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अब ‘मसाला बॉन्ड’ से विकास

उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में भारतीय अर्थव्यवस्था में वैश्विक आय की
हिस्सेदारी करीब 24 फीसदी हुआ करती थी। यही वजह थी कि महासागरीय दूरियों को
पाटकर व्यापारिक

Jan 31, 2016 / 10:28 pm

शंकर शर्मा

Opinion news

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प्रो. गौरव वल्लभ शर्मा एक्सएलआरआई, जमशेदपुर
उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में भारतीय अर्थव्यवस्था में वैश्विक आय की हिस्सेदारी करीब 24 फीसदी हुआ करती थी। यही वजह थी कि महासागरीय दूरियों को पाटकर व्यापारिक संबंध स्थापित करने के लिए नए-नए मार्गों की तलाश हुई। उस दौर में मसाला बहुत ही लोकप्रिय उत्पाद था। कालांतर में इसके माध्यम से व्यापारियों ने धन कमाया और बड़े-बड़े व्यापारिक घराने स्थापित किए। हालांकि मसालों के कारण बनी देश की वह साख समय के साथ धूमिल पड़ती गई और हमारी अर्थव्यवस्था अन्य देशों के मुकाबले कमजोर होती गई। लेकिन, अब एक बार फिर मसालों के नाम पर विकास की क्रांति की शुरुआत हुई है। इस क्रांति का नाम है मसाला बॉन्ड।

क्या रही है परेशानी
वित्तीय बाजार में उदारवाद शब्द काफी लंबे समय से चर्चा में है और इसे भारतीय अर्थव्यवस्था में बहुत ही सकारात्मक नजरिये से देखा जाता रहा है। इसके बावजूद बुनियादी सुविधाओं पर देश में खर्च काफी कम, सकल घरेलू उत्पाद का करीब 5 फीसदी तक ही रहा है। वर्ष 2015 की शुरुआत में पीएचडी चैंबर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री के अध्ययन के मुताबिक यदि भारत को मेक इन इंडिया अभियान को गति देनी है और अर्थव्यवस्था के विकास की दर को दो अंकों में पहुंचाना है तो अगले पांच वर्षो में करीब 26 लाख करोड़ रुपए की आवश्यकता बुनियादी ढांचे को सुधारने में पड़ेगी। इतनी बड़ी धन राशि को उगाहने के लिए परंपरागत ऋण, बाह्य वाणिज्यिक ऋण और परंपरागत बांड्स जारी करने के तरीके ही समझ में आते हैं।


सरकार के पास धन जुटाने के लिए मुख्य विकल्प प्रत्यक्ष विदेशी निवेश रहता है। इसके अलावा विदेश से धन जुटाने के लिए अन्य कोई नया तरीका भी नहीं है। यद्यपि पूर्व में भी भारतीय कंपनियां चाहे सार्वजनिक क्षेत्र की हों या फिर निजी क्षेत्र की, वे बॉन्ड जारी करके अन्य देशों से धन उगाहती रही हैं। लेकिन, इसमें बड़ी परेशानी यह रही है कि ये बॉन्ड या तो डॉलर में या फिर अन्य देश की मुद्रा में अंकित किए जाते थे। इस तरह राशि जुटाने में एक बड़ा जोखिम विदेशी मुद्रा की तुलना में भारतीय रुपये का मूल्य कम हो जाने का रहता है। कई बार अन्य मुद्रा महंगी होने से बॉन्ड के एवज में अधिक राशि अदा करनी पड़ती है। उदाहरण के तौर पर जिस दिन एक डॉलर का मूल्य 65 रुपए हो, उस दिन एक हजार डॉलर बॉन्ड खरीदे गए हों और नियत दिन जब बॉन्ड के एवज में राशि अदा की जाए तथा एक डॉलर का मूल्य बढ़कर 68 रुपए हो जाने पर तो तीन हजार रुपए अतिरिक्त देने पड़ते थे क्योंकि बॉन्ड डॉलर या विदेशी मुद्रा में ही अंकित होते रहे थे।

