जिस देश में मां की तरह पूजी जाने वाली गंगा और यमुना नदियों
की सुध लेने वाला कोई नहीं, उस देश में दूसरी नदियों की चिंता शायद ही किसी को हो।
एक पर्यावरणीय सर्वे में देश के सात राज्यों की 47 फीसदी नदियों के प्रदूषित होने
की खबर ने शायद ही किसी को चौंकाया हो। उत्तर प्रदेश, आंध ्रप्रदेश, पश्चिम बंगाल,
मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और दिल्ली की नदियों के सर्वे में हुए खुलासे चौंकाने वाले
तो हैं ही, चिंता में डालने वाले भी हैं।
इन नदियों में 92 फीसदी सीवेज वाटर बिना
ट्रीटमेंट के डाल दिया जाता है। चौंसठ फीसदी शहरों में सीवेज पानी के मामलों में
नियमों के उल्लंघन की बात सामने आई है। मतलब सीधा और साफ है कि जिन विभागों पर
सीवेज वाटर ट्रीटमेंट के बाद ही नदी में डालने की जिम्मेदारी है, वे अपने काम में
कोताही बरत रहे हैं। हर छोटी-बड़ी नदी इसके आस-पास रहने वालों की “जीवन रेखा” मानी
जाती है।
करोड़ों लोगों की रोजमर्रा की जिंदगी नदियों पर निर्भर होती है। “जीवन
रेखा” के साथ अगर इतना बड़ा विश्वासघात होता है तो सरकारों पर तो सवाल खड़ा होता ही
है, आम जनता भी जिम्मेदारी से बच नहीं सकती। गंगा जैसी नदी की सफाई पर बीते तीन दशक
में पांच हजार करोड़ रूपए से अधिक खर्च हो चुके हैं लेकिन गंगा है कि साफ होने की
बजाए दिन-ब-दिन मैली होती जा रही है। ऎसी मैली कि अमृत तुल्य समझे जाने वाले गंगा
जल को पीना तो दूर, आचमन के लिए हाथ में लेने से भी डर लगने लगा है। फैक्ट्रियों से
निकलने वाले खतरनाक रसायन गंगा की धार में मिलकर जल के साथ-साथ आस-पास की जमीनों को
भी विष्ौला बना रहे हैं। गंगा और दूसरी नदियों के जल से होने वाली खेती करोड़ों
लोगों को रोजाना गंभीर बीमारियों के जंजाल में जकड़ रही है।
हर सरकार गंगा और
दूसरी नदियों को साफ करने का ढिंढोरा तो पीटती है लेकिन काम होता नजर नहीं आता।
हजारों करोड़ रूपए खर्च होने के बावजूद यदि नदियां साफ नहीं हो रही तो जिम्मेदारी
किसकी बनती है? नदियों के सफाई अभियान से जुड़े सरकारी विभागों की जिम्मेदारी तय
किए बिना जनता का धन यूं ही बर्बाद होता रहेगा और नदियां भी यूं ही और विष्ौली होती
रहेंगी। केन्द्र में नई सरकार भी “गंगा शुद्धि” के वादे के साथ आई है। नदियों की
हालत किसी से छिपी नहीं है। सरकार चाहे कोई भी तरीका अपनाए लेकिन नदियों को साफ
करने के काम को सर्वोच्च प्राथमिकता में शुमार करे।