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थम ही नहीं रहे विवाद

राज्यपाल का पद यूं तो संवैधानिक है लेकिन इनका कामकाज गाहे-बगाहे
विवाद खड़े करने वाला रहा है। भले ही राज्यपालों की पृष्ठभूमि राजनीतिक रही
हो अथवा नहीं

Feb 11, 2016 / 09:47 pm

शंकर शर्मा

Opinion news

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राज्यपाल का पद यूं तो संवैधानिक है लेकिन इनका कामकाज गाहे-बगाहे विवाद खड़े करने वाला रहा है। भले ही राज्यपालों की पृष्ठभूमि राजनीतिक रही हो अथवा नहीं। इसके पीछे बड़ा कारण यह माना जाने लगा है कि राज्यपाल केंद्र में शासन कर रही पार्टी की इच्छा पर नियुक्त होते रहे हैं।

खासतौर पर दलीय राजनीति में सक्रिय रहे लोग इस पद पर बैठाए जाते हैं तो राज्य सरकारों के साथ संबंधों में खटास का दौर शुरू हो ही जाता है। क्यों उठते हैं ऐसे विवाद और राज्यपालों के कामकाज पर सवाल? कैसे टाला जा सकता है टकराव? क्या सुधार होने चाहिए राज्यपालों की नियुक्ति प्रक्रिया में और कैसे अपेक्षा की जा सकती है, इनके तटस्थ बर्ताव की। ऐसे ही सवालों पर स्पॉटलाइट में पढि़ए विशेषज्ञों की राय…

लोकतांत्रिक मूल्यों में गिरावट रोकनी होगी
नीरजा चौधरी वरिष्ठ पत्रकार
राज्यपालों की नियुक्ति राजनीतिक ही हुआ करती है। ऐसा इसलिए क्योंकि यह नियुक्ति राष्ट्रपति के आदेश पर जरूर होती है लेकिन इसकी सिफारिश केंद्र सरकार में बैठे राजनेताओं द्वारा ही की जाती है। इस यथार्थ को तो मानना ही चाहिए। इसके साथ ही यह बात भी सही है कि सरकारें इस पद पर उन्हीं लोगों की नियुक्ति की सिफारिश करती रही हैं जो उनकी पार्टी के नजरिये से मेल रखता हो या उनकी सहयोगी पार्टी के नजरिये से मेल रखता हो। लेकिन, पूर्व मे ंऐसा होता था कि एक बार इस पद पर आसीन होने के बाद व्यक्ति के लिए जिस राजनीतिक दल से उसका नजरिया मेल खाता रहा है, उसके हित गौण हो जाते थे। लेकिन, धीरे-धीरे राज्यपालों की इस सोच में बदलाव आया और उन पर उंगलिया उठने लगीं। ऐसे में सरकारों के बदलने पर राज्यपालों की नियुक्ति में भी तेजी से बदलाव देखने को मिलने लगे।

केंद्र के इशारे पर काम
ऐसा नहीं है कि पूर्व में राज्यपालों ने केंद्र के इशारे पर कामकाज किया हो। उत्तर प्रदेश में रोमेश भंडारी का उदाहरण काफी बड़ा है। इसी तरह कुछ और उदाहरण भी सामने हैं पर ये उदाहरण गिनती के हैं। लेकिन, अब तो ऐसा सगता है कि राज्यपाल काम ही केंद्र के इशारे पर कर रहो हैं। ऐसा नहीं कि राज्यपालों के बारे में ऐसी राय केवल मोदी सरकार के कार्यकाल में बनी हो बल्कि इसकी कुछ पूववर्ती सरकारों के साथ भी ऐसी ही स्थितियां बनी हैं। फिर, राज्यपालों के राज्य से बाहर घूमने, उनके अनाप-शनाप खर्चे के अलावा खासतौर पर उनके फैसलों ने तो ऐसा ही सोचने पर मजबूर किया है। अरुणाचल प्रदेश का हालिया उदाहरण हमारे सामने है। ऐसा लगता है कि वहां बहुत कुछ जल्दबाजी में किया गया। कोर्ट ने भी इस मामले में कड़े शब्दों का इस्तेमाल किया।