यह है नया बदलाव
हमारे सामने उदाहरण था चीन का। चीन ने अपनी मुद्रा युआन अंकित बांड जारी किए। इंटरनेशनल फाइनेंस कॉर्पोरेशन (आईएफसी) ने इसका नाम चीन के व्यंजन डिम सुम के नाम पर ‘डिम सुम बांड रखा। इसी तर्ज अब भारत की ओर से लंदन स्टॉक एक्सचेंज में, भारतीय मुद्रा में अंकित बांड जारी किए जाने लगे हैं। आईएफसी ने इसका नाम दुनिया में भारतीय मसालों की लोकप्रियता के कारण ‘मसाला बॉन्ड रखा है।

ये बॉन्ड विदेशी मुद्रा में ही बेचे जाएंगे और उनका भुगतान भी विदेशी मुद्रा में ही होगा। इसका उपयोग घरेलू परियोजनाओं के वित्त पोषण के लिए भारतीय मुद्रा रुपये में ही किया जाएगा यानी विदेशी धन का निवेश इन मसाला बॉन्ड के माध्यम से किया जाएगा। चूंकि ये बॉन्ड 4 से 5 फीसदी तक ब्याज वसूली का साधन होंगे, जो विदेश में विशेषतौर पर अमरीका, ब्रिटेन, कनाडा आदि देशों में सामान्य तौर पर चल रही 2 से 3 फीसदी की ब्याज दर से अधिक होने के कारण वहां के निवेशकों को आकर्षित करेगा। दूसरे, ये भारतीय कंपनियों में प्रत्यक्ष निवेश में विदेशियों के लिए अपेक्षाकृत कम जोखिम वाले हंै।

 भारतीय उद्योगपतियों यह लाभ होगा कि उन्हें भारत में 8 से 10 फीसदी तक की वाणिज्यिक ब्याज दरों के मुकाबले 4 से 5 फीसदी की ब्याज दरों पर ही ऋण हासिल हो जाएगा, जो उद्योग की पूंजी लागत में कमी लाएगा। इसके अलावा सबसे बड़ा लाभ यह कि इसमें विदेशी मुद्रा के मुकाबले भारतीय रुपये के ऊपर-नीचे होने में जोखिम बांड जारी करने वाली कंपनी की बजाय निवेशक का अधिक होगा। भारत में आधारभूत सुविधाओं के लिए धन जुटाने के लिहाज से, ये मसाला बांड किसी वरदान से कम नहीं हैं। भारतीय रेलवे को ही लें, उसके ढांचागत सुधार के लिए अगले पांच वर्षो में 9.3 लाख करोड़ रुपए खर्च किया जाना है। लेकिन, लंबे समय से चल रहे घाटे की वजह से ऐसा कर पाना उसके लिए संभव नहीं हो पा रहा था। इतनी बड़ी राशि जुटाने के लिए मसाला बॉन्ड बड़ी भूमिका निभाएंगे। रेलवे के अलावा सड़क यातायात के क्षेत्र भी बड़े निवेश की आवश्यकता है। देश में पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप मॉडल को अपेक्षित सफलता नहीं मिली है और जरूरतें भी कम नहीं है। ऐसे में मसाला बॉन्ड देश में निवेश की नई बयार लाएंगे और विकास की नई कहानी लिखी जा सकेगी।


कौशल युक्त श्रम जरूरी
शेर सिंह कुड़ी (शोधार्थी समाजशास्त्र, नई दिल्ली)

