मोदी सरकार एक बार फिर प्रतिबंध लगाने को लेकर
विवादों में है। कुछ किताबों और एनजीओ के बाद अब सरकार की नजर इंटरनेट पर है। सरकार
ने इंटरनेट सर्विस प्रोवाइडरों को 857 पोर्न साइटों की सूची सौंपी है जिनको ब्लॉक
करना है।
पर सरकार के इस निर्देश की मंशा और तरीके ने कई सवाल खड़े कर दिए हैं।
सवाल यह कि सरकार अगर पार्नोग्राफिक साइटों को प्रतिबंधित करना चाहती है तो सिर्फ
857 साइटें ही क्यों? प्रश्न यह भी है कि सरकार ऎसा करना चाहती भी है तो स्पष्ट रूप
से यह कहने में हिचक क्यों रही है? सवाल यह कि क्या सरकार इस पर भी नजर रखेगी कि हम
अपने घर में क्या कर रहे हैं या फोन-ईमेल आदि पर व्यक्तिगत संवाद में किससे क्या
बात कर रहे हैं? चिंता यह भी है कि सरकार का ये रवैया सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों
के अनुकूल नहीं है। ऎसे ही सवालों पर पढिए आज के स्पॉटलाइट में जानकारों की राय
:
सरकार अपनी मंशा तो स्पष्ट करे
पवन दुग्गल साइबर मामलों के
वरिष्ठ अधिवक्ता
सरकार की तरफ से इंटरनेट सर्विस प्रोवाइडरों को ये जो 857
वेबसाइटों को ब्लॉक करने के लिए निर्देश जारी किए गए हैं, वे फिलहाल बड़े ही
अस्पष्ट नजर आ रहे हैं। कहा जा रहा है कि इन वेबसाइट में कथित रूप से पार्नोग्राफिक
सामग्री है। पर सरकार ने जो निर्देश जारी किए हैं वह सिर्फ इतना कहते हैं कि इन
वेबसाइटों का संबंध नैतिकता और अश्लीलता से है।
इसलिए सूूचना प्रोद्योगिकी अधिनियम,
2008 के सेक्शन 79 (3)(बी) तथा भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 (2) के अंतर्गत
इंटरनेट सर्विस प्रोवाइडरों को निर्देश दिए जाते हैं कि वे तत्काल 857 वेबसाइटों को
ब्लॉक करें। पर इस पूरे निर्देश में कहीं भी यह स्पष्ट नहीं है कि आखिर जो 857
वेबसाइट चुनी गई हैं, उनका पैमाना क्या है? हजारों-लाखों वेबसाइट में सिर्फ 857
वेबसाइट ही क्यों चुनी गई हैं? इसलिए अभी तक सारा मामला बहुत ही रहस्यमय नजर आ रहा
है। कुछ भी स्पष्ट नहीं है कि आखिर इन वेबसाइटों को ब्लॉक करने के पीछे सरकार की
मंशा क्या है? कानूनी निर्देशों की भाषा तो बहुत ही स्पष्ट होना चाहिए, जिससे उनके
पालन में सुगमता हो।
सेक्शन 79 के अनुकूल नहीं
इन निर्देशों के साथ एक
समस्या और है। जिस तरह के निर्देüश जारी किए गए हैं वैसे निर्देश आईटी एक्ट के
सेक्शन 69 के अंतर्गत तो जारी किए जा सकते थे पर सेक्शन 79 के अंतर्गत इस प्रकार का
निर्देश जारी नहीं किया जाना चाहिए था। ये निर्देश आईटी एक्ट के सेक्शन 79 की
प्रकृति से मेल नहीं खाते। सेक्शन 79 कहता है कि ऎसी सामग्री को ब्लॉक किया जाए
जिससे किसी गैरकानूनी गतिविधि को बढ़ावा मिलता है।