कम न हो जाए महत्व
ऐसा भी देखने में आया है कि जब-जब क्षेत्रीय दलों के सहयोग वाली गठबंधन सरकारें रही है, तब-तब धारा 356 की इस्तेमाल कम हुआ है। राज्यपाल वास्तव में एक संस्था है। जिस तरह से राष्ट्रपति देश का नैतिक तौर पर नेतृत्व करते हैं, उसी तरह राज्यपाल भी राज्य का नैतिक तौर पर नेतृत्व करते हैं।

आमतौर पर नियमित कामकाज के दौरान के सरकार के मामले में हस्तक्षेप नहीं करते। लेकिन, अब तो बहुत से राज्यपाल खुद को बहुत ही सक्रिय दिखाने की कोशिश करते हैं। यह भी एक वजह है कि राज्य सरकारें और केंद्र सरकार उन पर अंकुश की कोशिश में रहती है। ऐसा लगता है कि राज्यपाल ही नहीं राजनैतिक दल भी कई बार मर्यादाओं को खो देते हैं। यदि ऐसा जारी रहा राज्यपाल पद का संवैधानिक महत्व कम होता जाएगा।

मर्यादाएं और परंपरा
संवैधानिक औपचारिकताएं अपनी जगह हैं लेकिन इन मामलों में मर्यादाओं और परंपराओं की अपनी महत्ता है। राजनैतिक दलों को भी व्यवहार में इच्छाशक्ति दिखानी होगी और राज्यपालों को राजनीतिक हितों को गौण करना ही होगा। हमारे लोकतांत्रिक मूल्यों की गिरावट को थामने का काम हमारा ही है। क्या फर्क पड़ता है कि संविधान में क्या लिखा है, आखिर संवैधानिक परंपरा भी तो कुछ बात होती है। यदि राजनैतिक दल राज्यपालों की नियुक्ति में राज्य सरकार से परामर्श कर लें तो कोई पहाड़ तो नहीं टूट पड़ेगा? बल्कि इससे केंद्र और राज्य के बीच सौहार्दपूर्ण रिश्ते होंगे। राज्यपाल संस्था का संवैधानिक महत्व है, इसे बनाए रखना भी हमारी ही जिम्मेदारी है।

जिम्मेदारी निभाएंगे तो विवाद भी होंगे
सुभाष सी. कश्यप संविधान विशेषज्ञ
राज्यपाल एक संवैधानिक संस्था के रूप में कार्य करते हैं और उनसे यह उम्मीद भी की जाती है कि वे अपने संवैधानिक दायित्वों का भली-भांति निर्वाह करें। अरुणाचल प्रदेश में राज्यपाल की भूमिका का प्रकरण फिलहाल उच्चतम न्यायालय की संविधान पीठ के सम्मुख विचाराधीन है इसलिए इस बारे में कोई टिप्पणी करना उचित नहीं होगा। हमें सुप्रीम कोर्ट के फैसले का इंतजार करना चाहिए। इसमें दो राय नहीं हो सकती कि राज्यपाल के रूप में राज्य की हर गतिविधियों के बारे में केन्द्र को अवगत कराते रहना राज्यपाल की जिम्मेदारी है। यह स्वाभाविक है कि जिम्मेदारी निभाएंगे तो उनके फैसलों के बारे में विवाद भी उठेगा। उचित अनुचित का सवाल भी होगा।

अव्यावहारिक सवाल
यह सवाल कई बार उठा है कि राज्यपालों के पद कोई खास उपयोगी नहीं रह गए उल्टे ये इतने खर्चीले हो गए हैं कि अनावश्यक बोझ पडऩे लगा है। सवाल यह है कि ऐसा राज्यपालों के मामले में ही क्यों कहा जाता है? क्या मुख्यमंत्री, मंत्री और नौकरशाहों के कारण खर्चा नहीं बढ़ रहाï? मैं ऐसा भी नहीं मानता कि राज्यपाल केन्द्र के हाथों की कठपुतली बन कर रह गए हैं। सही मायने में वे केन्द्र व राज्यों के बीच सेतु का काम करते हैं।