वैश्विक बाजार आधारित अर्थव्यवस्था में उत्पादन के अंतरराष्ट्रीयकरण के कारण बहुराष्ट्रीय कंपनियां उत्पादन एवं वितरण की लागत को न्यूनतम बनाए रखने के लिए सस्ते श्रम की तलाश में विभिन्न देशों में अपनी विनिर्माण इकाई स्थापित करती हैं। हाल ही में दावोस शहर में संपन्न विश्व आर्थिक फोरम का केंद्र चौथी औद्योगिक क्रांति रही। इसमें उत्पादन के साधनों के रूप में विभिन्न टेक्नोलॉजी का समेकित रूप में इस्तेमाल हो रहा है। चौथी औद्योगिक क्रांति की शुरुआत डिजिटल क्रांति से माना जाता है जो वर्तमान में जारी है। ये आर्टिफीशियल इंटेलीजेंस, स्मार्ट रोबोट, ऑटो व्हीकल, 3डी प्रिटिंग, ऑनलाइन भुगतान और नैनो टेक्नोलॉजी के इस्तेमाल से संबंधित है। इसकी तीव्रता, व्यापकता तथा प्रभाविकता पहली तीनों क्रांतियों की तरह क्रमबद्ध न होकर विस्फोटक होगी।

असमानता की आशंका
चौथी औद्योगिक क्रांति के समर्थकों का मानना है यह अर्थव्यवस्था की सप्लाई (वितरण) साइड में चमत्कारिक परिवर्तन लाएगी। इससे वस्तुओं एवं सेवाओं की कीमतों में गिरावट आएगी। लोगों की जीवन स्तर एवं आय में बढ़ोतरी होगी। इसके लिए सस्ते एवं अद्र्ध कुशल श्रमिक की जगह उच्च कौशल युक्त श्रमिक की जरूरत होगी। पूंजी की जगह प्रतिभा (टैलेंट) या सृजनात्मकता की आवश्यकता रहेगी। लेकिन यह अपने साथ रोजगार विहीन औद्योगिकीकरण तथा आर्थिक असमानता को बढ़ावा देगी। इसकी प्रकृति कैपिटल इंटेसिव होगी। परिणाम स्वरूप पूंजी का संकेंद्रण कुछ ही हाथों में रहेगा। इसकी पुष्टि ऑक्सफेम की रिपोर्ट करती है जिसके अनुसार वर्ष 2010 से 2015 में दुनिया के सबसे गरीब 3.6 अरब लोगों की संपत्ति में 41 की फीसदी गिरावट आई। जबकि 62 सबसे अमीर लोगों की संपत्ति में 44 फीसदी की वृद्धि हुई। वर्ष 2011 में जो संपति 388 लोगों के पास थी अब वो 62 लोगों तक ही सिमट गई।

वंचित रहा कृषि क्षेत्र
भारत के संदर्भ में देखे तो जहां पहली एवं दूसरी औद्योगिक क्रांति से प्राप्त अवसरों का लाभ नहीं उठा पाने के लिए औपनिवेशिक शासकों को दोष दिया जा सकता है, लेकिन तीसरी औद्योगिक क्रांति से मिले अवसरों ने देश की आर्थिक वृद्धि को बढ़ावा दिया, लेकिन वो भी रोजगार विहीन आर्थिक वृद्धि रही जो सेवा क्षेत्र में ही योगदान दे सकी। इसका लाभ भी उच्च एवं मध्यम वर्ग के अंग्रेजी शिक्षित वर्ग ही उठा सका। जनसंख्या का आधे से ज्यादा हिस्सा कृषि क्षेत्र में ही लगा रहा जो दोषपूर्ण शिक्षा व्यवस्था के कारण अवसरों से वंचित रह गया। जबकि देश की जनसंख्या का बड़ा भाग कृषि और संबंधित कार्यों से जुड़ हुआ रहा है। ऐसे में देश के नीति निर्धारकों को कृषि क्षेत्र में रोजगार के अवसर सृजित करने के लिए प्रयास करने थे। वर्तमान में भी छोटे और सीमांत किसानों के लिए कोई ठोस योजनाएं नहीं हैं।

