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एकतरफा ही नहीं रक्षा का दायित्व

अनेक संकटों में रक्षासूत्र के
छोटे-छोटे धागे बहुत बड़े संबल रहे हैं। चाहे द्रौपदी का श्रीकृष्ण की अंगुली की
चोट पर साड़ी फाड़कर पट्टी बांधना रहा हो या देवासुर संग्राम से पूर्व इंद्राणी का
इंद्र को रेशम

Aug 28, 2015 / 09:55 pm

शंकर शर्मा

raksha bandhan

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प्रो. राधावल्लभ त्रिपाठी प्रसिद्ध संस्कृत विद्वान

अनेक संकटों में रक्षासूत्र के छोटे-छोटे धागे बहुत बड़े संबल रहे हैं। चाहे द्रौपदी का श्रीकृष्ण की अंगुली की चोट पर साड़ी फाड़कर पट्टी बांधना रहा हो या देवासुर संग्राम से पूर्व इंद्राणी का इंद्र को रेशम का धागा बांधना, यह रक्षासूत्र रक्षा के भाव का प्रतीक है। बांधने वाला और बंधवाने वाला दोनों इस भाव से बंधते हैं। बलि ने लक्ष्मीजी के रक्षासूत्र में बंधकर उनके पति भगवान वामन को मुक्त कर दिया पर महालक्ष्मी बलि के साथ रहने लगीं। महाभारत के शांतिपर्व में बताया गया है कि इंद्र पाताल जाकर उन्हें लेकर आये।


पारिवारिक संबंधों में अपनत्व और ममत्व की मिठास इस देश की धरती में रची बसी है। परिवार के हर सदस्य का अन्य सदस्य के साथ जो संबंध है, उसमें एक विशिष्ट जीवनबोध निहित है। कोई भी पारिवारिक संबंध एकतरफा नहीं है, चाहे वह मां व बेटे-बेटियों के बीच वात्सल्यमय पोषक-पोष्य का संबंध हो, पिता व संतानों के बीच अभिभावक-पालित का संबंध हो या पति-पत्नी के बीच परस्परतंत्रता का संबंध हो, जिसमें दोनों एक-दूसरे को जब तक नियंत्रित करते रहें, तब तक दांपत्य की गाड़ी बढ़ती रह सकती है। संबंधों की यह पारस्परिकता इन्हें अटूट बनाती है।

देव-दानव संस्कृतियों का मेल
इन संबंधों में भाई और बहन का नाता विशेष रूप से स्नेह, ममता, वात्सल्य, करूणा और रक्षा के भावों के तान-बाने में बुना होने से अनूठा ही है। यह नाता जितना स्नेहमय है, उतना ही शालीन और पावन भी। भाई और बहन का यह भाव प्राचीन काल से हमारे यहां रहा है। इस संबंध को लेकर सबसे प्राचीन विमर्श ऋग्वेद के यम-यमी सूक्त में मिलता है। यम और यमी दोनों विवस्वान् (सूर्य) की संतानें है, दोनों जुड़वां भाई-बहिन हैं। यम अपनी बहिन को इस संबंध की मर्यादा का बोध कराते हैं।

भाई-बहन के बीच परस्पर रक्षा का संबंध भी एकतरफा नहीं है, केवल भाई ही बहन की रक्षा नहीं करता, बहन भी आड़े वक्त में भाई को बचाती है। रक्षाबंधन का पर्व और राखी के धागे इस पारस्परिक रक्ष्य-रक्षक संबंध के प्रतीक हैं। यों तो किसी भी पूजा में पूजक यजमान को रक्षासूत्र बांधता है, गुरू और शिष्य या पिता और पुत्र भी एक दूसरे को रक्षासूत्र बांधते आए हैं पर राखी का नाम पाकर रक्षासूत्र अमिट रूप से भाई और बहिन के अटूट संबंध का पर्याय बन गया है। पुराणों के अनुसार संबंध की यह परंपरा दैत्यराज बलि और लक्ष्मी के बीच आरंभ हुई। हिन्दू धर्म के सभी धार्मिक अनुष्ठानों में रक्षासूत्र बांधते समय कर्मकाण्डी पण्डित संस्कृत में एक श्लोक का उच्चारण करते हैं –

येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबल:।
तेन त्वामभिबध्नामि रक्षे मा चल मा चल।।


जिस रक्षासूत्र से महान शक्तिशाली दैत्यराज बलि को बांधा गया था, उसी सूत्र से मैं तुम्हें बांधता हूँ। हे देवी रक्षा, तू (रक्षा करने के अपने संकल्प से) कभी विचलित मत होना। स्कन्दपुराण, पkपुराण और श्रीमjागवत में वामनावतार कथा में रक्षाबन्धन का प्रसंग मिलता है। इसके अनुसार दानवेन्द्र राजा बलि ने जब सौ यज्ञ पूरे कर स्वर्ग का राज्य छीनने का प्रयत्न किया तो इन्द्र आदि देवताओं ने भगवान विष्णु से प्रार्थना की। तब भगवान वामन अवतार लेकर ब्रा±मण का वेष धारण कर राजा बलि से भिक्षा मांगने पहुंचे। गुरू के मना करने पर भी बलि ने तीन पग भूमि दान कर दी। भगवान ने एक पग से सारी धरती, दूसरे से आकाश नाप लिया। तीसरा पग रखने के लिए बलि ने उन्हे अपना मस्तक अर्पित कर दिया।

विष्णु इससे प्रसन्न हुए। उन्होंने राजा बलि से पूछा कि बोलो, क्या चाहते हो? बलि ने अपने निवास के लिए पाताल मांगा क्योंकि सारी धरती तो वह वामनावतार विष्णु को दान कर चुका था। उसने प्रार्थना की कि प्रभु मेरे साथ सदैव पाताल में ही रहें। फिर क्या था, विष्णु अपना गोलोक छोड़ कर बलि के साथ रहने लगे। विष्णुलोक तो सूना हो गया। लक्ष्मीजी चिंतित हुईं। तब नारद जी ने उन्हें एक उपाय बताया। उस उपाय का पालन करते हुए लक्ष्मी जी ने राजा बलि के पास जाकर उसे रक्षासूत्र बांध दिया और अपना भाई बना लिया। फिर वे अपने पति को अपने साथ ले आयीं। उस दिन श्रावण मास की पूर्णिमा तिथि थी।

संभव है कि बलि को लक्ष्मी द्वारा रक्षासूत्र बांधने के प्रसंग से रक्षाबंधन के पर्व का प्रवर्तन हुआ हो। रक्षाबंधन के धागे से दोनों संस्कृतियों का समागम हुआ। बलि दैत्य संस्कृति के प्रतीक हैं, लक्ष्मी देव संस्कृति की। बलि का त्याग यज्ञ और पूजा में बलि के रूप में सामने आया तो बलिदान शब्द द्वारा शहादत, त्याग और समर्पण का एक सांस्कृतिक प्रतीक हमारी भाषा ने रचा।

रक्षासूत्र रक्षा के भाव का प्रतीक है। बांधने वाला और बंधवाने वाला दोनों इस भाव से बंधते हैं। बलि ने लक्ष्मी के रक्षासूत्र में बंधकर उनके पति को मुक्त कर दिया पर महालक्ष्मी बलि के साथ रहने लगीं। महाभारत के शांतिपर्व में बताया गया है कि इंद्र पाताल जाकर उन्हें लेकर आये।

