वहां कोई
कामकाज नहीं होने से लाखों-करोड़ों रूपए व्यर्थ चले जाएंगे तो जनता तो सवाल करेगी
ही। इसका क्या जवाब दिया जाए कि सांसदों को न केवल जिस दिन काम नहीं किया उस दिन के
भत्ते बल्कि वेतन भी क्यों दिया जाना चाहिए?
फर्क तो पड़ता ही है
सांसदों को
अर्थदंड का विशेष फर्क नहीं पड़ता तो हाजिरी करने के लिए वे दफ्तर तक दौड़ नहीं
लगाते। यदि फर्क नहीं पड़ रहा होता तो वेतन और भत्तों में बढ़ोतरी के प्रयास ही
नहीं किये जाते। मेरा मानना है कि कम या ज्यादा लेकिन फर्क तो पड़ता ही है। फिर
वेतन-भत्ते कटे या नहीं कटे या फिर कितना कटे? इस सवाल से अधिक महत्वपूर्ण है हमारा
उत्तरदायित्व। हो सकता है कि कुछ सांसदों को फर्क नहीं पड़ता हो लेकिन कामकाज नहीं
करने की स्थिति में वेतन-भत्तों की कटौती वास्तव में सांकेतिक है। वह तो उस
जिम्मेदारी का अहसास कराने के लिए है, जिसके लिए उन्हें संसद में भेजा गया
है।
सजा तो होनी ही चाहिए
मेरा मानना है कि संसद की कार्रवाई में भाग लेना
बहुत ही महत्वपूर्ण है। एक या दो दिन की बात होती तो भी ठीक था लेकिन पूरे-पूरे
सत्र में हंगामा हो रहा हो और कामकाज ठप पड़ा हो, यह ठीक नहीं लगता। इस संदर्भ में,
इंडियन पार्लियामेंट्री ग्रुप की बैठक में मैंने ही सुझाव दिए हैं कि लोकसभा और
राज्यसभा के नियम और प्रक्रिया पर दोबारा विचार करना ही चाहिए। सदन में किसी ने
प्लेकार्ड दिखाया, उसका भत्ता तुरंत समाप्त हो जाए, कोई वेल में आया उसे स्वत: ही
निलंबित मान लिया जाना चाहिए। बात आर्थिक हानि की नहीं बल्कि स्वयं पर अंकुश की है।
खुद पर नियंत्रण को लेकर हमें ही तो सोचना पड़ेगा।
यदि इस तरह के व्यवहार पर
कार्रवाई की व्यवस्था हो गई तो लोग चिन्हित हो जाएंगे और उन पर अंकुश लग सकेगा। इसी
संदर्भ में मेरा यह भी मानना है कि राज्यसभा में किसी भी क्षेत्र से लोग मनोनीत किए
जाएं लेकिन जिन्हें मनोनीत किया जा रहा है, कम से कम उन्हें कार्रवाई में भाग तो
लेना चाहिए। फिल्म उद्योग से आने वाली जया बच्चन भी तो हैं और वे कार्रवाई में भाग
लेती हैं लेकिन अन्य क्षेत्रों के मनोनीत बहुत से लोग तो आते ही नहीं। उन पर भी इस
तरह की व्यवस्था से अंकुश लग सकेगा। कर्मचारियों के काम लंबित पड़े रहते हैं,
उन्हें कोई कुछ भी कहने वाला नहीं है। लेकिन, हमें हमारे कामकाज के तौर पर आंका
जाता है। सांसदों को अपने क्षेत्र के लोगों से मिलना पड़ता है। अपने कामकाज का
हिसाब देना पड़ता है। लोग उन्हें उनके कामकाज के हिसाब से चुनते हैं।
उनकी
सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा
राम बहादुर राय वरिष्ठ पत्रकार
संसदीय
राजनीति का मंच संवाद का मंच होता है, उपद्रब का मंच नहीं होता। यदि कामकाज नहीं तो
सांसदों को वेतन-भत्ते क्यों दिए जाएं, यह प्रश्A वर्तमान संसद में उपद्रव के बाद
उठा है। लेकिन, ऎसा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शासन काल में ही हुआ हो, यह सही
नहीं है। हमारी राजनीति में इस महारोग की शुरूआत 1977 से हुई। तब पहली बार जनता
पार्टी सत्ता में आई और कांग्रेस लोकसभा में विपक्ष में थी। राज्यसभा में कांग्रेस
का पहले से ही बहुमत था। तब से ऎसे उपद्रव की शुरूआत हुई जो हमें 2015 में भी देखने
को मिल रहे हैं। वर्तमान में भी राज्यसभा में सत्तारूढ़ दल का बहुमत नहीं है और
लोकसभा में चंद सांसद कामकाज नहीं होने दे रहे हैं। यह गैर जिम्मेदाराना है और
संसदीय राजनीति के दृष्टिकोण से कलंक है।
यह कारगर उपाय नहीं
सांसदों के
कामकाज नहीं करने पर उनके वेतन और भत्तों में कटौती को कारगर उपाय नहीं कहा जा
सकता। इसका कारण यह है कि संसद में जो कामकाज ठप किए बैठे हैं और उपद्रव कर रहे
हैं, वे सरकारी कर्मचारियों की स्थिति में नहीं हैंं। उनकी आर्थिक स्थिति और
मन:स्थिति कर्मचारियों की आर्थिक स्थिति और मन:स्थिति से भिन्न हैं।
यदि पैसों की
ही बात करें तो इन सांसदों को पांच साल का वेतन भी नहीं मिले तो इनकी सेहत पर कोई
फर्क नहीं पड़ता बल्कि वे तो इसे राजनीतिक रूप से तोहफा मानेंगे और अपने कुर्ते पर
तमगे के तौर पर लगाकर अपने-अपने क्षेत्रों में जाकर इसका प्रचार ही करेंगे। संसदीय
कामकाज ठप करना, उपद्रव करना पार्टी का राजनीतिक फैसला है और उसका उपाय तकनीकी नहीं
हो सकता। वेतन-भत्तों में कटौती तकनीकी उपाय ही है। कांग्रेस के इस राजनीतिक फैसले
का जवाब भी राजनीतिक ही होना चाहिए। सत्तारूढ़ पक्ष तो इस मामले में बड़ी लकीर
खींचने पर विचार करना चाहिए। प्रधानमंत्री जनता को संबोधित करते हुए बताएं कि संसद
क्यों नहीं चल रही। सांसदों के वेतन-भत्तों में कटौती अनुपयोगी और हानिकारक ही
होगी।
वेतन का सवाल गलत
किसी भी पार्टी को संसद ठप नहीं करना चाहिए। देश
के हित में है कि संसद चले। पर इसका हल “काम नहीं तो वेतन नहीं” जैसे प्रस्तावों
में नहीं हो सकता। इसका एक ही हल है कि सभी दलों में आम सहमति हो कि संसद को चलने
दिया जाए, जिसकी कोशिश नहीं हो रही। एच के दुआ, राज्यसभा सांसद
…किस
बात का वेतन
“काम नहीं तो वेतन नहीं” का सिद्धांत सभी पर लागू होता है तो
सांसदों पर क्यों नहीं? पर वेतन कटौती का सांसदों पर शायद ही कोई असर हो। इससे
ज्यादा असर तो इनको जो सुविधाएं और विशेषाधिकार मिलते हैं, उनमें कटौती किए जाने का
असर होगा।
प्रो. त्रिलोचन शास्त्री, आईआईएम, बैंगलूरू