जैसे वायरल, डेंगू, चिकनगुनिया, टीबी, मोतीझरा इत्यादि नाना प्रकार की बीमारियां होती हैं वैसा ही एक रोग है
जैसे वायरल, डेंगू, चिकनगुनिया, टीबी, मोतीझरा इत्यादि नाना प्रकार की बीमारियां होती हैं वैसा ही एक रोग है नम्बर वन बनने का। यह रोग दो तरह का हो सकता है। पहला तो नंबर वन बनने की चाहत और दूसरा नंबर वन बन जाने के बाद दोनों ही खतरनाक है। यह रोग परिवार, राजनीति, खेल, फिल्म, पढ़ाई यानी किसी भी क्षेत्र में लग सकता है। पढ़ाई में तो यह पढऩे वाले बच्चे में कम उसके मां-बाप में ज्यादा लगता है लेकिन इसका परिणाम बच्चे को ही भुगतना पड़ता है।
प्राय: घरों में यह बीमारी बेटे के ब्याह के बाद आती है। नई बहू के आते ही सास सोचने लगती है कि उसकी सत्ता अब बेटे की पत्नी छीन लेगी और वह घर में लुगाई नंबर वन बन जाएगी। कुशल बहू यह तमगा अपनी सास के ही पास रहने देती है और चतुराई से अपने बच्चों के पोतड़े धोने का काम भी सास के हवाले करके खुद अपने पति के साथ सिनेमा का सैकेंड शो देखने चली जाती है। फिल्मी दुनिया में नंबर वन का रोग भयानक कैंसर की तरह फैला हुआ है। यहां तो हर शुक्रवार को फिल्म हिट होते ही बदनाम मुन्नी अपने को नंबर वन कहने लगती है और फिल्म पिटते ही दड़बे में दुबक जाती है।
जो हीरो एक बार नंबर वन बन जाता है उसके माथे पर यह रोग उसी तरह हावी हो जाता है जैसे राजा परीक्षित के सिर पर कलियुग सवार हो गया था। राजनीति में तो नंबर वन बनने के लिए मारामारी, जुत्तमपैजार, गाली-गुफ्तार, न जाने क्या- क्या होते हैं।
भाजपा में इन दिनों नरेंद्र भाई नंबर वन हैं और उन्होंने सारे पुराने खिलाडिय़ों को मार्गदर्शक मंडल नामक बर्फ की दीवार पर चिपका रखा है। कांग्रेस में तो नेहरू गांधी खानदान का नवजात शिशु तक नंबर वन माना जाता है। ऐसा नहीं कि नंबर वन बनने का कीड़ा हमारे मस्तिष्क में नहीं है लेकिन हम बार-बार कभी ‘कबीरÓ कभी ‘तुलसीÓ कभी ‘रैदासÓ नामक भस्मवटियों का प्रयोग कर उसे आपे में रखते हैं।