सुधार की है गुंजाइश
राज्यपालों की नियुक्ति पर सवाल उठाए जाते रहे हैं। मेरा मानना है कि राज्यपालों की नियुक्ति उसी प्रक्रिया से हो रही है जैसी 65 साल पहले हो रही थी। हां, इस प्रक्रिया में सुधार की गुंजाइश तो है ही। राज्यपालों की नियुक्ति को लेकर सरकारिया आयोग ने एक नहीं कई सिफारिशें की थीं।

संविधान की कार्यकुशलता की समीक्षा के लिए जो आयोग बना था उसमें मैं भी शामिल था। आयोग ने अपनी रिपोर्ट में राज्यपालों की नियुक्ति प्रक्रिया का भी सुझाव दिया गया था। यह कहा गया था कि राज्यपाल नियुक्त किया जाने वाला व्यक्ति किसी भी क्षेत्र का राष्ट्रीय स्तर पर पहचान रखने वाला व्यक्ति होना चाहिए। दूसरे, जो व्यक्ति राज्यपाल बनाया जाए वह निकट अतीत में दलगत राजनीति में सक्रिय न रहा हो। एक और अहम सिफारिश यह भी की गई थी कि कोई व्यक्ति जिस राज्य का राज्यपाल बनाया जाए वह उस राज्य का बाशिंदा नहीं होना चाहिए। हम देख रहे हैं कि इन अनुशंसाओं को आज तक किसी सरकार ने नहीं माना।

ठोस आधार के बिना न हो सिफारिशें
उज्जवल कुमार प्रोफेसर, डीयू
यह धारणा सी हो गई है कि राज्यपाल केन्द्र सरकार के नुमाइंदे के रूप में काम करते हैं। इस धारणा में कुछ गलत भी नहीं है। अरुणाचल प्रदेश के ताजा घटनाक्रम के दौर में राज्यपाल की भूमिका को लेकर जो सवाल खड़े हो रहे हैं वे आज के नहीं है। पहले भी इस तरह के कई विवादास्पद फैसले राज्यपालों की ओर से किए गए हैं जिन पर देश की शीर्ष अदालत तक ने टिप्पणियां की है।

किसी प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगाने की सिफारिश करने का राज्यपाल को संवैधानिक अधिकार मिला हुआ है। लेकिन जब से सुप्रीम कोर्ट के फैसले राज्यपालों के इस तरह के कदम को लेकर आए हैं, मेरा यह मानना है कि राज्यपाल भी ऐसी सिफारिशों के पीछे अपनी रिपोर्ट का आधार रखने में ज्यादा सजगता दिखा रहे हैं। अब भी यह तो माना ही जाना चाहिए कि राज्यपाल बिना कोई ठोस आधार बनाए इस तरह की सिफारिश नहीं करते। साथ भी एक पक्ष यह भी है कि राष्ट्रपति और राज्यपाल जैसे संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों के फैसलों पर सवाल नहीं उठाया जा सकता। हां अदालतें उन आधार का परीक्षण कराने की बात तो कर ही सकती हैं जिनकी छाया में इस तरह के फैसले किए गए हैं।

टकराव तो होंगे ही
अब सवाल यह काफी उठने लगा है कि राजनीतिक विचारधारा से जुड़े लोगों को राज्यपाल बनाए जाने से ऐसे विवाद तो उठेंगे ही। पिछले सालों में हमने देखा भी है कि जहां-जहां भी राजनीतिक पृष्ठभूमि वाले राज्यपाल बने हैं वहां राज्यों में मुख्यमंत्रियों के साथ टकराव हुआ है। ऐसा उस वक्त ही होता है जब राज्य व केन्द्र दोनों में अलग-अलग राजनीतिक दलों की सरकारें हों और राज्यपाल की राजनीतिक पृष्ठभूमि भी विपरीत दल से जुड़ी हों। सत्तारूढ़ लोगों को यही मुफीद लगता है कि राज्यों में यदि विपक्षी दल शासन में है तो फिर राज्यपाल उनकी विचारधारा से जुड़ा हो।