विनिर्माण की जरूरतें
आज भारतीय अर्थव्यवस्था के सामने रोजगार सृजन प्रमुख समस्या है जिसके लिए सरकार ने मेक इन इंडिया कार्यक्रम शुरू किया गया। जिसका उद्देश्य विनिर्माण क्षेत्र में रोजगार के नए अवसर सृजन करना है उसको चौथी औद्योगिक क्रांति से चुनौतियां मिलना स्वाभाविक है, इसका पहला कारण कृषि क्षेत्र में कार्यरत जनसंख्या अकुशल है या अद्र्धकुशल जो उभरती हुई विनिर्माण क्षेत्र की जरूरतों के अनुरूप नहीं है। डब्ल्यूईएफ ने कहा कि इसके साथ इस दौरान 21 लाख नए रोजगार सृजित होंगे, लेकिन ये रोजगार ज्यादातर कंप्यूटर तथा इंजीनियरिंग क्षेत्र में सृजित होंगे।

 एस्पाइरिंग माइंड्स नेशनल एम्प्लोयाबिलिटी संस्थान की रिपोर्ट के अनुसार बड़ी संख्या में इंजीनियरिंग स्नातक बेरोजगार हैं। नौकरियां देने वाली कंपनियों की शिकायत है कि उनके कौशल व प्रतिभा का स्तर नौकरी पाने के लिए आवश्यक स्तर का नहीं होता है। हाल ही के नेशनल सैंपल सर्वे के अनुसार वोकेशनल ट्रेनिंग प्राप्त लोगों में से 18 प्रतिशत के पास ही नियमित रोजगार है उनमें भी 60 प्रतिशत अनौपचारिक क्षेत्र में है। यदि भारत को आर्थिक महाशक्ति बनना है तो चीन की तरह सस्ते श्रम से नहीं उच्च कौशल युक्त कार्यशील जनसंख्या से ही संभव है। हमें देश की जरूरतों के अनुसार नीतिगत फैसले करने होंगे। इससे डिजिटल क्रांति का समुचित लाभ मिलेगा।



समाज के लिए खर्च बढ़े
वरुण गांधी सांसद
इस महीने केंद्रीय बजट पेश किया जाना है। पिछले दशक के बजटों को भाषणों में गरीब-अनुकूल घोषित किया गया था। कई योजनाएं भी चलाई गईं है लेकिन अब भी बहुत कुछ करना शेष है। हमेंं दोहरे अंकों वाली वृद्धि कर को हासिल करना है तो सामाजिक निवेशों का बढ़ाना बहुत जरूरी है। उल्लेखनीय है कि एशियाई विकास बैंक के सामाजिक सुरक्षा इंडेक्स (एसपीआई) में भारत को समूचे एपीएसी में सामाजिक सुरक्षा में 23वां स्थान दिया है। इस पर किया जाने वाला खर्च सकल घरेलू उत्पाद(जीडीपी) का केवल 1.7 प्रतिशत है, जबकि 12वें स्थान पर रहा चीन ऐसे कदमों पर अपने जीडीपी का 5.4 प्रतिशत खर्च करता है। यहां तक कि मंगोलिया अपने जीडीपी का 9.6 प्रतिशत खर्च करता है। आज जरूरत इस बात की है कि हम समाज की जरूरतों पर खर्च को बढ़ाएं।

भागीदारी बजटिंग बेहतर
बेहतर और प्रगतिशील बजट बनाने के लिए इसकी प्रक्रिया में परिवर्तन किए जाने की जरूरत है। भागीदारी बजटिंग ऐसी प्रक्रिया है जिसमें नागरिक स्थानीय बजटीय आवंटनों को तय करने के लिए अपनी नागरिक पसंदों तथा प्राथमिकताओं को बताते है। ब्राजील में, 1989 से प्रोटो एलगरी शहर ने सिर्फ बजटीय प्रक्रिया में जनता के प्रतिनिधियों की सिफारिशों के बाद ही लोक कल्याण कार्यों के लिए बजटीय आवंटनों को अनुमोदित किया है। ऐसी बातचीतों को प्रारंभ करने के लिए शहर का प्रशासन अपनी आर्थिक तथा वित्तीय स्थिति नागरिकों के साथ साझा करता है, लोकप्रिय मांगों हेतु एक मंच मुहैया करवाता है और अपने वित्तीय संसाधनों की कमी को उन्हें बताता है। देश के बजट में भी ऐसा किया जा सकता है।