इसलिए इसके अंतर्गत जारी किए गए
निर्देशों में स्पष्ट रूप से बताना होगा कि आखिर प्रतिबंधित किए जाने वाली वेबसाइट
या सामग्री से किस प्रकार की गैरकानूनी गतिविधि को बढ़ावा मिल रहा था। जबकि सेक्शन
69 स्पष्ट रूप से पब्लिक ऑर्डर अथवा किसी संज्ञेय अपराध को उकसाने की रोकथाम की बात
करता है। यह पूरा मामला इसलिए और भी रहस्यमय हो जाता है कि सरकार ने इन निर्देशों
को सार्वजनिक नहीं किया है।
ये निर्देश सिर्फ इंटरनेट सर्विस प्रोवाइडरों को दिए गए
हैं, इनको न तो डिपार्टमेंट ऑफ टेलीकम्युनकेशन की बेेवसाइट पर जारी किया गया है और
न ही प्रेस इन्फार्मेशन ब्यूरो के द्वारा। मेरी जानकारी में पहले कभी ऎसे निर्देश
सरकार द्वारा जारी नहीं किए गए हैं। आखिर सरकार सार्वजनिक रूप से किन्हीं वेबसाइटों
को प्रतिबंध किए जाने के कारणों को बताने में हिचक क्यों रही है? इसलिए सरकार की
मंशा पर सवाल तो खड़े होते हैं।
बचपन का शोषण न हो
निर्देशों से कहीं से भी
ऎसा नहीं लगता कि ये सुप्रीम कोर्ट के उस आदेश की अनुपालना में जारी किए गए हैं
जिनमें चाइल्ड पार्नोग्राफी सामग्री से जुड़ी वेबसाइटों को ब्लॉक करने की हिदायत दी
गई थी। हां, अगर सरकार का इरादा चाइल्ड पार्नोग्राफी पर कार्रवाई करने, उसको
प्रतिबंधित करने का है तो सरकार का यह कदम निश्चित रूप से स्वागत योग्य है।
सकारात्मक है। हर राष्ट्र को इस दिशा में प्रयास करने चाहिए जिससे उसकी सीमा में
बचपन का शोषण न हो सके। यह तो हमारा संवैधानिक दायित्व भी है। कानून में भी इसके
लिए उचित प्रावधान हैं। अमरीका समेत सभी सभ्य देशों में चाइल्ड पार्नोग्राफी के
खिलाफ कार्रवाई की जा रही है। इसलिए भारत भी इस तरह की कार्रवाई करे तो कोई आश्चर्य
नहीं। पर सरकार जिस रहस्यमय तरीके से यह कार्रवाई कर रही है, वह उसकी मंशा पर संदेह
पैदा करता है।
विफल होना तय
जहां तक इंटरनेट पर पार्नोग्राफिक सामग्री के
रोकथाम का सवाल है तो इसको रोका नहीं जा सकता। सारी दुनिया में इतनी अधिक वेबसाइटें
हैं जिन पर हमारा नियंत्रण संभव नहीं है। अगर सरकार इस दिशा में कोई प्रयास कर रही
है, तो उसका असफल होना तय है। सरकार एक ऎसा प्रयोग कर रही है जिसका विफल होना तय
है। इस तरह के अस्पष्ट निर्देशों से तो यह बिल्कुल संभव नहीं। बल्कि इससे तो लोगों
की उत्सुकता बढ़ती है और जो लोग अब तक इस प्रकार की वेबसाइटों पर नहीं गए होंगे वे
भी अब इन वेबसाइटों पर जाने का प्रयास करते दिखें तो कोई आश्चर्य नहीं।
ठोस
कार्रवाई की आस नहीं
प्रो. मधु पूर्णिमा किश्वर सीएसडीएस
दरअसल में इस
मामले में बड़ी समस्या परिभाषा को लेकर है कि पॉर्न किसे और किस हद तक समझा जाएगा?