यह भी बन सकती है धारणा
मेरा तो मानना यह है कि राज्यपालों की नियुक्ति के लिए विभिन्न आयोगों ने जो सिफारिशें समय-समय पर की उनको ही ठीक से लागू कर दिया जाए तो इस तरह की समस्याएं एक हद तक स्वत: ही कम होने लगेंगी। जरा सोचें, उत्तरी पूर्वी राज्यों में तो अधिकतर राज्यपाल वे नियुक्त किए जाते रहे हैं जो या तो पूर्व सैन्य अधिकारी हों अथवा रिटायर्ड नौकरशाह हों। ऐसे में यदि इन प्रदेशों के लोगों में यह धारणा बनने लग जाए कि जानबूझ कर उनके यहां मिलिट्री अथवा पुलिस की पृष्ठभूमि से जुडे व्यक्ति राज्यपाल बनाए जा रहे हैं तो क्या हो? राजनीतिज्ञों को राज्यपाल नहीं बनाए जाने के ठोस विकल्प के बिना इस तरह के विषयों पर चर्चा हो ही नहीं सकती।

कैसे रहेंगे तटस्थ
भारत में कोई यह उम्मीद करे कि राजनीतिक पृष्ठभूमि से जुड़े राज्यपाल मौका पडऩे पर तटस्थ रहेंगे, असंभव नहीं तो मुश्किल जरूर हैं। दलगत राजनीति में सक्रिय रहे लोगों की बजाय ऐसों को राज्यपाल का पद सौंपा जाना चाहिए जो या तो वरिष्ठ न्यायाधीश रहे हों अथवा फिर वरिष्ठ नौकरशाह। लेकिन इनकी नियुक्ति में भी शर्त यही होनी चाहिए कि उनकी छवि बेदाग और गैरविवादित रही हो।

यह भी हो सकता है कि राज्यपाल, मुख्य सतर्कता आयुक्त जैसे पदों के चयन के लिए निष्पक्ष कमेटी बनाई जाए। इसमें समाज के विभिन्न वर्गों के जिम्मेदार लोगों को शामिल किया जाए। यह भी कहा जाने लगा है कि राज्यपाल जैसे पदों की अनिवार्यता ही क्यों रहे? ये अनावश्यक रूप से खर्चा बढ़ाने वाले होते हैं। मैं यह नहीं मानता कि संवैधानिक पदों के लिए खर्च का ऐसा सवाल उठाया जाए। हां निर्धारित बजट से बाहर जाकर कोई खर्चा हो तो उसे रोकने की बात की जानी चाहिए।

विवाद पहले भी

जी.डी. तवासे
हरियाणा के राज्यपाल रहने के दौरान 1982 में मुख्यमंत्री चौ.देवीलाल के समर्थकों को तोडऩे वाले भजनलाल को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया तो देवीलाल समर्थकों ने राज्यपाल से अभद्रता की। हालांकि बाद में भजनलाल ने बहुमत साबित कर दिया।

पी वेंकटसुबैया
कर्नाटक के राज्यपाल के रूप में मुख्यमंत्री एस.आर.बोम्मई को 21 अप्रेल 1989 को यह कहते हुए बर्खास्त कर दिया कि वे बहुमत खो चुके हैं। बोम्मई ने राज्यपाल के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी। फैसला बोम्मई के हक में आया और वे बहाल हुए।

रोमेश भंडारी
उत्तरप्रदेश के राज्यपाल रहते हुए 21 फरवरी 1998 को मुख्यमंत्री कल्याण सिंह को बर्खास्त कर जगदम्बिका पाल को मुख्यमंत्री की शपथ दिलाई। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने फैसला असंवैधानिक ठहराया तो दो दिन बाद फिर कल्याण सिंह को कुर्सी मिली।

सैयद सिब्ते रजी
झारखंड के राज्यपाल रहने के दौरान वर्ष 2005 में त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति में शिबू सोरेन को राज्य के मुख्यमंत्री की शपथ दिला दी। शिबू सोरेन बहुमत साबित करने में विफल रहे और पद छोडऩा पड़ा। इसके बाद अर्जुन मुंडा मुख्यमंत्री बने।

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