कृषि को पुनर्जीवित करें
हमारे राजकोषीय बजटों ने, विशेष रूप से पिछले दशक में कर प्रोत्साहनों को ठीक करने तथा खराब ढंग से निधियां खर्च करने वाली कल्याण योजनाओं पर ध्यान केन्द्रित किया है, जबकि कृषि पर किया जाने वाला व्यय कम हुआ है।

उल्लेखनीय है कि वर्ष 2005 में 36,355 करोड़ रूपए की तुलना में हमने वर्ष 2014 में 27,041 करोड़ रुपये व्यय किए। स्थिति यह है कि जीडीपी में 16 प्रतिशत का योगदान और करीब 50 प्रतिशत जनसंख्या को रोजगार देने वाली कृषि में काफी खराब प्रतिफल तथा बढ़ती हुई आदान लागतें निहित हंै। भारत में पिछले 4 दशकों में श्रम उत्पादकता काफी मंद गति से बढ़ी है, जिसने कृषि में सीमित नवाचार को रोक दिया है और इसमें हम दक्षिण कोरिया, चीन और यहां तक कि वियतनाम से भी पीछे हैं।

सभी कृषक परिवारों में से आधे से अधिक के पास औसतन 47,000 रूपए का ऋण हैं, जिसे साहूकारों से 20 प्रतिशत से अधिक ब्याज दर पर लिया गया है आदान लागतें बढ़कर कुल उत्पादन के 30 प्रतिशत तक पहुंच गई है, जो श्रम और ऊर्वरक मूल्य में वृद्धि का परिणाम है।

भारत की सिंचाई प्रणाली भी अपर्याप्त है जिसमें उच्च पूंजीगत निवेश लागत किसानों को बेहतर भू-जल पंप तथा ड्रिप सिंचाई तकनीकों को अपनाने से रोकती है। किसी भी राजकोषीय बजट को कृषि मांग पक्ष प्रबंधन कार्यक्रम को मजबूत करना चाहिए, जो विद्यमान सिंचाई पंपों को ऊर्जा दक्ष मॉडलों से प्रतिस्थापित करने का प्रस्ताव करता हो, जिससे बिजली की खपत 20 प्रतिशत तक कम हो जाएगी। ड्रिप सिंचाई हेतु राजकोषीय प्रोत्साहन जल कवरेज में सुधार में सहायता कर सकते है, जबकि वर्षा जल संचयन तथा भू-जल रीचार्ज करने जैसी पहलों से उत्पादकता में सुधार हो सकता है, जो एल-नीनो जैसी घटनाओं के प्रति व्यापक लचीलापन उत्पन्न करेगा।

कुपोषण कम करना होगा
भारतीय बच्चों में से 40 प्रतिशत से अधिक के कमजोर होने और 5 वर्ष से कम आयु के 70 प्रतिशत बच्चों के एनीमिया से ग्रसित होने के कारण हमारी मानव पूंजी का भविष्य बिगड़ता जा रहा है। दो वर्ष से कम उम्र के बच्चों वाले भूखे तथा कुपोषित परिवारों की पहचान करने के लिए ‘जीरो हंगरÓ को चलाना जरूरी हो गया है और इसके लिए एक बहु-स्तरीय रणनीति के लिए बजटीय समर्थन की आवश्यकता है जिसमें व्यवहार में परिवर्तन के लिए परामर्श तथा अनुपोषण कार्यक्रम चलाया जा सके।

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