कच्चे धागों का मजबूत संबल
अनेक संकटों में रक्षासूत्र के छोटे-छोटे धागे बहुत बड़े संबल रहे हैं। भविष्यपुराण में देव और दानवों में युद्ध की एक कथा है। इस युद्ध में दानव देवों पर भारी पड़ रहे थे। इंद्र घबराकर बृहस्पति के पास गये कि देवगुरू इस संकट से उबरने का कोई उपाय बताएं। दोनों की बातचीत वहां बैठी देवी इंद्राणी सुन रही थीं। उन्होंने रेशम का धागा मन्त्रों की शक्ति से पवित्र करके अपने पति के हाथ पर बांध दिया। संयोग से वह भी श्रावण पूर्णिमा का ही दिन था। पुराणकारों की आस्था के अनुसार इन्द्र इस लड़ाई में इसी धागे की मन्त्र शक्ति से ही विजयी हुए। महाभारत का महायुद्ध होने को था।

युधिष्ठिर ने भगवान कृष्ण से पूछा कि वे सभी संकटों को कैसे पार कर सकते हैं? भगवान कृष्ण ने उनकी तथा सेना की रक्षा के लिए रक्षाबंधन का आयोजन करने का परामर्श दिया। कुंती द्वारा अभिमन्यु को राखी बांधने के कई उल्लेख मिलते हैं। महाभारत की अनेक कथाओं में ही रक्षाबन्धन से सम्बन्धित कृष्ण और द्रौपदी का एक अन्य वृत्तान्त भी मिलता है। जब कृष्ण ने सुदर्शन चक्र से शिशुपाल का वध किया तब उनकी तर्जनी में चोट आ गई। द्रौपदी ने उस समय अपनी साड़ी फाड़कर उनकी उंगली पर पट्टी बांध दी। यह श्रावण मास की पूर्णिमा का दिन था। इसीलिए, कृष्ण सदैव संकट की घडियों में द्रौपदी की रक्षा के लिए प्रकट होते रहे।

युद्ध और राष्ट्रीय विपत्ति के क्षणों में भी रक्षाबंधन पर्व का सहारा लिया जाता रहा है। रणबांकुरे राजपूतों के युद्ध के लिए प्रस्थान के समय महिलाएं उनके मस्तक पर तिलक लगाने के साथ साथ रक्षासूत्र भी बांधती थीं। मेवाड़ की रानी कर्मावती ने गुजरात के शासक बहादुरशाह के हमले के समय बादशाह हुमायूं को राखी भेजकर रक्षा की याचना की।

हुमायूं ने बहादुरशाह से टक्कर लेकर एक बहिन के मान की रक्षा की। हम सदैव अपने उत्सवों, प्रतीकों व मिथकों का नई चेतना पाने के लिए नवाविष्कार करते आए हैं। लार्ड कर्जन ने बंगाल के दो टुकड़े कर दिये, तब रवींद्रनाथ ठाकुर ने रक्षासूत्र और रक्षाबंधन के पर्व को ब्रितानी हुकूमत से लड़ने का हथियार बना दिया। उन्होंने रक्षासूत्र को देश व समाज की एकसूत्रता के प्रतीक में तब्दील कर दिया। इसी समय उन्होने “मातृभूमि वन्दना” नामक कविता लिखी जिसमें हर एक भाई बहिन के ह्वदय में बंगदेश एक बनाने की कामना थी। 16 अक्टूबर 1905 को बंगभंग की घोषणा हुई और इसी दिन बंगाल ने रक्षाबन्धन मनाया। लोग यह गीत गाते हुए सड़कों पर निकल पड़े –

सप्त कोटि लोकेर करूण क्रन्दन,
सुनेना सुनिल कर्जन दुर्जन;
ताइ निते प्रतिशोध मनेर मतन करिल, आमि स्वजने राखी बन्धन।


रक्षाबंधन से जुड़ी भावना आज समाप्त हो गई लगती है। यह पर्व रस्मअदाई बन कर रह गया है, जबकि बहिनें लगातार पुरूष की बलात्कारी मानसिकता का शिकार बन रही हैं। क्या हम रक्षाबंधन को इस देश की कोटि-कोटि बहिनों की रक्षा के लिए एक सबल प्रतीक बना सकेगें? आज इस पर्व के पीछे निहित संकल्प और बलिदान के भाव को फिर से जगाते हुए, इसे स्त्री के सम्मान पर्व के रूप में मनाये जाने की जरूरत है।

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