हो सकता है कि कुछ लोगों को महिलाओं द्वारा बिना बाहों का कोई कुर्ता या ब्लाउज
पहनना अश्लील या अभद्र लगे और कुछ को यह बिल्कुल नहीं। इसी तरह किसी को महिलाओं के
लिए उनका हिजाब में घूमना ही उचित लगता है तो कुछ लोगों को हिजाब के बिना घूमना भी
पॉर्न लग सकता है। यह बेहद निराश करने वाली स्थिति है कि हमारे देश के लिए। इसके
लिए कोई ठोस कार्रवाई की संभावना बिल्कुल भी नहीं लगती।
चुप क्यों हैं
महिलावादी
अस्सी के दशक में महिलावादी विचारों से प्रेरित लोग महिलाओं के अश्लील
चित्रण की विरोध में थे और इस संदर्भ में कानून भी आया था। यह बात सही है कि तब भी
परिभाषाओं को लेकर मैं इसके विरोध में थी। लेकिन, अब समझ में यह नहीं आता कि जब से
अमरीका में पोर्नोग्राफी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के संदर्भ में पेश की जाने लगी
है, तब से भारत में पोर्नोग्राफी को लेकर वे सभी महिलावादी विचारक व जोर-शोर से
प्रदर्शन करने वाले चुप क्यों बैठे हैं?
समझ में यह नहीं आता कि हमारे देश में बहुत
से मुददे वाम और दक्षिणपंथ में क्यों बंट कर रह जाते हैं? किसी विषय पर क्या कहा जा
रहा है, इसके मुकाबले कौन कह रहा है, यह अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है। इन
परिस्थितियों में निराशा ही अधिक होती है। आप सरकार से क्या अपेक्षा कर सकते हैं?
जहां ट्रैफिक नियमों की या कचरा प्रबंधन को लेकर ठीक से अनुपालना नहीं करवाई जा
सकती, आप वहां पर कैसे उम्मीद ही क्या कर पाएंगे कि वे पोर्नोग्राफी जैसे गंभीर
विषयों पर विचार कर, इससे निपट पाएंगे? कम से कम सरकार दूरदर्शन को रोल मॉडल की तरह
विकसित करती और बताती कि “हेल्दी एंटरटेनमेंट” क्या होता है? इस तरफ कोई गंभीरता
नहीं है।
यह मनोरंजन नहीं
पोर्नोग्राफी सेक्स और हिंसा का बहुत जालिम मिश्रण
है, उसे तो पाबंद करना ही चाहिए। हमारे देश में यह जरूर है कि सेक्स को लेकर खुलकर
बातचीत नहीं होती लेकिन दूसरी तरफ यह पूजनीय पवित्र समझा गया है। मंदिरों की
दीवारों पर आज भी इससे संबंधित चित्र मिल जाते हैं। मुझे लगता है कि यह मामला किसी
भी स्त्री और पुरूष के आत्मसम्मान के साथ जुड़ा हुआ है।
परेशानी यह है कि पश्चिम की
भोगवादी संस्कृति में सेक्स को हिंसात्मक ढंग से बहुत ही भौंडे तरीके से पेश किया
गया है। शर्म आती है कि इसे बहुत ही विकृत रूप में उसी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के
अधिकार की आड़ में हमारे देश में भी पेश किया जाता है। इससे भी अधिक दुखद बात यह है
कि इसे अश्लील मनोरंजन कहा जा रहा है। यह मानसिक विकृति ही तो है कि हम
पोर्नोग्राफी में भी मनोरंजन की बात ढूंढ़ते हैं। स्त्री-पुरूष के पवित्र मिलन को
छिछोरे और भौंडेपन के साथ पेश करने को कोई मनोरंजन की संज्ञा कैसे दे सकता है।
कोर्ट ने क्या कहा, इस बारे में मैं कुछ नहीं कह सकती लेकिन इतना जरूर है कि सरकार
की ओर से इस मामले में कोई ठोस कार्रवाई नहीं की गई और ना ही उससे कोई उम्मीद ही
नजर आती है।
सुप्रीम कोर्ट का आदेश फिर से पढ़े सरकार
शिवकुमार
शर्मा सेनि. न्यायाधीश
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 की उपधारा दो के
तहत सरकार को संवैधानिक अधिकार है कि वह शालीनता व नैतिकता के संबंध में उचित आदेश
