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ओपेक नहीं अमरीका तय करेगा दाम!

Published: Dec 11, 2016 11:15:00 pm

पिछले लगभग 3 सालों से कच्चे तेल की लगातार घटती कीमतों के कारण पेट्रोलियम उत्पादों के भारत समेत

Crude oil

Crude oil

पिछले लगभग 3 सालों से कच्चे तेल की लगातार घटती कीमतों के कारण पेट्रोलियम उत्पादों के भारत समेत अन्य तेल उपभोक्ता देशों को भारी फायदा हुआ। भारत को कुल तेल की खपत का 70 प्रतिशत से ज्यादा आयात करना पड़ता है। घटती तेल कीमतों के चलते भारत का तेल आयात का बिल 2012-13 में 164 अरब डॉलर से घटता हुआ 2015-16 में मात्र 83 अरब डॉलर तक पहुंच गया। इससे हमारा व्यापार घाटा वर्ष 2012-13 में 190 अरब डॉलर से घटता हुआ 2015-16 में 118 अरब डॉलर रह गया।


तेल कीमतें घटती नहीं तो यह संभव नहीं होता। इससे सरकारी खजाने को तो फायदा पहुंचा पर तेल पर कर वृद्धि सेे पूरा लाभ उपभोक्ताओं तक नहीं पहुंचा। राजस्व बढऩे से सरकार को राजकोषीय अनुशासन लाने में सुविधा हो गई और 2015-16 तक आते-आते हमारा राजकोषीय घाटा जीडीपी के 3.9 प्रतिशत तक पहुंच गया। हमारी विकास दर भी बेहतर हुई और मुद्रास्फीति भी घटी। पिछले कुछ समय से अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतें पुन: बढऩे लगी हैं। किसी समय 30 डॉलर प्रति बैरल से भी नीचे पहुंची कच्चे तेल की कीमत कुछ दिन पहले 55 डॉलर प्रति बैरल के आसपास पहुंच गई। इस वर्ष सितंबर में कच्चा तेल उत्पादक देशों के संगठन (ओपेक) ने अपने कुल उत्पादन को 17 लाख बैरल प्रतिदिन घटाने का फैसला किया। ‘ओपेकÓ दुनिया की कुल तेल खपत का 42 प्रतिशत उपलब्ध कराते हैं।


29 नवंबर 2016 को ओपेक और गैर ओपेक तेल उत्पादक देशों की बैठक में मिलकर तेल उत्पादन घटाने के फैसले के बाद कच्चे तेल की कीमत 55 डॉलर प्रति बैरल के आसपास आ गई है। हालांकि इस पर असमंजस बना हुआ है कि क्या घटती तेल कीमतों का युग समाप्त हो गया और भविष्य में तेल कीमतें तेजी से बढ़ सकती हैं? वैश्विक स्तर पर ऐसा लगने लगा है कि शायद तेल कीमतें दोबारा बढऩे लगेंगी लेकिन बाजार की खबरें इस सोच को पुष्ट नहीं करती।


 माना जा रहा है कि एक ओर ओपेक व गैर ओपेक तेल उत्पादक देश उत्पादन घटा कर कीमत बढ़ाने की इच्छा रखते हैं। लेकिन दूसरी ओर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कुछ दूसरी शक्तियां तेल कीमतों को बढऩे नहीं देना चाहती। अमरीका की एनर्जी इन्फॉरमेशन एडमिनिस्ट्रेशन (ईआईए) का मानना है कि अगले साल भी तेल कीमतें 50 डॉलर प्रति बैरल से नीचे ही रहेंगी। ओपेक देश तेल उत्पादन घटाएंगे जरूर पर पूर्ति के आधिक्य के चलते कीमतें बढ़ेंगी नहीं। ईआईए का मानना है कि अमरीकी तेल कंपनियों के साथ गैर ओपेक देशों में भी उत्पादन बढ़ेगा, जिसके चलते ओपेक देशों द्वारा तेल की आपूर्ति घटने का प्रभाव कीमतों पर नहीं पड़ेगा। समाचार एजेंसी राइटर द्वारा जुटाई गई की जानकारी भी इसी तथ्य की पुष्टि करती है।

 हालांकि रायटर, ईआईए के तेल कीमतें 50 डॉलर प्रति बैरल के आसपास रहने के अनुमानके विपरीत मानता है कि तेल कीमतें 55 से 57 डॉलर प्रति बैरल रहेंगी। राइटर और ईआईए के अनुमानों में असहमति के बावजूद इस बात पर सहमति जरूर है कि तेल कीमतें 60 डॉलर प्रति बैरल से कम ही रहने वाली हैं। उधर विशेषज्ञ ‘ओपेकÓ द्वारा उत्पादन घटाने के बारे में भी पूरी तरह से आश्वस्त नहीं है। ऐसे में जब ओपेक देशों ने अपना कुल उत्पादन 17 लाख बैरल प्रति दिन घटाने का निर्णय लिया है, यह इस बात पर निर्भर करेगा कि गैर ओपेक देश अपना उत्पादन 6 लाख बैरल प्रतिदिन घटाएं। अभी तक केवल रूस ने ही अपना उत्पादन 3 लाख बैरल प्रतिदिन घटाने का वादा किया है। हालांकि ओपेक देशों का कहना है, चाहे गैर ओपेक देश तेल उत्पादन घटाएं या न घटाएं, उनकी तेल उत्पादन घटाने की मुहिम जारी रहेगी।

 तमाम अपेक्षाओं और आशंकाओं के मद्देनजर लगता यही है कि तेल कीमतें अपने55 डॉलर प्रति बैरल के स्तर पर या उससे भी कम रह सकती हैं। 1973 के बाद ओपेक देशों द्वारा अपनी आपूर्ति घटाने की ताकत के बल पर तेल कीमतों में नियंत्रण और लाभों को अधिकतम करने की कवायद दुनिया ने देखी है। उस समय दुनिया में तेल की आपूर्ति का 52 प्रतिशत ओपेक देशों से प्राप्त होता था, जो अब घटकर 42 प्रतिशत रह गया है।

 ओपेक के सदस्य स.अरब और गैर ओपेक तेल उत्पादक रूस के बीच व्यवसायिक या अन्य कारणों से तनाव भी जगजाहिर है। उधर अमरीका द्वारा लम्बे समय से उत्पादन को 50 लाख बैरल से 90 लाख बैरल तक बढ़ाये जाने ने भी तेल कीमतों को घटाने में बड़ी भूमिका अदा की है। ओपेक देश और उनके साथ मिलकर चाहे गैर ओपेक देश भी जो समझौते कर रहे हैं, उनको ईमानदारी से लागू करने के प्रति संदेह बना ही हुआ है।

 अमरीका द्वारा लगातार उत्पादन बढ़ाने से संकेत मिलता है, अमरीका की यह कोशिश रहेगी कि तेल कीमतें न बढऩे पाएं। उसके पीछे दो कारण हो सकते हैं- एक स. अरब और ओपेक के दूसरे देशों के पास बहुत ज्यादा अधिशेष उत्पादन न हो क्योंकि ऐसा माना जाता रहा है कि वे बड़ी मात्रा में आतंकवाद का वित्तीय पोषण करते हैं। दूसरा कारण यह कि बढ़ती तेल कीमतें अमरीका समेत दुनिया में आर्थिक मंदी को समाप्त करने के प्रयासों को धक्का पहुंचा सकती है।

डॉ. अश्विनी महाजन

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