दे सकती है। सरकार द्वारा 857 पोर्नसाइट्स को बंद करने का आदेश सूचना तकनीक कानून
और अनुच्छेद 19 की उपधारा दो के तहत दिया गया है। उल्लेखनीय है कि जुलाई 2015 में
ही सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश एच.एल. दत्तू की पीठ ने अपने फैसले में
चाइल्ड पोर्नोग्राफी रोक पाने में गृह मंत्रालय की विफलता पर टिप्पणी की थी। मिली
जानकारियों से लगता है कि सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणियों के आधार पर
पोर्न साइट्स रोकने का आदेश दिया है।
वयस्कों का अधिकार
सरकार सर्वोच्च
न्यायालय की टिप्पणी के आधार पर इस तरह का आदेश नहीं दे सकती। ऎसा इसलिए क्योंकि
सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में साफतौर पर कहा कि कोई भी वयस्क व्यक्ति यदि
कमरे में बैठकर पोर्न साइट देखता है तो यह उसका अधिकार है। ऎसे में सर्वोच्च
न्यायालय ने फैसले को सरकार ने ठीक से नहीं समझा है और इसीलिए जब सरकार की ओर से
857 पोर्न वेबसाइट बंद करने के आदेश दिए गए तो उसमें सर्वोच्च न्यायालय के आदेश की
अक्षरश: अनुपालना नहीं पाई है। जैसा कि कहा जा रहा है, सर्वोच्च न्यायालय के फैसले
के संदर्भ में सरकार ने शालीनता व नैतिकता के उल्लंघन के आधार पर यह आदेश दिया है।
वास्तव में आदेश के लिए यदि सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के संदर्भ का
आधार लिया है तो इस मामले में वह गलत है। स्पष्ट है कि सर्वोच्च न्यायालय पोर्न
साइट्स के मामले में बच्चों के लिए साइट्स पर पाबंदी की बात करता है। वयस्कों के
लिए नहीं। जो जानकारी आई है कि जिस साइट्स को पोर्न बताकर प्रतिबंधित किया गया है,
उनमें वे वेबसाइट्स भी हैं जो वयस्क तो हैं लेकिन पोर्न नहीं है। इस वजह से भी
सरकार के आदेश का विरोध हो रहा है। सरकार को चाहिए कि वह सर्वोच्च न्यायालय के
फैसले को ठीक से पढ़े।
निर्देश में पार्नोग्राफी का उल्लेख नहीं
राजेश
छारिया,अध्यक्ष, इंटरनेट सर्विस प्रोवाइडर ऎसासिएशन ऑफ इंडिया
सरकार की तरफ
से 857 वेबसाइटों की एक सूची दी गई है जिनको ब्लॉक करने के निर्देश हैं। निर्देशों
के अनुसार इन वेबसाइटों को ब्लॉक कर दिया गया है। इन निर्देशों ेंमें सिर्फ इतना
कहा गया है कि आईटी एक्ट, 2008 के सेक्शन 79 (3)(बी) के अंतर्गत इन वेबसाइटों को
तत्काल प्रभाव से ब्लॉक किया जाए। इन वेबसाइटों का संबंध नैतिकता और अश्लीलता से
बताया गया है। निर्देशों में पार्नोग्राफिक अथवा चाइल्ड पार्नोग्राफिक जैसे किसी
शब्द का कोई उल्लेख नहीं है। वेबसाइटों के नाम से यह कहना कठिन है कि उनके अंदर किस
प्रकार की सामग्री है।
पोर्न प्रतिबंधित मत करो बल्कि मर्दो का औरतों को
घूरना, उनकी बिना अनुमति के उन्हें छूना, उन्हें पकड़ना, उनका शोषण करना, उन्हें
गाली देना, उनकी बेइज्जती करना और रेप करना प्रतिबंधित करो।
चेतन भगत,मशहूर
लेखक
वयस्कों को पोर्न देखकर हानि रहित मजे लेने से रोकना वैसा ही है जैसा
तालिबान और इस्लामिक स्टेट जैसे संगठनों का लोगों की मूलभूत आजादी को
छीनना। रामगोपाल वर्मा, फिल्मकार
यह पोर्न पर पाबंदी उसे पसंद या नापसंद
करने से नहीं जुड़ी है। इस पाबंदी काम मतलब यही है कि सरकार लोगों की व्यक्तिगत
आजादी छीन रही है। अब अगली बार किस पर प्रतिबंध लगाएंगे टीवी या फोन पर? मिलिंद
देवड़ा, कांग्रेस नेता